भारत के मुख्य न्यायाधीश को खुला पत्र: जूता फेंकने जैसी घटनाओं को रोकने के दिशा निर्देश जारी करें
मुनेश त्यागी
पिछले दिनों भारत के सर्वोच्च न्यायालय के जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जोयमाल्या बागची की खंडपीठ ने भारत के मुख्य न्यायाधीश बी आर गवई पर जूता फेंकने जैसी निंदनीय घटनाओं को भविष्य में कैसे रोका जाए, इस पर सुझाव मांगे हैं। न्यायमूर्ति सूर्यकांत और जोयमाल्या बागची की खंडपीठ ने कहा है कि ऐसी घटनाओं को रोकने की जरूरत है। पीठ ने जोर देकर कहा है कि इस जरुरी मामले पर एटोर्नी जनरल और बार को अपने प्रस्तावित और प्रभावशाली सुझाव देने की जरूरत है ताकि भारतीय स्तर पर समुचित दिशा निर्देश जारी किये जा सकें।
सर्वोच्च न्यायालय की आदरणीय खंडपीठ का कहना है कि वह ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए देशभर के लिए दिशा निर्देश जारी करने पर विचार कर रही है। इसी मुद्दे को आगे बढ़ते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी मुख्य न्यायाधीश पर जूता फेंकने की कारस्तानी की निंदा की है। उसने कहा है कि भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए सख्त कदम उठाने की जरूरत है।
भारत के मुख्य न्यायाधीश पर जूता फेंकने की यह घटना भारतीय न्यायापालिका के इतिहास में बेहद असभ्य, मनमानी, दुरदांत और बर्बर घटना है। यह अचानक नहीं बल्कि सोचे समझे तरीके से मुख्य न्यायाधीश को अपमानित करने वाली और नीचा दिखाने वाली घटना और कूकृत्य था। यह अमानवीय नफरत भरी सोच और मानसिकता का परिणाम थी। इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं, पर जो हुआ वह बहुत ही निंदनीय और अफसोसजनक घटना थी, जिसे किसी भी दशा में माफ नहीं किया जाना चाहिए और इसे कतई भी बर्दाश्त नही किया जा सकता है।
अगर ऐसे न्याय के हत्यारे अपराधियों को समय रहते कठोर दंड नहीं दिया गया तो फिर तो जजों का काम करना लगभग असंभव हो जाएगा और यह तो अपराधियों के लिए एक “रुलिंग” बन जाएगी और अपराधी किस्म के लोग इसका लगातार फायदा उठाकर पूरी न्याय व्यवस्था को ही बर्बाद कर और अप्रभावी बना देंगे। इसका असर यह होगा कि भविष्य में जिस पार्टी के पक्ष में फैसला नहीं दिया जाएगा, तो वह जजों पर जूता ही क्या, पत्थर और गोलियां भी चलाने लगेंगे। फिर तो अदालतों में जाना ही गुनाह हो जाएगा। फिर तो जजों को पीटा भी जाने लगेगा और विरोधी वकीलों को तो गोलियां तक मार देने जैसी परिस्थितियां पैदा हो जाएंगी। फिर न्यायपालिका और न्यायाधीश की गरिमा और आजादी क्या, फिर तो पूरे समाज में नफरत, जूतेबाजी, गोलीबाजी और कानून विहीनता का ही साम्राज्य क़ायम हो जाएगा, तब तो संविधान और कानून के शासन की जगह मनमानी, असभ्यता, बर्बरता और जंगलीपन छा जाएगा और संविधान और कानून के शासन का खात्मा ही हो जाएगा।
ऐसी परिस्थितियों को रोकने के लिए मुख्य रूप से अधिवक्ता समाज को जागरूक होने की जरूरत है। संविधान, न्यायपालिका की आजादी और कानून के शासन की गरिमा को बनाए रखने की और इसे और भी ज्यादा मजबूत बनाए रखने की जरूरत है। अब यहीं पर सवाल उठता है कि भविष्य में ऐसी गैरकानूनी, अपमानजनक, मनमानी, बर्बर और जंगली परिस्थितियों को रोकने के लिए क्या किया जाए?
भविष्य में इस तरह की आपराधिक घटनाएं न पैदा हों और संविधान की स्वतंत्रता और कानून के शासन को बनाए रखा जा सके, इसके लिए पूरी न्यायपालिका के तमाम जजों, तमाम बार एसोसिएशनों को और वकीलों के तमाम संगठनों को जागरूक और एकजुट होना पड़ेगा। इसके लिए तमाम वकीलों को कानून के शासन में विश्वास रखने वाला, कानून के गरिमामय पेशे में विश्वास रखने वाला, इसकी रक्षा करने वाला और न्याय प्रिय बनाने का अभियान चलाना होगा। वकीलों में धर्मनिरपेक्षता की मानसिकता को और सोच को मजबूत और जागरूक बनाना होगा। उन्हें किसी धर्म का नहीं, बल्कि न्याय का प्रहरी और रक्षक बनाना होगा। उन्हें कानून के तौर तरीकों जैसे अपील, रिवीजन और रिव्यू के द्वारा अपना पक्ष अदालत के सामने रखना होगा।
इसी के साथ-साथ न्यायिक अधिकारियों को भी सावधान रहना होगा। उन्हें और ज्यादा संवेदनशील बनना होगा। तारीख पे तारीख देने वाली परिस्थितियों को धाराशाई करना होगा और अपने कामकाज में तेजी और न्यायप्रियता लानी होगी। उन्हें सही मगर, अप्रिय टिप्पणियों से बचना होगा और इसी के साथ-साथ जनता को सस्ता और सुलभ न्याय कैसे दिया जाए? इस पर भी प्रभावी तरीके से विचार विमर्श करना होगा और साथ ही साथ मुकदमों के अनुपात में जजों का ना होना और मुकदमों के अनुपात में न्यायालयों/अदालतों का न होना और कई न्यायालयों में सरकार द्वारा निपुण और कानूनों के जानकार जजों को नियुक्त न करना भी जनता में न्यायिक आतंक, हताशा और बेचैनी पैदा कर रहा है।इसे प्रभावी तरीके से तत्काल रोकना होगा। यहीं पर यह याद रखना भी जरूरी है कि भारत का न्याय आयोग और भारत का सर्वोच्च न्यायालय बहुत साल पहले, अपनी सिफारिशों और कई फैसलों में यह कह चुके है कि भारत में 10 लाख जनसंख्या पर 50 जज होने चाहिएं, जबकि वर्तमान में यह संख्या 20 से भी कम है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह निश्चित किया गया है कि 10 लाख जनसंख्या पर पर 107 जज होने चाहिएं, मगर इन सिफारिशों और फैसलों पर सरकार कोई ध्यान नहीं दे रही है जिस कारण जनता को समय से, सस्ता और सुलभ न्याय नहीं मिल पा रहा है। जनता को शीघ्र, सस्ता और सुलभ न्याय दिलाने के लिए, भारत के सर्वोच्च न्यायालय को अपने इन न्याय समर्थक और बहुत ही अहम फैसलों को करने लागू कराने पर लगातार जोर देना होगा।
इसी के साथ-साथ ऐसी न्याय विरोधी और मनमानी हरकतों को प्रभावी तरीके से रोकने के लिए यह और भी ज्यादा जरूरी हो गया है कि 1. ऐसे अपराधी वकीलों को वकालत के पेशे से बाहर किया जाय, 2. उन पर 10-10 लाख का जुर्माना लगाया जाए और 3. उन्हें 10 साल की जेल की कठोर सजा देनी होगी, ताकि भविष्य में कोई भी वकील ऐसी अन्यायी, मनमानी, अपमानजनक और अन्यायपूर्ण, आतंकवादी घटना, अदालतों और न्याय परिसर में ना कर सके।
आज हमारा समाज जातिवाद, वर्णवाद और सांप्रदायिकता की बीमार जहरीली और तंग नजरिये की सोच और मानसिकता से गंभीर रूप से बीमार बना दिया गया है। संविधान की बुलंदी और कानून के गरिमामय पेशे पर जोरदार हमले किए जा रहे हैं। इन मनमाने, आपराधिक, अपमानजनक और अन्यायपूर्ण एवं आतंकवादी तौर तरीकों से, वाजिब न्याय की आशा और विश्वास पर करारे कुठाराघात किये जा रहे हैं। अतः न्यायपालिका, न्यायालयों, संविधान और कानून के गरिमामय पेशे की हिफाजत के लिए, न्यायिक अधिकारियों, न्यायाधीशों, वकीलों और पूरे देश और समाज को एकजुट होकर, भारत के मुख्य न्यायाधीश पर जूता फेंकने जैसे असभ्य, बर्बर, जंगली, अपमानजनक, आपराधिक, असंवैधानिक और कानून के शासन की गरिमामय सोच को, एकजुट होकर, बिना देर किए मात देनी होगी। संविधान, न्यायपालिका की आजादी और वकालत के गरिमामय पेशे को बचाने की, आज यह सबसे बड़ी जरूरत बन गई है।
लेखक पेशे से अधिवक्ता हैं।
