ओम सिंह अशफ़ाक की कविता- डिज़िटल रोटी

कविता

डिज़िटल रोटी

ओम सिंह अशफ़ाक

कवि चाहता है

निस्तेज़ आंखों में

चमक लौट आए

चेहरे पर हताशा- निराशा की झलक

न दिखे दुश्मनों को

कहें ज़िन्दा हैं अभी भी

मरा नहीं साला, ग्लोबल हमलों में?

कवि यौगिक हंसी हंसता है

सारे जहां के ऐश्वर्य का

मालिक दिखना चाहता है तत्क्षण

अभिनेता नहीं है कवि

गायब हो जाती है हंसी

कैमरे का बटन दबते-दबाते

बार-बार रिटेक सा करता है

फोटोग्राफर-स्माइल प्लीज, स्माईल-

हंसी की जगह

कृत्रिमता मुस्कुराती है

क्या करें भाई साहब-

डार्क- रूम में काले सफेद का

कंट्रास्ट भी अब

उंगलियों का हुनर नहीं रह गया है

अब तो

डिजिटल कैमरा जैसा देता है

वैसी ही रोटी खाते हैं।

(‘इसी दौर में’ संग्रह से)

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