कहानी
लिफ्ट
ओमप्रकाश तिवारी
शाम के करीब छह बज रहे थे। शहर की तरफ़ जाने के लिए सड़क के किनारे खड़ा था। कम चौड़ी सड़क पर वाहन तेज गति से आ जा रहे थे। सड़क के किनारे घास फूस ज़्यादा था। उसके बाद नाला था। सड़क पर ही खड़ा होना मजबूरी थी लेकिन वाहन चालक यह छूट नहीं दे रहे थे।
मुझे ऑटो रिक्शा या ई रिक्शा का इंतजार था। लगभग पाँच मिनट गुज़र चुके थे। इंतज़ार करना मुश्किल हो रहा था। मन में आ रहा था कि किसी कार या बाइक वाले से लिफ्ट ले लूँ। ध्यान से देखा सभी तेज गति से चले जा रहे थे।
अचानक एक बाइक वाला पास आकर रुका और बोला कि जल्दी बैठ जाओ छोड़ देता हूँ।
मैं चुपचाप बाइक पर पीछे बैठ गया। कुछ दूर जाने के बाद जब वह एक नए रास्ते पर मुड़ गया तो दिमाग़ सक्रिय हो गया। ख्याल आया कि गलती हो गई है। अब कुछ भी हो सकता है।
चुपचाप रास्ते को देखता रहा। कुछ होने का इंतजार करता रहा। भले अंधेरा हो गया था लेकिन रास्ते में अंधेरा नहीं था। इस वजह से ज़्यादा भय नहीं लग रहा था। यह भी ख्याल आया कि बेवजह किसी पर शक नहीं करना चाहिए। पास में मोबाइल के अलावा कुछ खास नहीं था। सोचा ज़्यादा से ज़्यादा क्या करेगा। मोबाइल छीन लेगा। नक़दी है नहीं। क़ीमती धातु की कोई चीज पहनी नहीं है।
फिर मार भी सकता है। कहेगा साला कंगला घूमता है। समय ख़राब होने का गुस्सा निकाल सकता है। चाकू मार सकता है या गोली भी। चार झापड़ मार कर भी छोड़ सकता है। एटीएम से रुपये भी निकलवा सकता है। ऑनलाइन पैसे ट्रांसफर करवा सकता है।
इसी बीच वह हाइवे पर आ गया।
मेरी सभी आशंका रफूचक्कर हो गई।
नहीं भाई कुछ नहीं होगा।
थोड़ी देर में वह मेरे गंतव्य पर रुका।
मैं बाइक से उतरा और उसे धन्यवाद बोला।
कोई बात नहीं कह कर वह वह आगे चला गया।
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