जाति
ओमप्रकाश तिवारी
बात नब्बे के दशक के शुरूआत की है।
कोई कल्पना नहीं इसी देश समाज की है।
एक दिन गांव में डीएम साहब आए थे।
गांव वालों के साथ बैठक कर रहे थे।
बैठक में प्रधान और पूर्व प्रधान मौजूद थे।
मौजूदा प्रधान जी जमीन पर बैठे थे।
पूर्व प्रधान कुर्सी पर डीएम की बगल में बैठे थे।
डीएम को सारी सलाह पूर्व प्रधान दे रहे थे।
वर्तमान प्रधान जमीन पर बैठे उन्हें देख रहे थे।
ज्यादातर बातों पर खामोश और कुछ में हां मिला रहे थे।
अचानक डीएम साहब ने प्रधान जी से कुछ पूछ लिया।
प्रधान जी जैसे सोचकर ही बैठे थे, बोल ही पड़े।
साहब बाबा साहेब की एक प्रतिमा लगवा दी जाए।
डीएम साहब के साथ लगभग सभी हंसने लगे।
पूर्व प्रधान बोले कि इससे क्या ही होगा?
डीएम साहब भी बोले कि प्रतिमा से क्या मिलने वाला है?
प्रधान जी दबी आवाज में बोले कि साहब हमारे समाज की इच्छा है।
इसमें लगना ही क्या है?
अरे ये सब बेकार की बातें हैं
इससे कुछ नहीं होता जाता है
कहते हुए डीएम कुर्सी से उठ गए।
यही बात प्रधान को पूर्व प्रधान भी समझा गए
सभा खत्म हुई सभी उठ कर चले गए।
डीएम को गाड़ी तक छोड़ने पूर्व प्रधान आए।
वर्तमान प्रधान तो अपनी जगह से हिल ही न पाए।
किसी तरह पांच साल प्रधानी की
बाद में पूर्व प्रधान का बेटा प्रधान बन गया
वर्तमान प्रधान जब पूर्व हुए तो ठेले पर कपड़ा प्रेस करने लगे।
हालांकि इससे पहले उनकी अपनी दुकान हुआ करती थी।
प्रधानी सब लील गई, प्रधान जी को सड़क पर छोड़ गई।
पूर्व प्रधान का प्रधान बेटा गांव से लेकर शहर तक कोठी बनवा रहा है।
महंगी चार चक्का गाड़ी से घूम रहा है।
अब गांव में डीएम की बैठक नहीं होती है।
प्रधान जी की कोठी में चाय पार्टी होती है।