पुरानी फिल्में नए यथार्थ को फिर से परिभाषित कर सकती हैं: अनाड़ी और प्यासा का पुनरावलोकन

बात फिल्मों की

पुरानी फिल्में नए यथार्थ को फिर से परिभाषित कर सकती हैं: अनाड़ी और प्यासा का पुनरावलोकन

हर भगवान चावला

आजकल मैं यू ट्यूब पर पुरानी फिल्में देख रहा हूँ। पिछले पंद्रह दिनों में नौकरी, रेलवे प्लेटफॉर्म, चलती का नाम गाड़ी, अनाड़ी, प्यासा, चोरी-चोरी, झुमरू, छलिया, आवारा, राम और शाम जैसी क़रीब पंद्रह फिल्म देख चुका हूँ। अधिकांश फ़िल्मों में जो एक बात साझी है, वह है मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा और व्यवस्था से सवाल। आज मैं ख़ास तौर पर दो फ़िल्मों पर संक्षिप्त टिप्पणी कर रहा हूँ। ये फ़िल्में हैं – अनाड़ी और प्यासा।

अनाड़ी मैंने तीसरी बार देखी। इस फिल्म ने हमेशा मुझे झिंझोड़ा है और भावुक किया है। आदमी को कैसा होना चाहिए? मुझे लगता है संवेदनशील, ईमानदार, निश्छल और मानवीय। इस फ़िल्म के नायक में ये सारी ख़ूबियाँ हैं। यह फिल्म इन्सान को और बेहतर इन्सान बनने के लिए प्रेरित करती है। एक ईसाई महिला मिसेज़ डीसा तथा एक हिंदू युवक राजकुमार उर्फ़ राजू के बीच जो रिश्ता है, उसे दुनिया का सबसे प्यारा रिश्ता कहा जा सकता है। यह फ़िल्म मानवीय संवेदनाओं का जीवंत दस्तावेज़ है। मिसेज़ डीसा ऊपर से कठोर दिखती हैं, पर भीतर से बेहद मुलायम हैं। वह राजू को लगातार कोसती हैं कि उसने मकान का किराया नहीं दिया, कि वह निकम्मा है, लेकिन उसके खाने का ख़याल रखती हैं, उसकी बनाई तस्वीरें एक दराज़ में रखती जाती हैं और बोलती हैं कि तस्वीरें बिक गई हैं, यह सँभालो तुम्हारे पैसे। इस फिल्म का सबसे मार्मिक दृश्य वह है जब राजू को एक अमीर आदमी का गिर गया बटुआ मिलता है। वह उसे लौटाने के लिए अमीर आदमी की कार के पीछे दौड़ता है, लेकिन कार निकल जाती है। कुछ ग़ुंडे बटुए को उससे छीनने की कोशिश करते हैं। राजू घायल होकर भी बटुए को बचाने में कामयाब हो जाता है। वह जब बटुए के साथ घर में प्रवेश करता है तो उसके फटे कपड़े तथा सूरत देखकर मिसेज डीसा सोचती हैं कि इसने चोरी की है। वह इसे बरदाश्त नहीं कर सकतीं, क्योंकि जिस निश्छल, मन के निर्मल, ईमानदार राजू पर उनका स्नेह है, वह यह राजू नहीं हो सकता। उनका दिल छलनी हो जाता है। करुणा और क्रोध में छटपटाती वह राजू को अपराध स्वीकृति के लिए घसीटती हुई ईसा मसीह की मूर्ति के सामने ले जाती हैं और उसे अपराध स्वीकार कर माफ़ी माँगने के लिए मजबूर करती हैं। राजू बार-बार ज़ोर देकर बोल रहा है – मिसेज डीसा, मैंने चोरी नहीं की, मैं चोर नहीं हूँ। कौन ऐसा दर्शक होगा जो इस दृश्य को देखकर रोया नहीं होगा!

इस फिल्म का सूत्र वाक्य मिसेज डीसा तब बोलती हैं जब वह वकील के पास जाकर अपनी विरासत लिखती हैं। वह अपनी सारी संपत्ति राजू के नाम करती हैं तो वकील पूछता है – आप क्रिश्चियन हैं और वह हिंदू, आपका उससे क्या रिश्ता है? जवाब आँखें खोल देने वाला है – मेरा और उसका रिश्ता तब से है जब क्रिश्चियन और हिंदू पैदा नहीं हुए थे (यानी जब इन्सान की पहचान धर्म से नहीं, इन्सानियत से थी)। यह फिल्म उन धर्मांधों को अवश्य देखनी चाहिए जिनके लिए पहचान का मतलब सिर्फ़ धर्म है। मानवीय, निश्छल और ईमानदार हुए बिना न तो कोई व्यक्ति धार्मिक हो सकता है और न इन्सान कहलाने का अधिकारी।

‘प्यासा’ फिल्म एक ऐसे शायर की कहानी है जो पैसे को भगवान समझने वाले समाज में अपने को अकेला पाता है। उसकी पीड़ा, उसकी प्रतिभा, उसकी संवेदना किसी के लिए उपयोगी नहीं है। भाई उसे घर से निकाल देते हैं, प्रियतमा उसे उसकी ग़रीबी के कारण ठुकरा देती है। शायर के हिस्से में भटकन आई है। इस भटकन के दौरान वह समाज में इस तरह के अमानवीय मंज़र देखता है कि कराह उठता है – जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं? एक तवायफ़ उसकी शायरी को अपने अंतर्मन के बहुत क़रीब पाती है। शायर विजय एक भिखारी को ठंड से काँपते देखता है तो अपना कोट उसे पहना देता है। वह भिखारी रेल की पटरी के बीच फँस जाता है, शायर विजय उसे वहाँ से निकालने की भरपूर कोशिश करता है और नाकामयाब होता है। रेलगाड़ी की टक्कर से भिखारी मारा जाता है और विजय बुरी तरह घायल हो जाता है। भिखारी के पहने कोट से यह मान लिया जाता है कि विजय की मौत हो गई।

तवायफ़ गुलाब उसकी शायरी का संग्रह छपवाती है और यह संग्रह हाथों-हाथ बिकता है। विजय अस्पताल में बेहोशी की हालत में है और वार्ड में बैठी नर्स उसके संग्रह में से एक नज़्म पढ़ रही है। इसे सुनकर विजय सचेत होता है और बिस्तर से उठकर नर्स के हाथ से वह किताब ले लेता है और चिल्लाता है – यह मेरी किताब है, ये मेरी नज़्में हैं। डॉक्टर्स की नज़र में तो विजय मर चुका है, इसलिए उसे पागल क़रार दे दिया जाता है। प्रकाशक क्योंकि उसकी किताब से ख़ूब पैसा बना रहा है, इसलिए वह नहीं चाहता कि शायर विजय ज़िंदा हो। वह पागलख़ाने में विजय को पहचानने से इन्कार कर देता है। पैसे के लालच में भाई भी उसे नहीं पहचानते। जब उसके प्रशंसक उसे पहचानते हैं तो वह ख़ुद यह घोषणा कर देता है कि शायर विजय अब ज़िंदा नहीं है। वह निकल पड़ता है किसी ऐसी जगह की ओर, जहाँ स्वार्थ न हो, जहाँ पैसे से किसी की पहचान न हो, जहाँ निर्मम सामाजिक व्यवस्था न हो। संवेदना और भावना के इस सफ़र में उसकी हमसफ़र बनती है गुलाब यानी एक तवायफ़। इस फिल्म का सूत्र वाक्य है – जहाँ बुतों को पूजा जाता है और ज़िंदा इन्सानों को पैरों के नीचे रौंदा जाता है, ऐसी दुनिया मुझे नहीं चाहिए। यह फ़िल्म इन्सानी रिश्तों को बने बनाए साँचों से बाहर आकर नए दृष्टिकोण से देखने पर मजबूर करती है। तवायफ़ गुलाब फिल्म की सबसे प्यारी, पवित्र तथा मानवीय पात्र के रूप में प्रस्तुत होती है।

उपरोक्त दोनों फ़िल्मों की आज के समय में और अधिक आवश्यकता है, और अधिक प्रासंगिकता है। पुरानी फिल्में नए यथार्थ को फिर से परिभाषित कर सकती हैं। आज जब धार्मिक कट्टरता का दैत्य इन्सानियत को निगल जाने पर आमादा है और आज जब सवाल करना गुनाह है तो ऐसी फ़िल्में मर रही इन्सानियत के लिए संजीवनी का काम कर सकती हैं।

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