सात साल पहले एशियाड खत्म होने के बाद ओमप्रकाश तिवारी ने यह टिप्पणी लिखी थी। यह आज और अधिक प्रासंगिक हो गई है। इसमें चीन और भारत के खिलाड़ियों के पदकों के बीच फासले पर चर्चा करते हुए दुनिया के तमाम देशों के नागरिकों से भारत के नागरिकों की तुलना की है। भारतीयों की मनोदशा, प्रवृत्तियों पर चर्चा की है। इतने समय बाद भी हम कहां पर हैं। जबकि हमारी युवा आबादी दुनिया में सबसे अधिक है।
रोजगार न पगार, महँगाई की मार जुगाड़ों की भरमार
ओमप्रकाश तिवारी
अभी अभी एशियाड खत्म हुआ है। भारत 15 गोल्ड सहित कुल 69 मेडल जीत पाया और 8वें नम्बर पर रहा। चीन शीर्ष पर। अंतर इतना कि जितना जमीन आसमान में है। ओलंपिक में तो एकाध ही गोल्ड मेडल जीत पाते हैं। हम खेल में इतने पीछे क्यों हैं? पहला सवाल सिस्टम की खामियों पर उंगली उठाता है। सही भी है। लेकिन इसके पीछे एक बड़ी वजह मैं समाजिक और सांस्कृतिक बुनावट को मानता रहा हूं। मैं दोस्तों के बीच कहता रहा हूं कि हम भारतीय आलसी बहुत हैं। खेल मेहनत मांगता है और हम मेहनत करना नहीं चाहते। हम भारतीय हमेशा जुगाड़ में लगे रहते हैं। हमारा काम जुगाड़ से होता है। नौकरी जुगाड़ से मिलती है। पदोन्नति जुगाड़ से होती है। पुरस्कार जुगाड़ से मिलता है। नेता जुगाड़ से जीतता है। खेल संघ वाले जुगाड़ वाले खिलाड़ियों को प्रतियोगिता में ले जाते हैं। प्रतिष्ठा भी जुगाड़ से मिलती है। सब कुछ जुगाड़ से मिलता है, लेकिन खेल में पदक नहीं। इसलिए पीछे रह जाते हैं।
हमारी संस्कृति जुगाड़ की संस्कृति बनकर रह गयी है। मेहनत वाला गधा कहलाता है और जुगाड़ वाला स्मार्ट…चतुर सुजान… गधा खेल नहीं खेलता और चतुर सुजान शारीरिक खेल खेलता नहीं, मानसिक खेल खेलने से बाज आता नहीं। इसलिए शारीरिक खेल में कोई पदक पाता नहीं।
हम कितने आलसी हैं इसका एक डाटा सामने आया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक ताजा रिपोर्ट आई है। इसके अनुसार देश के 34% लोग शारीरिक रूप से बेहद कम सक्रिय हैं। इससे पहले 2001 में ऐसा शोध किया गया था तब भारत के 32% लोग शारीरिक रूप से कम सक्रिय थे। अब 15 साल डाटा एकत्रित करके 2016 में रिपोर्ट आई तो आलसियों की संख्या दो फीसदी बढ़ गयी। शारीरिक रूप से सक्रियता यानी मेहनत, श्रम करने हम चीन ही नहीं पाकिस्तान और नेपाल से भी पीछे हैं। कुवैत के लोग सबसे आलसी और युगांडा के लोग सबसे एक्टिव हैं। शारीरिक श्रम करने के मामले में 168 देशों में भारत का स्थान 52वां है। संगठन ने चेताया है कि शारीरिक रूप से कम सक्रिय होने की वजह से दुनिया की करीब डेढ़ करोड़ युवा आबादी पर 6 तरह की बीमारियों का खतरा है। यह बीमारियां हैं कार्डियोवस्कुलर, हाइपरटेंशन, टाइप-2 डायबिटीज, ब्रेस्ट और आंत का कैंसर। यह भी गौर करने लायक है कि भारत में पुरुषों की तुलना में महिलाएं कम एक्टिव हैं। 24.7% पुरुष तो 43.3 % महिलाएं कम एक्टिव हैं।
संगठन ने हमारे देश की जातीय संरचना पर ध्यान नहीं दिया। यदि देता तो मुझे पूरा यकीन है कि अलसी लोगों में एक जातीय वर्ग के लोग अधिक मिलते। दरअसल हमारा समाज सैकड़ों वर्षों से जातीय वर्ग में बंटा है। यहां बड़े ही शातिरपने से एक जातीय वर्ग पर श्रम की जिमेदारी थोप दी गयी। एक जातीय वर्ग को ज्ञानी बता कर ज्ञान बांटने की जिम्मेदारी दी दी गयी। एक जातीय वर्ग को वीर बता कर वीरता दिखाने की जिम्मेदारी दी दी गयी। एक जातीय वर्ग को व्यापार करने की जिम्मेदारी दे दी गई। इस तरह समाज का विभाजन कर दिया गया। श्रम करने की जिम्मेदारी जब एक तबके पर डाल दी गयी तो बाकी अपनी अपनी जिम्मेदारी में जुट गए। लेकिन कहते हैं कि वही समाज विकास करता है जो समय के साथ बदलता है। जो नहीं बदलता वह भारत हो जाता है। सदियों गुलामी झेलता है। कोई 70 साल पहले हम आजाद तो हो गए लेकिन समाजिक संरचना नहीं बदल पाए। लिहाजा अभी भी उलझे हुए हैं। देश में लोकतंत्र है लेकिन समाज और व्यवहार में नहीं है। पहले जो जातीय वर्ग श्रम नहीं करता था उसने कालांतर में जुगाड़ की संस्कृति विकसित कर ली। यह बात भी गौर करने वाली है कि ज्ञान बांटने वाले, वीरता दिखाने वाले और व्यापार करने वाले जातीय वर्ग की महिलाएं तो घर से ही बाहर नहीं निकलती थीं। यह श्रम क्या करेंगी? इस वर्ग की महिलाओं का कमोबेश अब भी यही हाल है। गृहिणी बनकर तमाम तरह की बीमारियों से जूझ रही हैं। फिजिकली अन एक्टिव रहने से जो 6 बीमारियां बताई गईं हैं वह इसी अभिजातीय वर्ग की महिलाओं में अधिक पाई जाती हैं।
इसके अलावा हमारे देश में एक इंडिया है। यह आजादी के बाद बना है। इंडिया के लोग मेहनत नहीं करते। यह भारतीयों की मेहनत की केवल मलाई चापते हैं। तो पहले दक देश बनाइए फिर समरसता और बराबरी वाले समाज का निर्माण करिये फिर मेडल जीतने की बात सोचिए। फिलहाल तो देश शौचालय में अटका है और विकास के चौराहे पर भटक गया है। न रोजगार है न पगार है। महंगाई की मार है। जुगाड़ों की भरमार है।