हरियाणाः जूझते जुझारू लोग-10
निर्मला देवीः संघर्ष और जीवन के प्रति ईमानदारी की प्रतिमूर्ति
सत्यपाल सिवाच
सर्वकर्मचारी संघ, अध्यापक संघ, जनवादी महिला समिति समेत जनसंगठनों और आन्दोलनों में काम करने वाले सभी लोग हिसार की निर्मला बहन जी को पहचानते हैं। वे उन सब जगहों पर आगे मिलती हैं जहाँ न्याय, बराबरी और जन हित के लिए लड़ाई हो।
निर्मला देवी का जन्म हिसार जिले के जाखोद खेड़ा गांव में 24 दिसंबर 1953 को श्रीमती दाखांदेवी और श्री बिंजाराम के घर हुआ। गांव के स्कूल से दसवीं तक की पढ़ाई पूरी करके जाट कॉलेज हिसार से प्राथमिक शिक्षा में डिप्लोमा कोर्स किया। 20 सितंबर 1972 को अस्थायी तौर पर प्राथमिक अध्यापिका नियुक्त हो गईं। अस्थायी शिक्षकों द्वारा शुरू किए गए संघर्ष को हरियाणा राजकीय अध्यापक संघ का समर्थन मिल जाने के चलते दो साल की सेवा पूरी करने वालों को 01 जनवरी 1980 से रेग्युलर कर दिया गया।
निर्मला जी का विवाह गांव किरतान और हिसार शहर में रहने वाले हरिसिंह रिणवा के साथ हो गया जो बाद में शिक्षा उपनिदेशक पद से रिटायर हुए। निर्मला जी 31 दिसंबर 2011 को राजकीय प्राथमिक पाठशाला सातरोड खुर्द से मुख्य शिक्षक पद से रिटायर हुईं।
वे सन् 1980 से ही अध्यापक संघ के संपर्क में आ गई थीं। अध्यापक संघ में सक्रिय होने से पहले वे जनवादी महिला समिति के कार्यक्रमों में हिस्सा लेने लगी थीं और उसी से प्रेरित होकर वे 1986-87 के आन्दोलन के समय अध्यापक संघ की कार्यकर्ता बन गईं। यह स्वाभाविक ढंग से हुआ। वे खण्ड, जिला और राज्य कार्यकारिणी में पदाधिकारी रहीं। अपनी सेवानिवृत्ति के समय संगठन की राज्य उपाध्यक्ष थीं। उन्होंने सर्वकर्मचारी संघ में भी खण्ड, जिला व राज्य इकाई में काम किया। उन्होंने सर्वकर्मचारी संघ में जिला सचिव जैसी बड़ी जिम्मेदारी भी निभाई। स्कूल टीचर्स फेडरेशन ऑफ इंडिया में सदस्य रहीं। अभी वह जनवादी महिला समिति और रिटायर्ड कर्मचारी संघ में सक्रिय रूप से जुड़ी हुई हैं।
निर्मला देवी बचपन से ही लड़कियों और महिलाओं के प्रति अत्याचार और उत्पीड़न को देखकर बेचैन हो जाती थीं। बड़े होने पर, खासकर शिक्षक बनने के बाद वह महिला अधिकारों की मुखर आवाज बन गईं। पितृसत्ता की सोच से प्रभावित समाज में ससुराल पक्ष और विशेषकर पति को यह सहज नहीं लगता था। उन्हें प्रताड़ना भी झेलनी पड़ती, लेकिन कभी मान-मनौवल करके और कभी अड़कर कार्यक्रमों में शामिल होती रहीं। धीरे धीरे पति को भी यह अहसास होता गया कि काम तो अच्छा है।
प्राध्यापिका सुशीला अपहरण और हत्याकांड में अध्यापिकाओं और अन्य महिलाओं को संगठित करने में निर्मला जी ने लगातार अग्रणी भूमिका निभाई। संघर्ष के परिणामस्वरूप सी.बी.आई. जाँच भी हो गई लेकिन कटु अनुभव यही है कि जहाँ अपराध में सत्तापक्ष के लोग संलिप्त होते हैं वहाँ कोई कार्रवाई नहीं हो पाती। वर्षों तक जाँच का नाटक करके मामले को अनट्रेसेबल बताकर बंद कर दिया गया।
निर्मला देवी को अनेक आन्दोलनों में गिरफ्तार किया गया लेकिन थाने में बैठाकर सायंकाल महिलाओं को छोड़ा जाता रहा। वे पहली बार सन् 1984 में सिक्ख विरोधी दंगों में पीड़ित परिवारों की मदद और बचाव अभियान का हिस्सा बनी थीं। उसके बाद कभी पीछे नहीं हटीं। उन्हें सन् 1987 में चार्जशीट किया गया था। सन् 1993 में भी नोटिस दिया गया था।
निर्मला जी के परिवार में पति के अतिरिक्त बेटा और बेटी हैं। दोनों विवाहित हैं और नौकरी करते हैं। बेटा बैंक में है और बेटी शिक्षक। तीसरी पीढ़ी के बच्चे आस्ट्रेलिया चले गए हैं। छोटे से परिवार के लोग चार जगह रह रहे हैं।
वह बहुत संवेदनशील और भावुक इन्सान हैं। उन्हें किसी विरोध प्रदर्शन में बुलाना नहीं पड़ता, बल्कि अन्याय के खिलाफ किसी भी प्रोग्राम की जानकारी मिलते ही पहुंच जाती हैं। “सादा जीवन, उच्च विचार” उनके जीवन का आदर्श है। वे स्वयं को प्रचारित नहीं करती, बल्कि जरूरी काम करती हैं। सौजन्य – ओम सिंह अशफ़ाक