सत्येन भंडारी का संस्मरण- चप्पलें

संस्मरण

चप्पलें

सत्येन भंडारी

चित्र में जो ‘कोल्हापुरी’ दिखाई दे रहीं हैं, ज़िन्दगी की बेहद खूबसूरत और साथ ही एक बेहद भद्दी याद भी है इससे जुड़ी अपनी…

इन्हें देखा और जाने कैसा तो हुआ जाता है मन…

ऑनलाइन परचेजिंग किसी साइट पे ₹1.16 लाख की ऐसी किसी कोल्हापुरी की इमेज लगाई थी एक मित्र ने. उक्त उस स्टेटस पे कमेंट करते हुए याद आयी थीं ये घटनाएं, पर पता नहीं क्यों लिख नहीं पाया. आज बता रहा…

मेरे कस्बे अकोला (महाराष्ट्र) का ‘छगनलाल’ मजबूत व सुंदर जूते-चप्पल बनाकर बेचा करता. सत्तर के दशक के उत्तरार्द्ध में आधे से ज्यादा शहर इसी के बनाए जूते-चप्पलें पहनता. बाऊजी तो आखिर तक इसी से बनवाते अपने जूते. संपन्नता के बाद वाली गुरबत फेस कर रहे थे उन दिनों हम. तंगहाली का यह हाल कि बीस तीस रुपओं की चप्पलें भी मुहाल थीं लेनीं!

“बच्चों की स्लीपरें बेहद खस्ताहाल हो चुकीं…यदि संभव हो तो ले दो नवी इन्हें. स्कूल जाते हैं तो साथी बच्चे हँसते हैं इन पे!”

किसी रात अम्मा को कहते सुना बाऊजी से!

“एक टूर है पन्द्रह दिनों का. कोल्हापुर जाना है. भत्ते जो मिलेंगे, कोशिश करूंगा दोनों के लिए चप्पलें लेता आऊँ. बेहद मजबूत टिकाऊ और सस्ती मिल जाएंगी वहाँ!”

तदनुसार जभी कोल्हापुर से लौटे वे हम दोनों भाईयों के लिए नवी और अत्यंत आकर्षक ये कोल्हापुरी चप्पलें ले आए. मुझे याद है कि डार्क इन चप्पलों में पैर भद्दे मैले न लगें करके पूरा हफ्ता भर कपड़े धोने के गोटे और चिकने पत्थर से घिसा किया था दोनों पांवों के पंजों को मैं. उजले हो चुके, नाखून कटे स्वच्छ पांव सजते थे कोल्हापुरी में. साथी छात्र ईर्ष्या से देखते. कहते;

“क्या मस्त चप्पलें लायीं हैं तेरे बाबा ने रे…”

केवल 80 रुपओं में मिलीं ये एकमात्र कोल्हापुरी थी जो बीस या पच्चीस दिन ही पहनीं मैंने. 80 रुपओं की ये कोल्हापुरी 1.16 लाख की चप्पलों से कहीं कीमती लगतीं हैं अब. एक तो ख़ून-पसीने की पिता की कमाई, दूजे उन दुर्भिक्ष भरे दिनों का अभाव…इससे मूल्यवान शायद कुछ और न हो सकता था!!

गणेशोत्सव के दिन थे. स्थानीय ‘स्वराज्य भवन’ के प्रांगण में स्थित मंच पर कवि-सम्मेलन चल रहा था कोई. मुहल्ले के अपने साथी छोकरों संग सुनने आया था इधर मैं. रात तीन बजे तक चलनेवाले इस आयोजन में मध्यांतर के समय आमंत्रित कवियों के आटोग्राफ लेने का चलन हुआ करता. पक्के मंच पे गद्दों और गावतकियों की बैठक हुआ करती. आटोग्राफ लेने हेतु ऊपर मंच पर जाते हुए चप्पलें उतारकर जाना होता नीचे. आटोग्राफ वाली अपनी डायरी लिए कई और लोगों के साथ मैं भी चढ़ गया…

जितना याद बन पड़ता है, सुरेंद्र शर्मा, शिवकुमार सरोज, मुकीम भारती और शैल चतुर्वेदी के आटोग्राफ ले पाया था उस रात मैं!

नीचे उतरा तो होश उड़ गए…

नवी कोरी चप्पलें मेरीं…कहीं अतापता न था इनका!

कुछ ही क्षण…

केवल कुछ ही क्षण…

पिता की मेहनत की कमाई से आयीं चप्पलों के खोने का दुख, रुपओं-पैसों की जारी किल्लत और घर लौटने पर पड़नेवाली डांट…

सबकुछ जेहन में घूम गया और इसके साथ घूम गया ले जाने वाले चोट्टे के प्रति आक्रोश!

और इन्हीं क्षणों में एक निश्चय भी…

“नंगे पांव घर नहीं जाएगा मैं!!”

मन भरा था, आंखें भी भर आयीं…

और…

और…

और भरीं आंखों में धुंधलका लिए उतारे गए जूते-चप्पलों में से किसी एक जोडी में पैर धंसाए और कवि-सम्मेलन बीच ही में छोड घरको निकला तो कोई डेढ बजा होगा!

राह लगे लैम्प-पोस्ट के उजाले में उठाकर लायी गयीं चप्पलें देखीं…लिबर्टी के ब्रांडेड सैंडिल्स थे ये…एकदम नवे!

क्षणिक विचार घूम गया;

“जिस किसी के हैं, बेचारे ने आज ही लिए होंगे!”

घर पहुंच चप्पलों को टेबल के नीचे सरका सो गया मैं…

अगले दिन शाम अपने काम से लौटे बाउजी तो नए चकाचक ये सैंडिल्स देख पूछ लिया;

“किसके सैंडिल्स हैं ये? कोल्हापुरी कहाँ गयीं तेरी??”

बडी सफाई से झूठ बोल गया मैं;

“मेरे दोस्त के हैं. उसे मेरी कोल्हापुरी बेहद पसंद आयीं तो एक दिन के लिए पहनने को ले ली उन्ने…”

चोर…वो भी तेरह वर्ष का किशोर…जुबान चाहे जितनी पटु क्यों न हो, अपनी आंखों को नहीं वश कर सकता. कहते हुए आंखें अपनेआप नीचीं हो गयीं थीं मेरीं!

बाऊजी कुछ बोले तो नहीं, पर चोरी से देख रहा था मैं…

उनका चेहरा काला पड चुका था…मलिन!!

अनमने से खाना खाए और सोने चले गए वे…

मारे डर के नींद तो क्या आती, मुंह ढांपे पडा रहा मैं कि देर रात पिता को फुसफुसाते हुए अम्मा से कहते सुना मैंने;

“गांव से आया सीधा सादा बच्चा अपना, झूठ तो बोल ही रहा है…मुझे शंका है कि सैंडिल्स चुराकर लाया है ये! कल रात कवि-सम्मेलन में गया था न…किल्लत भरे वर्तमान अपने जीवन में कहीं जिल्लत न झेलनी पडे हमें!”

“तुमको क्यों ऐसा लगता है? हो सकता है सच कह रहा हो…”

अम्मा ने बचाव किया तो दुखी स्वर में कहते लगे बाउजी;

“नहीं…कही बात से धोखा खा सकता हूँ मैं, नज़रें पहचानने में असंभव है ये!! क्या कहूँ, कैसे समझाऊँ इसे कि…”

ओढ़ी चादर के नीचे आंखें फिर भर आयीं थीं मेरीं, पर पिछली रात सा निश्चय भी कर लिया था मन ने!

सुबह उठा और सबसे पहला जो काम किया वो यह कि हुआ सारा मैटर जस का तस कह दिया अपने माता पिता को…

“मेरेको माफ कर दो बाऊजी, आगे कभी नहीं होगा ऐसा!”

वो कहने लगे;

“मुझे तुमसे यही उम्मीद थी कि सच बात जरूर बताओगे तुम. वही मैं कहूँ, तुम्हारे साथी छोकरों में कोई ऐसा संपन्न नहीं है ढाई-तीन सौ के ब्रांडेड सैंडिल्स पहने!! तुम्हें लौटाना होगा इन्हें…”

“किसे लौटाऊँ? मुझे नहीं मालूम किसकी हैं ये…”

कुछ क्षण सोचने के बाद कहा उन्होंने;

“कल का कवि-सम्मेलन अग्रवाल समाज का आयोजित किया हुआ था. तुम्हारे सहपाठी मित्र सतीश के पिता, श्री रामलाल अग्रवाल सचिव हैं समाज के. अग्रसेन भवन में बैठते हैं. कल जाओ, सारा माजरा बताओ उन्हें, और लौटा दो ये चप्पलें…झूठ बिल्कुल न बोलना, समझे?”

अगली दुपहर दो-तीन के बीच पहुंचा उधर तो सतीश को साथ ले गया. ‘विष्णु बुकसेलर’ नामक किताबों की दुकान थी इनकी, जानते थे मुझे. कहा उनसे;

“काका, कल रात कवि-सम्मेलन से ये चप्पलें चुरा ले गया था मैं. शर्मिंदा हूँ. यदि संभव हो तो जिसकी हैं लौटा दें उन्हें!”

हालांकि असल ओनर को ढूंढ निकालना बेहद मुश्किल काम था, पर उस दिन चमत्कार था होना!

भौंचक्के से कभी मुझे, तो कभी उन सैंडिल्स को देखते रहे सतीश के पिता. फिर जरा अपने में आए तो कहीं टेलीफोन लगा दिए;

“उमाकांत, जरा दस मिनटों के वास्ते भवन में आओ तो!”

जो युवक आया शहर के प्रतिष्ठित व्यक्ति रमाशंकर खेतान (शायद) का पुत्र उमाकांत खेतान था. अपनी सैंडिल्स फट से पहचान लीं उन्होंने. सारा माजरा सुन कहने लगे मुझसे;

“शाब्बाश…अपनी चोरी कुबूल करना बेहद शानदार बात. कोई न…रख लो इन्हें!”

ढाई-तीन सौ रुपओं की चप्पलें नगण्य बात थी उनके लिए, पर इतनी देर में अपनी भूमिका तय कर ली थी मैंने;

“नहीं भैया…क्षणिक आवेग में अपराध कर दिया था मैं, पर अब अपने पूरे होशोहवास में फिर नहीं चूक सकता. मुझे माफ करना, नहीं रख सकता इन्हें मैं. मेरे लिए यही बहुत है कि जिसकी चीज उसके पास पहुंच गई!!”

उस रात काम से लौटे पिता तो अत्यंत प्रसन्न थे. भरी आंखों अपने से चिमटाते हुए बोले मुझसे;

“शाब्बाश बेटा! मेरी उम्मीद से कहीं बेहतर काम किया तुमने. रामलाल स्वयं आकर सारा माजरा बता रहे थे जब, मैं बता नहीं सकता कि कैसा सुकून महसूस कर रहा था मेरा जी. आगे ध्यान रखना…चाहे जो हो, नीयत न ख़राब होने पाए अपनी! एकाध दो महीने ठहर, इस बार लिबर्टी के सैंडिल्स ला दूंगा मैं तुझे…”

उस दशहरे को नवी चकाचक लिबर्टी के सैंडिल्स थे मेरे पांवों में, और अगले दो दशक इसी ब्रांड की वही चप्पलें पहनीं मैंने. एक के टूटने के बाद दूसरी खरीद लाता…