मास्टर सूरजमल – मानवीय संवेदना और विचारधारा के अटूट सिपाही

हरियाणाः जूझते जुझारू लोग -37

मास्टर सूरजमल – मानवीय संवेदना और विचारधारा के अटूट सिपाही

सत्यपाल सिवाच

जब अक्टूबर 1980 में मैं सरकारी सेवा में शिक्षक नियुक्त हुआ उसके कुछ समय बाद ही मास्टर सूरजमल से मिलना हो गया। वे आचार-व्यवहार में इतने सीधे और सरल व्यक्ति रहे कि एक बार की मुलाकात स्थायी मैत्री में बदल गई। संगठन और संघर्ष के प्रति आस्था इतनी गहरी थी कि कितनी भी जटिल परिस्थिति उन्हें डगमगा नहीं सकती थी। मानवीय संवेदना इतनी गहरी थी कि बहुचर्चित मिर्चपुर कांड के समय गांव और गुहांड में ध्रुवीकरण के बावजूद वे जातिवाद में नहीं बहे और सच का साथ देते हुए दलितों के पक्ष में रहे। जब दलितों के बहिष्कार की कोशिश की गई तो उन्होंने दो टूक कह दिया कि वह अमानवीय कदम है। इसलिए वे बहिष्कार में शामिल नहीं हैं। हाँ, एक बात पर स्पष्ट थे कि पुरानी आपसी खुंदक में उन बच्चों के नाम लिखवाना उचित नहीं था जो हिंसा में शामिल नहीं थे। बाद में अदालत से निर्णय आया तो सूरजमल ने जो शुरू में कहा था वही बात प्रमाणित हुई।

गांव मिर्चपुर जिला हिसार निवासी मास्टर सूरजमल एक ऐसे शख्स के रूप में जाने जाते हैं जो ऊपरी तौर पर बहुत आम आदमी थे, किन्तु उनके भीतर कुछ खास था। इसी योग्यता के चलते वे अध्यापक आंदोलन के शिखर तक पहुंचे थे। उनका जन्म जून 1946 में हुआ था। गांव के स्कूल से दसवीं करने के बाद उन्होंने 1963-65 तक जे.बी.टी. का डिप्लोमा किया और 25 मई 1968 को अध्यापक के रूप में सुल्तानपुरिया (सिरसा) में कार्यभार ग्रहण किया। वे 30 जून 2004 को अपने गांव मिर्चपुर के कन्या प्राथमिक स्कूल से मुख्य शिक्षक के रूप में सेवानिवृत्त हुए।

सूरजमल सृजनशील शिक्षक थे। “नकल न करवाने और नकली बच्चे दाखिल न करने” को वे शिक्षा सुधार के प्रारंभिक मंत्र की तरह मानते थे। यूनियन में सभी साथियों से ऐसा करने का आग्रह करते थे।

वे जिस समय सेवा में आए उस समय दमन का दौर चल रहा था। दिनांक 30 अगस्त 1969 को हरियाणा राजकीय अध्यापक संघ की स्थापना हुई। वे इस सम्मेलन में शामिल हुए थे। उन्होंने खंड व जिला प्रधान, राज्य वरिष्ठ उपप्रधान व राज्याध्यक्ष तक अनेक पदों पर कार्य किया। वे 2000-2002 और 2002-04 राज्य प्रधान रहे।

उन्होंने 1973 की हड़ताल से शुरू करके 2004 तक सभी संघर्षों में अगली कतारों में रहकर कार्य किया। सन् 1973,1980 व 1987 में वे जेल गए। घर से दूर जाकर अन्य जिलों में अभियान चलाने में उनकी जबरदस्त भूमिका थी। गुड़गांव, मेवात, फरीदाबाद आदि जिलों की ड्यूटी तो सामान्यतः उनकी और राय सिंह आल की ही रहती थी। वे सिद्धांत के पक्के थे। यूनियन के मजबूत स्तम्भ की तरह थे। यूनियन में गैर जनवादी और व्यक्तिवादी भटकाव आया तो निःसंकोच होकर प्रगतिशील व जनतांत्रिक पक्ष के पैरोकार बने।

एक प्रकरण और विशेष रूप से याद दिलाना चाहता हूँ। राज्य कार्यकारिणी की दो दिन की बैठक जीन्द में रखी हुई थी। पहले दिन मैं किसी और बैठक में रोहतक में व्यस्त था। अगले दिन प्रातःकाल ही पहली बस से जीन्द पहुंचा तो पता चला कि बैठक रात को ही सम्पन्न हो गई। कुछ महत्वपूर्ण एजेंडा आगे के लिए छोड़ दिया गया, क्योंकि उसे मुझे ही रखना था। मैं बहुत खिन्न हुआ और नाराज भी। मन ही मन सोच रहा था कि आगे से कार्यकारिणी सदस्य न रहूं। सूरजमल जी ने मेरे भीतर के द्वंद्व को भांपकर वहीं से शुरू किया – “हाजिरी थोड़ी-सी कम थी। कुछ साथी जाने के लिए दबाव दे रहे थे। बाकी एजेंडा पूरा हो गया था। मुझे लगा कि आपको तो यथास्थिति बताकर समझा लेंगे लेकिन ज्यादा लोगों की अवहेलना करना शायद अनुचित होता।” मेरा उद्वेग शान्त हो गया था। धर्मशाला से यूनियन कार्यालय में आ गए और आगे की रूपरेखा बनाई।

सूरजमल जी की धर्मपत्नी का निधन 1979 में हो गया था। मां के अटल आशीर्वाद और छोटे भाइयों के सहयोग से उन्होंने अपनी पुत्रियों- राजबाला, बिमला व जगबीरी तथा पुत्रों- राजेन्द्र सिंह व जोगेंद्र सिंह का पालन-पोषण किया। लगभग दो माह पूर्व उनके छोटे बेटे जोगेंद्र सिंह का असमय निधन हो गया। वे गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी साधु-सहज स्वभाव के धनी थे। निस्संदेह, मेरे दिल में उनके प्रति ऐसा सम्मान भाव रहा है जो हर स्थिति में उनकी सरलता और सहजता का कायल बना देता है। बीमारी के चलते दिनांक 01 मई 2017 को उनका निधन हो गया। (सौजन्य: ओम सिंह अशफ़ाक)

लेखक-सत्यपाल सिवाच

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