मदन गोपाल शास्त्रीः संयुक्त पंजाब से लेकर हरियाणा तक के कर्मचारियों के दुलारे

मदन गोपाल शास्त्रीः संयुक्त पंजाब से लेकर हरियाणा तक के कर्मचारियों के दुलारे

सत्यपाल सिवाच

 

संयुक्त पंजाब और हरियाणा बनने के प्रारम्भिक दौर में जिला हिसार के पेटवाड़ गांव निवासी मदन गोपाल शास्त्री लम्बे समय तक चर्चित अध्यापक नेताओं में रहे हैं। उन्होंने संघर्षशील, कर्मयोगी, साहित्यकार एवं समाजसेवी के रूप में अपनी विशेष पहचान बनाई। उन्हें बेबाक ढंग से अपनी बात कहने के लिए भी जाना जाता था।

मदन गोपाल शास्त्री का जन्म 10 मार्च 1930 को एक साधारण किसान परिवार में हुआ था और 8 अक्तूबर 2018 तक अपनी सक्रिय भूमिका अदा करते हुए दुनिया से विदा हो गए।

शास्त्री की उपाधि होते हुए भी मदन गोपाल आठवीं पास के आधार पर प्राथमिक अध्यापक के रूप में सरकारी सेवा में आए थे। उन्हें जल्दी ही माध्यमिक विद्यालय में हिन्दी अध्यापक लगा दिया गया। अध्यापन कार्य को बीच में छोड़ कर उन्होंने ओ.टी. (संस्कृत) का प्रशिक्षण प्राप्त किया और संस्कृत अध्यापक नियुक्त हुए। एक दिसंबर 1957 को प्रांतीयकरण के जरिए वह सरकारी सेवा में आए।

वह लोकल बॉडीज टीचर्स यूनियन में ही सक्रिय हो गए थे। 1960 में उन्हें पंजाब गवर्नमेंट टीचर्स यूनियन की हिसार जिला इकाई का महामंत्री चुना गया। 1961 में वे पंजाब गवर्नमेंट टीचर्स यूनियन के राज्य उपाध्यक्ष बने तथा 1962 व 1963 में राज्य महामंत्री चुने गए। सन् 1964 में उन्हें सर्वसम्मति से यूनियन का वरिष्ठ उपाध्यक्ष और 1965 में राज्याध्यक्ष चुना गया। हरियाणा के अलग राज्य बनने पर वे मई 1967 तक इस पद पर रहे। अक्टूबर 1967 में “अध्यापक संयुक्त दल” बनने पर उन्हें कोषाध्यक्ष बनाया गया और सन् 1969 वे हरियाणा राजकीय अध्यापक संघ के सलाहकार एवं संरक्षक रहे।

सन् 1962-63 में पंजाब सुबोर्डिनेट सर्विसज फेडरेशन का गठन हो गया था। शास्त्री जी इसमें सक्रिय रूप से भाग ले रहे थे। उन्हें इसका उपप्रधान नियुक्त किया गया। सन् 1955-56 में प्रांतीयकरण की मांग के लिए चलाए गए संघर्षों में उन्होंने सक्रिय रूप से भाग लेना शुरू कर दिया था। कोठारी कमीशन की सिफारिशों को लागू करवाने के समय तक वे अग्रणी नेताओं में शामिल हो गए थे। सन् 1968 की कर्मचारी हड़ताल के समय वे मुख्य योजनकारों में थे। सन् 1969 से 1973 की ऐतिहासिक हड़ताल के दौरान भी वे काफी सक्रिय रहे। इसके बाद वे पदों पर नहीं रहे, आवश्यकता पड़ने पर परामर्शदाता या सक्रिय सहयोगी के रूप में अपना योगदान देते रहे।

सन् 1982-85 तक जब अध्यापक संघ में व्यक्तिवादी कार्यप्रणाली को लेकर आपसी मतभेद गंभीर हो गए तो मदन गोपाल शास्त्री ने मध्यस्थ बनकर मतभेद सुलझाने का प्रयास भी किया। सन् 1984 में हुए सम्मेलन में जरनैल सिंह भूखड़ी और शेरसिंह को क्रमशः प्रधान व महासचिव बनवा कर एकता का प्रयास सिरे भी चढ़ा दिया, लेकिन इससे भी कार्यप्रणाली में सुधार नहीं हुआ। अन्ततः उन्होंने गुणदोष के आधार पर शेरसिंह और उनके साथियों के प्रयासों को ही समर्थन दिया। सन् 1986-87 में सर्व कर्मचारी संघ के आंदोलन व हड़ताल में भी उन्होंने भाग लिया। दिनांक 31 मार्च 1988 को मदन गोपाल शास्त्री सेवानिवृत्त हो गए।

मदन गोपाल शास्त्री की एक बेटी और चार सुपुत्र हैं। सबसे बड़े ऋषिकांत शर्मा भी अध्यापक आंदोलन के अग्रणी नेता रहे और उन्होंने प्रधान व महासचिव पदों पर कार्य किया। उनसे छोटे डॉ. शिवकांत भिवानी में विख्यात् चिकित्सक हैं, तीसरे नम्बर के देवकांत सरकारी सेवा से रिटायर होने के पश्चात् हिसार में रहते हैं। सबसे छोटे जस्टिस सूर्यकांत सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश हैं, जो कुछ महीने में देश के मुख्य न्यायाधीश बनने वाले हैं।

मदन गोपाल शास्त्री धीरे-धीरे एक संस्था बन गए थे। सेवानिवृत्ति के पश्चात् वे सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में सक्रिय हुए और बड़ा नाम कमाया। उन्हें हरियाणा के सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार “सूरदास पुरस्कार” से सम्मानित किया गया। उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं। उनकी पुस्तक “शिक्षक की व्यथा कथा” पुराने समय के अध्यापक आन्दोलन का प्रामाणिक दस्तावेज कही जा सकती है। सन् 1980 से वे हिसार में रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन में सक्रिय रहे और इसके अध्यक्ष रहे। उन्होंने अपने गांव में भी सामुदायिक कार्यों में काफी रुचि ली। (सौजन्य- ओम सिंह अशफ़ाक)

लेखक- सत्यपाल सिवाच

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