जवाबदेही पर ताला: पारदर्शिता की मशाल बुझने का खतरा
एस.पी. सिंह
लोकतंत्र का वास्तविक सौंदर्य उसकी पारदर्शिता में है, और पारदर्शिता की आत्मा है नागरिक को दी जाने वाली सूचना। सूचना का अधिकार मात्र एक विधिक प्रावधान नहीं, बल्कि सत्ता और समाज के बीच एक नैतिक सेतु है। किंतु आज वह सेतु हिलता हुआ प्रतीत होता है।
केंद्रीय सूचना आयोग का महीनों से प्रमुखविहीन रहना, आयोगों में लंबित अपीलों का अंबार, 2019 में किए गए संशोधनों से आयोगों की स्वायत्तता का संकुचित होना और कुछ औद्योगिक घरानों से जुड़ी रिपोर्टिंग पर रोक — ये सब घटनाएँ एक व्यापक प्रश्न खड़ा करती हैं: क्या सत्ता सचमुच जनता के प्रति जवाबदेह रहना चाहती है, या जवाबदेही को केवल भाषणों और विज्ञापनों में सीमित करना चाहती है?
2005 का आरटीआई क़ानून भारतीय लोकतंत्र में एक क्रांति के समान था। इसने नागरिक को यह भरोसा दिया कि सरकारी फ़ाइलों के भीतर छिपी सूचनाएँ केवल नौकरशाही का विशेषाधिकार नहीं रहेंगी।
इसने आम आदमी को वह ताक़त दी कि वह योजनाओं में हो रहे भ्रष्टाचार को उजागर कर सके, फ़र्ज़ी नियुक्तियों को चुनौती दे सके और निर्णय प्रक्रिया पर रोशनी डाल सके। परंतु समय के साथ यह क्रांति धीमी पड़ने लगी। आज हालात यह हैं कि कई आयोगों में वर्षों से अपीलें लंबित हैं, और जब तक कोई फैसला आता है तब तक वह सूचना समाज के लिए अप्रासंगिक हो चुकी होती है।
सत्ता का रवैया भी चिंता का विषय है। 2019 के नियमों ने सूचना आयुक्तों के कार्यकाल और वेतन को केंद्र सरकार के विवेक पर छोड़ दिया। इससे आयोगों की स्वतंत्रता उस हद तक प्रभावित हुई कि अब वे सरकार से असहज प्रश्न पूछने से पहले हिचकिचाने लगे हैं। यह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं। जब प्रहरी ही शासक के भय में जीने लगे, तब नागरिक के अधिकार स्वतः कमज़ोर हो जाते हैं।
इस संकट को और गहरा करती है वह प्रवृत्ति जिसमें बड़े औद्योगिक समूहों से जुड़ी जाँच रिपोर्टों और खोजी पत्रकारिता पर रोक लगा दी जाती है। यह तर्क दिया जाता है कि सामग्री मानहानिकारक है या बाज़ार पर विपरीत प्रभाव डाल सकती है।
किंतु प्रश्न यह है कि क्या लोकतंत्र में जनहित की सूचना को रोका जाना चाहिए केवल इसलिए कि वह सत्ताधारी या शक्तिशाली वर्ग के हितों को चुनौती देती है? प्रेस की स्वतंत्रता और नागरिक के जानने के अधिकार के बीच संतुलन बनाना आवश्यक है, परंतु संतुलन का अर्थ यह नहीं कि पूरी तराजू ही एक ओर झुका दी जाए।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में सूचना आयोग, मीडिया और न्यायपालिका — ये तीन स्तंभ पारदर्शिता के संरक्षक हैं। आयोग यदि खाली हैं, मीडिया यदि भयभीत है और न्यायपालिका यदि विलंबित है, तो नागरिक अकेला पड़ जाता है। यह अकेलापन धीरे-धीरे अविश्वास में बदलता है और अंततः लोकतंत्र की जड़ों को खोखला कर देता है।
इस परिस्थिति में कुछ ठोस उपाय अनिवार्य हो जाते हैं। सबसे पहले आयोगों में नियुक्तियाँ तत्काल और पारदर्शी प्रक्रिया से की जानी चाहिए। चयन समिति में केवल सत्ताधारी ही नहीं, बल्कि विपक्ष और नागरिक समाज के प्रतिनिधि भी शामिल हों ताकि नियुक्तियों पर पक्षपात का आरोप न लगे।
दूसरा, आयुक्तों का कार्यकाल और वेतन सुनिश्चित व स्वतंत्र हो ताकि वे सरकार की नाराज़गी के भय के बिना निर्णय दे सकें। तीसरा, आरटीआई प्रक्रिया को डिजिटल माध्यम से सशक्त बनाया जाए ताकि लंबित अपीलों का बोझ घटे और सूचनाएँ समय पर उपलब्ध हों।
मीडिया के लिए भी आत्ममंथन आवश्यक है। रिपोर्टिंग में तथ्यों की शुद्धता और संपादकीय मानदंडों का पालन अनिवार्य होना चाहिए। किंतु साथ ही, सरकार को भी यह समझना होगा कि आलोचना लोकतंत्र का शत्रु नहीं, उसका मित्र है। जो सरकार प्रश्नों से भागती है, वह अंततः अविश्वास और आक्रोश को जन्म देती है।
लोकतंत्र का अर्थ केवल चुनाव नहीं है, बल्कि निरंतर संवाद है। यह संवाद तभी जीवित रहेगा जब नागरिक निर्भीक होकर प्रश्न पूछ सके और सरकार निर्भीक होकर उत्तर दे। पारदर्शिता समझौते की वस्तु नहीं है, वह लोकतंत्र की प्राणवायु है। यदि इस प्राणवायु को रोक दिया गया, तो लोकतंत्र केवल नाम मात्र रह जाएगा और जनता का विश्वास सदा के लिए टूट जाएगा।
आज आवश्यकता है कि सत्ता स्वयं आगे आकर कहे — हम जवाबदेह हैं, हमारे निर्णय जनता के लिए खुले हैं और हम प्रश्नों से नहीं डरते। तभी लोकतंत्र की मशाल पुनः प्रज्वलित होगी और नागरिक को यह विश्वास मिलेगा कि यह व्यवस्था उसकी है, उसके लिए है और उसकी आवाज़ सुनने के लिए तैयार है।
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