लद्दाख समाधान की तलाश में
कुलभूषण उपमन्यु
लद्दाख पिछले कुछ वर्षों से कुछ मुद्दों को लेकर आंदोलित है. लद्दाख ने धारा 370 हटने की ख़ुशी मनाई थी, क्योंकि वह कश्मीर के निजाम में उपेक्षित महसूस करता था. वहां के लोग केंद्र शासित प्रदेश की मांग कर रहे थे. नई व्यवस्था बनने से केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा मिल गया. ख़ुशी मनाई गई. किन्तु धीरे धीरे समझ आने लगी कि बिना विधान सभा के केन्द्रशासित प्रदेश का दर्जा हमारी आकाँक्षाओं को पूरा नहीं कर पाएगा. क्योंकि स्थानीय समझ के बिना और चुने हुए प्रतिनिधियों वाली विधान सभा के बिना यहाँ की जन अपेक्षाओं को समझना और पूरा कर पाना संभव नहीं है. खास कर यहाँ की जमीनों को जो धारा 370 की वजह से खरीद बिक्री से बाहरी हस्तक्षेप से सुरक्षा प्राप्त थी उसके हट जाने से स्थानीय संसाधनों पर बाहरी कब्जे का खतरा पैदा हो गया.
स्मरण रहे की पहाड़ के लोग कठिन परिस्थितियों में जीवन यापन करते हैं और उनके लिए मुख्य धारा के धन्ना सेठों से प्रतिस्पर्धा कर पाना संभव नहीं. इसलिए यदि खुले खेल की नौबत आती है तो स्थानीय लोग तात्कालिक लाभ के लालच में अपनी जमीनों और संसाधनों से वंचित हो जाएंगे. इस समझ के चलते ही चुनी हुई विधान सभा के साथ संविधान की छठी अनुसूची के प्रावधान लागू करने की मांग उठने लगी, जिसका सरकार की ओर से वादा भी किया गया था. विशालकाय सौर उर्जा और पवन उर्जा परियोजना के लिए 80 वर्ग किलोमीटर जमीन पांग क्षेत्र में अधिग्रहण की गई है. 21 मार्च 2003 में राज्यसभा में सूचना दी गई थी कि पांग, डबिंग, और खरनाक में सौर, पवन उर्जा के लिए 250 वर्ग किलोमीटर जमीन अधिग्रहण किया जाएगा. 2070 मेगा वाट जलविद्युत बनाने की भी योजना है, लद्दाख में बहुत से दुर्लभ खनिज भी उपलब्ध हैं जिनके दोहन के लिए मेगा सड़क और रेल लिंक की योजनाएं हैं. कुछ खनन पट्टे दिए भी गए हैं.
जाहिर है कि इतने बड़े पैमाने पर कॉर्पोरेट घरानों के माध्यम से होने वाले परियोजना कार्यों में स्थानीय चुनिं हुई सरकार न होने पर पर्यावरण को होने वाली हानी को कौन रोक सकेगा. जिन कॉर्पोरेट कंपनियों को अपने लाभ के अलावा कुछ भी जरूरी नहीं लगता उनके भरोसे स्थानीय लोग इस संवेदनशील पर्यावरण को नहीं छोड़ना चाहते. छठी अनुसूची के प्रावधान लागू होने से स्थानीय व्यवस्था को विकास के लिए इन योजनाओं की मनमानी को रोकने के कुछ उपकरण उपलब्ध होंगे. यह तो देश हित में ही है कि स्थानीय लोगों की सहभागिता सुनिश्चित करके विकास को पर्यावरण मित्र दिशा देने में मदद मिलेगी. वैकल्पिक तकनीकों के सुझाव भी मिल सकेंगे.जिससे इन परियोजनाओं के पर्यावरण को होने वाले नुकसान को कम किया जा सकेगा. स्थानीय लोग कैसे इन कार्यों से आर्थिक रूप से भी लाभान्वित हो सकें यह भी देखना संभव होगा.
इसी के साथ करगिल और लेह के लिए दो अलग अलग लोकसभा सीटें, और नौकरियों में स्थानीय निवासियों को संरक्षण की मांग है. ये मांगें किसी भी हालत में संविधान के बाहर की नहीं हैं और अन्य कई राज्यों में इस तरह के संरक्षण स्थानीय आर्थिक और सामाजिक तौर पर पिछड़े समुदायों को संविधान के विभिन्न प्रावधानों के अंतर्गत दिए गए हैं. लद्दाख में 90 से 95 प्रतिशत आबादी जनजातीय समुदायों की है जिनकी विशिष्ट संस्कृति है और आर्थिक सामाजिक रूप से भी ये लोग कठिन जलवायु और अति संवेदनशील पारिस्थितिक हालत में रहने के कारण हाशिए पर रहने वाले लोग हैं. इन आधारों पर उनकी मांगें तर्क सम्मत ही हैं. हां उनमें संवाद से कुछ घटाबढ़ी तो की ही जा सकती है. किन्तु सरकार ने इस मामले को लटका कर पेचीदा बनाने का काम किया.
आन्दोलन कारी लंबे समय से आशावान हो कर लगे थे, जाहिर है ऐसे में कुछ लोग थकावट भी महसूस करने लगते हैं और इतना समय बार बार देना भी संभव नहीं होता है क्योंकि रोटी रोजी भी कमानी है, इस दबाव में आन्दोलन या तो असफल हो कर चुप बैठ जाते हैं या जल्दबाजी में हिंसक आन्दोलन को बुरा न मानने वाले नेतृत्व के हाथ में खिसक जाते हैं. इसके अनेक उदाहरण हैं जहां सरकारों ने थका कर आंदोलनों को असफल कर देने का हथकंडा अपनाया. लद्दाख के मामले में भी लगभग यही सोच काम कर रही थी, बातचीत की कुछ पहलें तो हुई किन्तु परिणाम नहीं निकल सके. इससे क्षुब्ध कुछ युवाओं ने लद्दाख में पिछले दिनों अवांछित तोड़फोड़ कर के अपने ही आन्दोलन को कमजोर करने की गलती कर दी. 24 सितंबर को अनशन पर बैठे लोगों में से कुछ की हालत बिगड़ने के कारण भी उपेक्षा जनित क्रोध हावी हो सकता है. इससे सरकारों को आन्दोलन के नेतृत्व को कैद करने का बहाना मिल गया और देश समाज की सहानुभूति बटोरने के प्रयास आन्दोलन विरोधी शक्तियों द्वारा किये जाने लगे. प्रशासन की ओर से गोलीबारी करके स्थिति को संभालने के अन्य उपायों हल्के लाठी चार्ज, आंसू गैस, रबड़ की गोलियों के विकल्प, पानी की बौछार आदि प्रयोग किये बिना सीधे गोली चलाई वह भी टांगों पर चलाने के बजाये घातक तरीके से चलाई गई जिसमें चार युवाओं की दुखद मृत्यु हो गई .
इस तरह की घटनाएं समस्या के समाधान में दोनों ही तरफ से बाधक ही सिद्ध होती हैं जिनसे आन्दोलन कारियों और सरकारों और प्रशासन को बचना चाहिए था. अब सारी जिम्मेदारी सोनम वांगचुक पर डाल कर हालात को समस्या समाधान से हटा कर आपसी अवांछित अहंकार की प्रतिस्पर्धा की ओर मोड़ देना दीर्घकालीन देश हित में नहीं है. इसलिए शीघ्र बातचीत द्वारा मसले के जरूरी तत्वों को समझ कर फैसला किया जाना चाहिए. सोनम वांगचुक के चरित्रहनन के जो प्रयास हैं वे निंदनीय हैं. ऍफ़.सी.आर.ए. के प्रावधानों के उलंघन का आरोप लगाया जा रहा है. ये प्रावधान तो लगातार हर साल निरिक्षण में रहते हैं. फिर आज जब सोनम आन्दोलन का नेतृत्व करने लगे तभी उन प्रावधानों के उलंघन की बात क्यों की जाने लगी. यदि सोनम आन्दोलन में शामिल न होते तो क्या ये उलंघन कोई मायने नहीं रखते थे. इसका अर्थ तो यह हुआ कि इस तरह के प्रावधानों का प्रयोग समय समय पर सरकार ऐसी आवाजों को कुचलने में करती है जिनको सरकार पसंद नहीं करती है.
सोनम एक सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं जिनको विश्व भर में अनेकों पुरुस्कार मिले हैं और भारत के पद्म पुरुस्कार भी उनको शिक्षा और प्रयोगात्मक विज्ञान के क्षेत्र में योगदान केलिए दिया गया है. जो व्यक्ति ग्लेशियर बचाने, हिमालय के संवेदनशील पर्यावरण को बचाने के कार्य में लगा रहा है उसके उपर आप संदेह कैसे कर सकते हैं. सेना के लिए कम खर्च में सौर उर्जा से गर्म आवास बना कर उन्होंने नवाचार को बढ़ावा देकर सैनिक कार्यों में भी सहयोग किया है. उसकी कोई राजनैतिक महत्वाकांक्षा भी नहीं है. वह तो केवल अपने इलाके की बेहतरी और पर्यावरणीय टिकाऊ पन के लिए कुछ शासकीय प्रावधानों की मांग में जनाकांक्षा के साथ है. सम्मानित व्यक्तित्व होने के कारण लोगों ने उसके जिम्मे नेतृत्व का काम दिया है. उसने तो आन्दोलन के हिंसात्मक होते ही अनशन समाप्त करके आन्दोलन को शांति पूर्ण बनाए रखने की अपील की और शांति स्थापना प्रयास का हिस्सा बने. अत: समय और परिस्थिति की मांग है कि सोनम वांगचुक को तत्काल रिहा किया जाए और लद्दाख में जो जरूरी वैधानिक और प्रशासनिक सुधार करने की जरूरत है उनको आपसी सहमति और सूझ बूझ से लागू करने का काम किया जाए. देश इस सीमा क्षेत्र में जहां दोनों ओर विरोधी भाव लिए पडोसी बैठे हों वहां के समाज के मन में यह भाव पैदा होने नहीं दिया जा सकता कि हमारी कोई सुनवाई नहीं है. केंद्र सरकार तत्काल समस्या समाधान के लिए पूरी सदाशयता से सक्रिय हो कर हालात को सामान्य बना कर लद्दाख के लोगों के विश्वास को जितने का काम करे यही देश हित है.
लेखक कुलभूषण उपमन्यु पर्यावरण विद और समाजसेवी हैं।