एक हिंदी प्रेमी की व्यथा
मैं आपको हिंदी दिवस की शुभकामना नहीं दे सकता !
कृष्ण ठाकुर
मैं आपको हिंदी दिवस की शुभकामना नहीं दे सकता, क्योंकि पिछले लगभग 75 वर्षों में सरकारी कार्यालयों में हिंदी को एक कदम भी नहीं चलने दिया गया है. यह सबकी भौजी बन कर रह गई है. कोई भी इससे फूहड़ मजाक कर सकता है.
हिंदी अधिकारी नाम के बैशाखी के सहारे यह थोड़ा-बहुत लंगड़-लंगड़ कर चल लेती है और फिर थक-हार कर जहां से चली थी वहीं आकर बैठ जाती है. सरकारी आश्रय में अपनी उपेक्षा और अपमान के कारण यह सिर्फ एक जिंदा लाश बन कर रह गई है जो साँस तो लेती है पर चलती नहीं है.
देश के सबसे बड़े क्षेत्र की जन-जन की भाषा, स्वाधीनता आंदोलन का अलख जगाने वाली भाषा, देश भर में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा, मिट्टी की सुगंध वाली भाषा, सभ्यता, संस्कृति और मूल्यों को सुरक्षित रखने वाली भाषा, प्यार और मोहब्बत की भाषा, सबको जोड़ने वाली भाषा, झूमने और हँसाने की भाषा और दुनिया की सबसे अधिक वैज्ञानिक भाषा मुट्ठी भर जड़विहीन अमरबेली के समान अंग्रेजी के गुलामों कारण अँग्रेजी की दासी बन कर रह गई है. कमोबेश सभी भारतीय भाषाएं अंग्रेजी की दासी बन कर रह गई हैं. ऐसा लगता है कि हम अपनी माँ की उपेक्षा कर दूसरों की माँ से अधिक प्यार करने लगे हैं.
हम इतनी मूढ़ता और अंधेपन के शिकार हो चुके हैं कि एक साधारण सी बात समझ में नहीं आती है कि हमारा दिमाग उसी भाषा में सोचता है जिस भाषा को हम पैदा होते ही सुन-सुन कर बड़े होते हैं और अनायास उस भाषा में कब बोलने लगते हैं इसका आभास तक नहीं होता. अँग्रेजी के अंधेपन के शिकारों को इतना तक पता नहीं है कि दुनिया के सारे विकसित देश अपनी भाषा में काम करते हैं.
तीसरी दुनिया के पिछड़े और कभी अँग्रेजों के गुलाम देश आज भी अँग्रेजी की गुलामी से मुक्त नहीं हो पाए है और इसका खामियाजा देश के करोड़ो निम्न और मध्यवर्गीय परिवारों के बच्चों को पढ़ाई में पिछड़ कर और बीच में ही पढ़ाई छोड़ कर चुकाना पड़ता है.
जो पाठ वे अपनी भाषा में एक बार में पढ़ कर समझ सकते थे, उसके अँग्रेजी में होने के कारण समझने के लिए कई बार पढ़ना पड़ता है. इस बोझ और अतिरिक्त मेहनत के कारण बच्चों में पढ़ाई के प्रति अरुचि उत्पन्न हो जाती है.
सरकारी कार्यालयों, सरकारी उपक्रमों और सरकारी निगमों में शीर्ष पर बैठे लगभग 95 प्रतिशत से भी अधिक अधिकारी हिंदी के कार्यान्वयन में सबसे बड़े बाधक हैं जो 30-30 वर्ष की नौकरी के बाद भी एक लाइन हिंदी न ठीक से लिख सकते हैं न ही ठीक से बोल सकते हैं.
कुछ तो बड़ी बेशर्मी से हिंदी दिवस पर भाषण भी अंग्रेजी में देते हैं. हिंदी कार्यान्वयन के सरकारी आंकड़े झूठ के पुलिंदे होते हैं. हिंदी सिर्फ और सिर्फ संविधानिक प्रावधान बन कर रह गई है. सरकारी हिंदी का न वर्तमान है न भविष्य.
हमारी भाषा हमारी सभ्यता, संस्कृति और मूल्यों की वाहिका होती है. जब कोई व्यक्ति अपनी भाषा से कटता है तो वह सिर्फ अपनी भाषा से ही नहीं कटता, बल्कि अपनी सम्पूर्ण सभ्यता, संस्कृति और मूल्यबोध से कटता है. किसी समाज से उसकी भाषा का खत्म होने का मतलब है, उसका जिंदा लाश बन जाना । कृष्ण ठाकुर की फेसबुक वॉल से साभार
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कृष्ण ठाकुर एक सरकारी बैंक में हिंदी अधिकारी समेत वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके हैं।
