भूमंडलीकरण और विकास

विरासत

भूमंडलीकरण और विकास

फिदेल कास्त्रो

यहां हम एक ध्यान देने योग्य बहस तथा विभिन्न विचारों को सुनने के लिए इकट्ठा हुए हैं। प्रतिष्ठित और संवेदनशील विचारकों ने यहां आकर हमारा मान बढ़ाया है। लेकिन हम कोई शिकायत नहीं कर सकते। हम ऐसे युग में रह रहे हैं जिसे मानव इतिहास में अत्यधिक असाधारण और निर्णायक युग कहा जा सकता है।

कोलंबिया विश्वविद्यालय के अमरीकी प्रोफेसर एडमेंड फेप्स जिस आर्थिक विषय पर बोल रहे थे, उससे अलग मुद्दा छेड़े जाने पर उन्होंने कहा, ‘यह मेरा और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के प्रतिनिधियों का मुद्दा नहीं है। इन्होंने यह जानते हुए भी यहां आने का आमंत्रण कृपापूर्वक स्वीकार किया है कि इस कार्यक्रम में हिस्सा लेने वाले अधिकांश लोगों के विचार उनकी संस्थाओं द्वारा अपनाई जाने वाली नीतियों के काफी उलट हैं।

आतिथ्य सत्कार और अलग मन रखने वालों के प्रति सम्मान इस तरह की बैठकों की परंपरा बन गई है। व्यक्त विचारों का मुकाबला यदि दुनिया के बारे में भिन्न दृष्टिकोण रखने वाले लोगों के बिलकुल उलट लेकिन बहादुरी के साथ संजोए गए विचारों से नहीं किया गया तो हमारे विश्लेषण का क्या अर्थ रह जाएगा?’

हममें से जो विद्वान नहीं हैं उनको भी साहस की खुराक चाहिए। दुनिया में जो कुछ हो रहा है उसे अधिकाधिक जान लेने की कोशिश के बावजूद कभी-कभी हमारे पास यह जानने के लिए समय नहीं होता कि हम जिस अद्वितीय इतिहास प्रक्रिया से गुजर रहे हैं उसके बारे में क्या नए तथ्य और विचार उभरकर सामने आ रहे हैं और हमारे सामने खड़ा अनिश्चित भविष्य कैसा होगा? मैं पहले ही बता दूं कि आज मेरा विषय अर्थशास्त्र नहीं है। आज मेरा विषय राजनीति शास्त्र है। हालांकि राजनीतिशास्त्र के बगैर अर्थशास्त्र या अर्थशास्त्र के बगैर राजनीतिशास्त्र जैसी कोई चीज नहीं होती।

पहले जो चीज थी या आज जो है वह मानवता पर थोपी गई है। मानव जाति को विकसित करके विवेकशील हस्ती बना देने वाले प्राकृतिक नियमों से लेकर जाति मूल, चमड़ी के रंग तक; वनों में फल तथा कंदमूल बटोरने, शिकार करने या मछली पकड़ने वाले व्यक्तियों से लेकर ऐसे पूंजीवादी उपभोक्ता समाजों तक यही बात लागू होती है जिनसे धनी राष्ट्रों का एक समूह आज धरती को लहूलुहान कर रहा है।

विकसित पूंजीवाद, आधुनिक साम्राज्यवाद और नव उदार भूमंडलीकरण विश्व शोषण की प्रणालियों के रूप में दुनिया पर थोपे गए हैं। दूसरी ओर सभी मानवों के लिए विचारकों और दार्शनिकों द्वारा शताब्दियों से मांगे जा रहे न्याय के सिद्धांत धरती पर वास्तविकता नहीं बने हैं।

यहां तक कि जिन्होंने 1776 में उत्तरी अमरीका के 13 ब्रिटिश उपनिवेशों को यह ‘स्वत:स्पष्ट’ घोषणा करते हुए स्वतंत्र कराया था कि सभी मनुष्य एक जैसे बनाए गए और विधाता ने सभी को कुछ अभिन्न अधिकार दिए हैं, जैसे कि जीवन, स्वतंत्रता, खुशी की तलाश, वे भी दासों को स्वतंत्र नहीं करा सके।

इसके विपरीत यह विकराल प्रथा लगभग पूरी एक शताब्दी पर्यंत उस समय तक चलती रही जब तक कि वह पुरानी और अटिकाऊ नहीं हो गई और इसका स्थान एक ऐसे वहशी और खूनी युद्ध ने न ले लिया जिसमें शोषण और प्रजातीय भेदभाव के सूक्ष्म और आधुनिक तरीकों का प्रयोग किया जाता है।

1789 में फ्रांसीसी क्रांति करने वालों के बारे में भी यही कहा जा सकता है। उन्होंने स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे की घोषणा की लेकिन हैती में अपने गुलामों की आजादी और इस लाभप्रद उपनिवेश की स्वतंत्रता की बात नहीं मानी। इसके विपरीत उनके दमन के असफल प्रयास के रूप में उन्होंने 30000 सैनिक भेजे। प्रबोधन के हामीदार लोगों की इच्छाओं या मंशाओं के बावजूद वास्तव में उपनिवेशवादी युग शुरू हुआ।

शताब्दियों तक चला यह उपनिवेशीकरण अफ्रीका, ओशनिया और लगभग पूरे एशिया में फैल गया और इसने इंडोनेशिया, भारत और चीन जैसे विशाल देशों को भी अपने घेरे में ले लिया।

जापान के साथ व्यापार के दरवाजे बम गिराकर करके खोले गए। आज लोकतंत्र, स्वतंत्रता और देशों की आजादी के नाम पर 5 करोड़ लोगों की जान लेने वाले युध्द के बाद उसी तरह से विश्व व्यापार संगठन तथा बहुपक्षीय निवेश करार के लिए, दुनिया के वित्तीय संसाधनों पर नियंत्रण, विकासशील देशों में सरकारी कंपनियों के निजीकरण, पेटेंटों और टेक्नोलोजी पर एकाधिकार के लिए दरवाजे धमाका करके खोले जा रहे हैं।

खरबों डालर का कर्ज चुकाने की मांग की जा रही है जिसे न तो कर्जदाता वसूल कर सकते हैं और न कर्जदार अदा कर सकते हैं क्योंकि ये कर्जदार अधिकाधिक गरीब तथा भूखे होते जा रहे हैं। उनका जीवन स्तर उन लोगों के जीवन स्तर से अधिकाधिक कम होता जा रहा है जो शताब्दियों तक उसके उपनिवेशवादी मालिक थे और जिन्होंने उनके बेटों और बेटियों को गुलामों के रूप में बेचा या मौत के कगार तक शोषण किया, बिलकुल उसी तरह से जैसे उन्होंने इस गोलार्ध के मूल निवासियों के साथ किया था।

यह नहीं कहा जा सकता कि 20वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में दुनिया को फिर से उसी तरह बांटा जा रहा है जैसे कि 19वीं शताब्दी के अंत या 20वीं शताब्दी के शुरू में बांटा गया था। आज दुनिया को बांटा नहीं जा सकता क्योंकि अब वह पूरी तरह से एक राष्ट्र के कब्जे में है जो उथल-पुथल के इस इतिहास के बाद एकमात्र महाशक्ति तथा सर्वाधिक शक्तिशाली साम्राज्य के रूप में उभरा है।

यही कारण है कि वाशिंगटन में आखिरी शब्द या बयान की घोषणा किए जाने से पहले या इस तरह की घोषणा के समय दुनिया के लगभग सभी देशों की राजधानियां कांपने लगती हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के बारे में यदि कोई भ्रम था तो वह मुश्किल से 17 महीने पहले विनाशकारी 11 सितंबर को खत्म हो गया तथा उसकी जगह भयंकर तथा अभूतपूर्व एकतरफावाद ने ले ली है।

पिछले कुछ दिनों में मैंने यहां अपने विशिष्ट अतिथियों को विभिन्न मुद्दों पर बहुत तीखे तर्क देते हुए सुना मसलन विश्व आर्थिक संकट विशेष रूप से लैटिन अमरीका में स्थिति, एफ.टी.ए.ए., वर्तमान दुनिया में गरीब देशों के विकास में बाधाएं, सामाजिक नीतियों की भूमिका तथा इतनी अधिक और ऐसी गंभीर त्रासदियों के कारणों के बारे में इन मुद्दों द्वारा प्रकाश में लाए गए विस्तृत तथ्य।

जब मैं यह सुनता हूं कि सकल घरेलू उत्पाद बढ़ा या गिरा, लगातार वृध्दि हुई और फिर रुक गई, घाटे को कम करने, संतुलन बहाल करने, नौकरियां पैदा करने, गरीबी कम करने, विकास को बढ़ावा देने, दायित्व पूरे करने के लिए निर्यात जरूरी है और जब यह कहा जाता है कि निजीकरण बहुत उपयोगी हो सकता है, विश्वास पैदा कर सकता है, किसी भी कीमत पर निवेश आकर्षित कर सकता है, प्रतिस्पर्धा पैदा कर सकता है, इत्यादि तो मेरा मन इस बात की प्रशंसा किए बगैर नहीं रहता कि किस प्रकार आधी शताब्दी से ये लोग अल्पविकास और गरीबी को दूर करने के उपाय सुझा रहे हैं।

मैंने पहले कहा था कि सभी मतों का सम्मान किया जाना चाहिए। लेकिन इसी तरह से हमारे दिमागों में उठने वाले सवालों और संदेहों का भी सम्मान किया जाना चाहिए। हम किस तरह की रमणीय दुनिया में जी रहे हैं? न्यूनतम समानता की ऐसी स्थितियां कहां है जहां से हमें अर्थशास्त्र के स्कूलों में पढ़ाए जाने वाले समाधान मिल सकें और जिनसे तीसरी दुनिया के देशों का विकास हो सके? क्या वास्तव में मुक्त स्पर्धा, संसाधनों की समान उपलब्धता या संबंधित शिल्प विज्ञानों तक सबकी पहुंच है?

इन पर तो उन लोगों का एकाधिकार है जो न केवल अपनी प्रतिभाओं का फल खाते हैं बल्कि दूसरों की अर्थात ऐसे अल्पविकसित देशों से छीनी गई प्रतिभाओं का फल भी खाते हैं जिन्होंने उनके प्रशिक्षण पर अपने सीमित संसाधन लगाए हैं तथा जिन्हें इसके बदले में एक कौड़ी भी नहीं मिलती।

अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं और भारी मात्रों में फालतू निधियां किसके हाथों में हैं? बड़े बैंकों के मालिक कौन हैं? वित्तीय सट्टेबाजी, कर चोरी, बड़े पैमाने पर नशे के पदार्थों के व्यापार, भारी गबन से कमाई गई मोटी रकमें कहां कैसे और किसके द्वारा जमा कराई जाती हैं? मोबुतु तथा सरकारी धन के अन्य दर्जनों गबनकर्ताओं की निधियां कहां हैं जिन्होंने अपने पश्चिमी अभिभावकों के आशीर्वाद से अपने संसाधन और अपनी प्रभुसत्ता विदेशियों को सौंप दी?

पूर्व सोवियत संघ और रूस से सैकड़ों अरब डालर कहां गायब हो गए और ऐसा उस समय कैसे हुआ जब यूरोप और अमरीका से आए सलाहकार, विशेषज्ञ और विचारक उसे पूंजीवाद का शानदार और सौभाग्यशाली मार्ग दिखा रहे थे और हर दिशा से गिध्द देश के प्राकृतिक और आर्थिक संसाधनों पर टूट रहे थे? इस तथ्य के लिए कौन जिम्मेदार है कि आज उसकी जनसंख्या घट रही है और उसकी स्वास्थ्य स्थितियोंशिशुतथा माता मृत्यु सहित की हालत खराब हो रही है तथा फासिज्म के खिलाफ लड़ने वाले इसके वृध्द स्त्री-पुरुषों सहित सभी लोग भूख तथा अत्यधिक गरीबी से ग्रस्त हैं?

जनसंचार पर एकाधिकार के जरिए धरती के हर कोने में उपभोक्तावाद का जहर फैलाकर देश की राष्ट्रीय संस्कृति को कौन नष्ट कर रहा है? प्रति वर्ष वाणिज्यिक विज्ञापनों पर एक खरब डालर के खर्चे के बारे हम क्या कहें जबकि इस रकम का इस्तेमाल शिक्षा, स्वास्थ्य, पेय जल और आवास के अभाव तथा भूख और कुपोषण को दूर करने के लिए किया जा सकता था? क्या यह केवल आर्थिक मुद्दा है? राजनीतिक और नैतिक नहीं?

नव उदार भूमंडलीकरण बिलकुल साफतौर पर तीसरी दुनिया का फिर से उपनिवेशीकरण है। जैसा कि यहां पहले ही दोहराया जा चुका है, एफ.टी.ए.ए. वास्तव में अमरीका का लैटिन अमरीका पर कब्जा है जिसमें बलवान देश पड़ोसी कनाडा, मैक्सिको और ब्राजील सहित सबसे कमजोर देशों को निगल जाएगा। यह अनैतिक करार है जिसके अंतर्गत पूंजी और वस्तुओं की मुक्त आवाजाही होगी लेकिन कत्लघर बन चुकी मैक्सिको और अमरीका की सीमाओं को पार करने वाले ‘जंगलियों’ को मौत मिलेगी। उनके लिए कोई एडजस्टमेंट एक्ट नहीं है जिससे आवास और रोजगार का स्वत: अधिकार मिल जाए, भले ही उन्होंने कोई भी उल्लंघन या अपराध किया हो। यह एक्ट तो हमारे देश में क्रांतिकारी परिवर्तनों के लिए क्यूबा को दंडित करने के वास्ते बनाया गया था।

बेहतर दुनिया संभव होने में विश्वास करने वाले एक क्रांतिकारी और योध्दा के रूप में मेरा दृढ़तापूर्वक तथा बगैर हिचक के यह कहना है कि विदेशी निवेश के बदले में किसी देश की संपदा और प्राकृतिक संसाधनों का निजीकरण करना बहुत बड़ा अपराध है। यह तीसरी दुनिया के देशों के जीने के संसाधनों को बहुत सस्ते में बल्कि मुफ्त दे देने जैसी बात है। इससे नए तरह का उपनिवेशीकरण होगा जो कि और अधिक सुविधाजनक और अपने आप काम करने वाला होगा। मूल निवासियों को कानून व्यवस्था तथा अन्य अनिवार्य चीजों की लागत चुकानी होगी जैसा कि पहले उपनिवेशवादी ताकतों के मामले में होता था।

विदेशी पूंजी के साथ संबंधों के मामले में क्यूबा सहयोग के परस्पर लाभप्रद और ध्यानपूर्वक विचारे गए रूपों का प्रयोग करता है जिससे देश की प्रभुसत्ता पर आंच नहीं पहुचंती और राष्ट्रीय संपदा तथा देश के राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन का नियंत्रण विदेशी पूंजी या ताकत के हाथों में नहीं रहता।

हमारा एक नियम है कि हम कोई चीज मुफ्त नहीं देते। कीमत संबंधी किसी उलझन की स्थिति में हम जिसका जो बनता है उसे वह दे देते हैं। इस बारे में कोई गलतफहमी न रहे कि हम समाजवादी देश हैं और हम समाजवादी रहेंगे। जबर्दस्त बाधाओं के बावजूद हम और अधिक अनुभव, उत्साह, ऊर्जा और सपने के साथ अधिक मानवीय समाज बना रहे हैं। हमारे यहां अमरीकी डालर चलता है, यूरो चलना शुरू हुआ है। पर्यटन की सुविधा के लिए अन्य मुद्राएं भी चल सकती हैं, लेकिन बुनियादी तौर पर चलने वाली मुद्रा सामान्य क्यूबाई पेसो और परिवर्तनीय क्यूबाई पेसो है। मौद्रिक स्थिति नियंत्रण में है। 2002 में पूरे वर्ष में हमारी मुद्रा का मूल्य स्थिर रहा। दूसरे देशों में ऐसी स्थिति नहीं रही। हमारे यहां से दुर्लभ मुद्रा भी नहीं गई।

जैसा कि सबको मालूम है हमारे गोलार्ध में सबसे विकट समस्या भारी बाह्य कर्जे की है। इस कर्ज के मूलधन और ब्याज चुकाने में कई बार राष्ट्रीय बजट का 50 प्रतिशत हिस्सा चला जाता है जिससे देश की अनिवार्य सेवाओंस्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा पर बहुत बुरा असर पड़ता है।

सट्टा बाजार के हमलों और पूंजी पलायन से अपने आपको बचाने के लिए सरकारें बैंक में धन जमा रखती हैं। इसका भारी ब्याज उन्हें चुकाना पड़ता है। इसी कारण कोई भी देश अपने ही धन के बल पर विकास हासिल नहीं कर पा रहा है।

नई आर्थिक व्यवस्था द्वारा लादा गया मुक्त मुद्रा विनिमय विकास के लिए जूझ रहे देशों की कमजोर अर्थव्यवस्थाओं के लिए घातक सिध्द हुआ है। काफी लंबे समय से मुद्रा किसी काम की चीज नहीं रह गई है जैसे कि वह पहले हुआ करती थी। इसकी बचत की जा सकती थी और सोने या चांदी के टुकड़ों की तरह बर्तन में रखकर जमीन में गाड़ा जा सकता था।

जैसा कि सभी अर्थशास्त्रियों को मालूम है ब्रेटन वुड्स में अमरीका, जिसके पास विश्व के स्वर्ण भंडार का 80 प्रतिशत हिस्सा है, को विश्व भर में आरक्षित मुद्रा जारी करने का विशेषाधिकार दिया गया है। लेकिन उस समय उसने जारी किए गए प्रत्येक बैंक नोट के मूल्य को सोने में बदलने के उत्तरदायित्व का करार किया। यह उत्तरदायित्व पूरा किया गया जिसमें कागज की मुद्रा के मूल्य की गारंटी थी। इसके लिए देश की सरकार बहुत साधारण क्रियाविधि अपनाती थी और वह थी बाजार में बेशी या कमी के अनुसार आवश्यक सोना बेचना या खरीदना। यह फार्मूला 1971 तक चलता रहा जब राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने भारी सैनिक खर्चों और कर रहित युध्द के बाद एकतरफा निर्णय लेते हुए अमरीकी डालर को स्वर्ण मानक से अलग कर दिया।

उस समय किसी ने भी यह कल्पना नहीं की होगी कि इसके बाद मुद्रा की खरीद-बिक्री में जबर्दस्त सट्टेबाजी की जाएगी। आज प्रतिदिन इस तरह के 1 खरब डालर का लेनदेन होता है।

अमरीकी डालर द्वारा विश्वसनीयता संचित कर लिए जाने, सबके द्वारा इसे विनिमय के उपकरण के रूप में इस्तेमाल करने की आदत, इसे जारी करने वाले देश की जबर्दस्त आर्थिक शक्ति तथा किसी अन्य उपकरण के अभाव में यह महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।

यह विशेषाधिकार लैटिन अमरीका तथा शेष तीसरी दुनिया के देशों के पास नहीं था। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में हमारी मुद्राएं कागज के टुकड़े मात्र हैं। उनका मूल्य दुर्लभ मुद्रा, बुनियादी तौर पर अमरीकी डालरों के राष्ट्रीय भंडार पर निर्भर है। लैटिन अमरीका या कैरेबिया के किसी भी देश की मुद्रा न तो स्थिर है न स्थिर रह सकती है। आज यदि किसी

मुद्रा का मूल्य 100 है तो कुछ महीनों, सप्ताहों या दिनों में बाह्य या आंतरिक तत्वों के कारण उसका मूल्य उसके पहले के मूल्य का 50 प्रतिशत, 40 प्रतिशत या यहां तक कि 10 प्रतिशत हो जा सकता है। अर्जेंटीना में पेसो का मूल्य डालर के बराबर रखने के रमणीय, अव्यावहारिक और लोकप्रशंसित प्रयास का क्या हुआ? इसकी परिणति विनाश में ही हुई। रियाल और डालर की टक्कर में भी यही हुआ। इक्वाडोर जैसे देशों ने अपनी मुद्रा कचरे के ढेर में डाल दी तथा अमरीकी डालर को देश में प्रचलन की एक मात्र मुद्रा के रूप में स्वीकार कर लिया।

मैक्सिको में नियमित रूप से हर छह साल बाद सरकार के बदल जाने के कारण भारी अवमूल्यन हुआ जिससे उसकी मुद्रा का मूल्य बहुत कम रह गया। सट्टेबाजी के आखिरी आघात तथा 1998 के संकट के बाद ब्राजील को अपनी 40 अरब डालर की रकम, जो कि उसने अपनी सर्वोत्तम उत्पादन तथा सेवा कंपनियों के निजीकरण द्वारा हासिल की थी, को गंवाने में मुश्किल से आठ सप्ताह लगे।

लैटिन अमरीका के देशों ने हाल के वर्षों में आर्थिक रक्तस्राव के जो सबसे खराब रूप देखे हैं, उनमें पूंजी पलायन भी एक है। यह विदेशी निवेशकों द्वारा अर्जित लाभ के अंतरण के रूप में नहीं है और न ही यह पलायन उन विदेशी ऋणों के भुगतान के रूप में है जो तानाशाह और भ्रष्ट शासकों के लिए थे जिन्होंने देश की निधियों को उड़ाया और उनका गबन किया, निजी बैंकों से लिए गए निजी ऋण या उसका उपयोग को अदा करने के लिए किया। यह पूंजी पलायन असमान विनिमय के सुविख्यात तत्व के कारण हुए नुकसान का परिणाम भी नहीं है। यह देश के भीतर निर्मित निधियों, कम वेतन पाने वाले मजदूरों की कीमत पर अर्जित बेशी मूल्य या बुध्दिजीवी कार्यकर्ताओं और व्यावसायियों की ईमानादार बचतों या छोटे उद्योगों, कारोबारों और सेवाओं के लाभों के पलायन का मामला है।

लैटिन अमरीकी देशों से घातक पूंजी पलायन का कारण बगैर किसी रोक-टोक और जरूरत के राष्ट्रीय मुद्रा से दुर्लभ मुद्रा की खरीद है। पवित्र नव उदार सिध्दांत के रूप में यह फार्मूला अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संगठनों द्वारा लादा गया है। ऐसा अनुमान है कि वेनेजुएला जैसे देशों से पिछले 40 वर्षों की अवधि के दौरान लगभग 250 अरब डालर का पूंजी पलायन हुआ। अर्जेंटीना, ब्राजील, मैक्सिको तथा अन्य लैटिन अमरीकी देशों से निकली राष्ट्रीय निधियों को भी इसमें जोड़ें।

बहादुर वेनेजुएलाई अवाम और उनके साहसी नेता को शाबासी जिन्होंने विनिमय दर पर नियंत्रण कायम कर लिया है। इससे इस देश से उक्त त्रासदी का अंत हो गया है।

मुझे याद है कि 1959 में क्यूबाई क्रांति की जीत के समय लैटिन अमरीका का कुल ऋण केवल पांच अरब डालर था। उस समय इसकी आबादी 21 करोड़ 44 लाख थी जो अब बढ़कर 54 करोड़ 34 लाख हो गई है। इसमें से 22 करोड़ 40 लाख लोग गरीब हैं और 5 करोड़ से अधिक निरक्षर हैं। 2003 में उसका कुल ऋण कम से कम 800 अरब डालर हो गया था।

विश्व युध्द के बाद गोलार्ध के इस क्षेत्र ने उतना विकास क्यों नहीं किया है जितना कि कनाडा, न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों ने किया है। कभी ये भी यूरोप के उपनिवेश थे। ये तो हमारे मुकाबले भी कम समृध्द और विकसित थे। क्या यह अमरीका के पिछवाड़े रहने के संदिग्ध सौभाग्य का परिणाम है? या क्या यह इस वजह से है कि हम श्वेतों, अश्वेतों, इंडियनों और वर्ण संकरों के घृणित समूह हैं और मानव जीन का यह अध्ययन तथा वैज्ञानिक अनुसंधान गलत है कि मानव जाति में विभिन्न प्रजातियों की बौध्दिक क्षमता में कोई अंतर नहीं है? दोष कहां पर है?

मैंने यह कहकर अपनी बात शुरू की थी कि जो कुछ मौजूद था या आज कुछ मौजूद है वह सब मानवता पर लादा गया है। मैं कार्ल मार्क्स के इस कथन से पूरी तरह सहमत हूं कि जब उत्पादन और वितरण की पूंजीवादी प्रणाली अस्तित्व में नहीं रहेगी और इसके साथ मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण खत्म हो जाएगा तो यह मानव जाति के प्राक्-इतिहास के अंत का सूचक होगा। उनका यह तर्क हमारी जाति के इतिहास के द्वंद्वात्मक विकास पर आधारित है।

बहुत से लोगों को यह विचार अति सरलीकरण और पुराना लग सकता है।

मार्क्स ने पूंजीवाद के प्रथम चरण का अध्ययन किया था। यह वह युग था जिसमें एक नए वर्ग का जन्म हुआ, जिसे समाज का कायाकल्प करना था और जो बाद में अनिवार्यत: शोषक और बेरहम बन गया। इससे नई तथा अधिक न्यायपूर्ण दुनिया का मार्ग खुला। जब उन्होंने अपने विचार रखे उस समय बिजली, टेलीफोन, आंतरिक दहन इंजिन, आधुनिक जहाज जो बहुत तेज गति से चलते हैं और भारी सामान ले जाते हैं, आधुनिक रसायन विज्ञान, सिंथेटिक उत्पाद, विमान जो सैकड़ों यात्रियों को लेकर कुछ ही घंटों में अटलांटिक को पार कर जाते हैं, रेडियो, टेलीविजन और कंप्यूटर नहीं थे। उन्होंने यह भयंकर नजारा नहीं देखा था कि मनुष्य द्वारा गैर जिम्मेदाराना रूप में किस तरह से आधुनिक टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल वनों के विनाश, मिट्टी के कटाव, लाखों हेक्टेयर उपजाऊ भूमि के मरुस्थल में बदलने, समुद्रों के अतिशोषण और प्रदूषण, पौधों और पशुओं की पूरी जाति को नष्ट करने तथा पेयजल, हवा में जहर फैलाने के लिए किया जा रहा है।

मार्क्स ने अपने सिध्दांत का विकास उस समय के सर्वाधिक विकसित देश इंगलैंड में किया। उन्होंने मजदूर-किसान साहचर्य की जरूरत नहीं बताई। न ही उन्होंने उस समय की उपनिवेशी दुनिया से पैदा होने वाली विकट समस्या के बारे में सोचा। यह कार्य उनके मेधावी शिष्य लेनिन ने रूस की विशेष परिस्थितियों में उनके विचार का अनुसरण करके बाद में किया।

मार्क्स ने इंगलैंड की औद्योगिक क्रांति का त्वरित विकास तथा जर्मनी और फ्रांस के शुरुआती विकास को देखा। उस समय कोई भी यह नहीं कह सकता था कि उनकी मृत्यु के मुश्किल से 60 वर्ष बाद अमरीका इस तरह की भूमिका अदा करेगा।

माल्थस ने निराशा के बीज बोए, मार्क्स ने आशा जगाई। उन दिनों धरती के भूगोल और जीवमंडलभूमि, वन, समुद्र और हवा को शासित करने वाले नियमों के बारे में बहुत कम जानकारी थी। बाह्य अंतरिक्ष के बारे में भी बहुत कम ज्ञान था। सापेक्षता का सिध्दांत नहीं आया था तथा बिग बैंग के बारे में एक शब्द भी नहीं लिखा गया था।

मानव इतिहास में पहली बार हमारी जाति के सामने संपूर्ण विनाश का खतरा पैदा हो गया है। केवल प्राकृतिक वास को ही खतरा नहीं है बल्कि गहरी राजनीतिक धमकियों और परिष्कृत हथियारों से भी खतरा है। मार्क्स ने यह सोचा भी नहीं होगा कि सैलफोनों के जरिए लोग धरती के एक कोने से दूसरे कोने तक प्रकाश की गति के साथ बात कर सकेंगे और शेयरों, मुद्राओं तथा हैज प्रचालनों तथा अपनी जगह से तिल भर नहीं हिलाई गई वस्तुओं तथा दूसरी प्रतिभूतियों का खरबों डालर का लेनदेन होगा तथा सट्टेबाजी से होने वाला लाभ बेशी मूल्य से अधिक हो जाएगा।

मार्क्स का उत्पादक ताकतों के विकास तथा विज्ञान और मानव प्रतिभा की अनंत संभावनाओं में विश्वास था। उनका मानना था कि समाज की मौलिक तथा मानसिक जरूरतों को पूरा करने के लिए जरूरी वस्तुओं के उत्पादन में सक्षम सामाजिक व्यवस्था दुनिया के पूरी तरह से विकास द्वारा ही कायम की जा सकती है। उन्होंने एक देश में क्रांति की बात नहीं सोची। उन्होंने भविष्य में इतना जरूर झांका कि वह भूमंडलीकृत दुनिया का विचार दे सके, एक ऐसी दुनिया जो शांति के साथ एक होकर रह सके और सब उसमें उपलब्ध धन का पूरा आनंद ले सकें। उन्होंने अमीर और गरीब के बीच बंटी दुनिया के बारे में सोचा भी नहीं होगा। ‘दुनिया के मजदूरो एक हो जाओ!’ उन्होंने घोषणा की। आज की वास्तविक दुनिया में इसे आम विनाश और प्राणघातक तथा विनाशकारी ताकत से जुड़े अतिवादी सिध्दांतों के खिलाफ शारीरिक और बौध्दिक मजदूरों, किसानों और गरीबों के एक होने के आह्वान के रूप में लिया जा सकता है।

दुनिया के लिए ये आशा और शांति के दिन नहीं हैं। युध्द होने ही वाला है। यह समान ताकतों के बीच मुकाबला नहीं होगा। एक ओर आधिपत्यवादी महाशक्ति होगी जिसके पास बेइंतहा सैनिक ताकत और तकनीक है तथा जिसे अपने मुख्य साथी का समर्थन प्राप्त है जिसके पास परमाणु क्षमता है और जो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का सदस्य है। दूसरी ओर एक ऐसा देश है जिसके लोग अंतर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा मान्यताप्राप्त स्वतंत्र देश कुवैत पर कब्जे से उत्तेजित गैर बराबर युध्द के बाद दस वर्षों से रोजाना बमबारी से जूझ रहे हैं और जहां लाखों लोग विशेषकर बच्चे भूख और बीमारी से मर रहे हैं।

व्यापक विश्व जनमत नए युध्द के खिलाफ है। वे अंतर्राष्ट्रीय नियमों तथा संयुक्त राष्ट्र संघ की शक्ति और प्राधिकार की परवाह न करने वाली अमरीकी सरकार के एकतरफा निर्णय के खिलाफ है। यह अनावश्यक युध्द है जिसके लिए बनाया गया बहाना न तो विश्वसनीय है और न सही सिध्द हुआ है।

1991 में अमरीका के खिलाफ युध्द के बाद इराक पूरी तरह से कमजोर हो गया था।

उल्लेखनीय है कि ईरान के खिलाफ उसके युध्द के दौरान पश्चिम ने उसका समर्थन किया था तथा भारी मात्रा में हथियार दिए थे। अब उसमें बिलकुल भी क्षमता नहीं बची है जिससे वह अमरीका के आक्रमणात्मक और सुरक्षात्मक हथियारों का मुकाबला कर सके। इसके विपरीत यदि इराक के पास वास्तव में परमाणु, रासायनिक या जैव हथियार हैं तो उनके खतरों को खत्म करने के लिए अमरीका के पास पूरी क्षमता है। इराक के पास ऐसे हथियार होने की कतई संभावना नहीं है और यदि उसके पास हैं भी तो उनके प्रयोग का प्रयास राजनीतिक दृष्टि से असंगत तथा सैनिक दृष्टि से आत्मघाती होगा।

असली खतरा यह है कि इस तरह का सशस्त्र हमला इराकी लोगों के लिए देशभक्ति पूर्ण युध्द बन जाएगा। उनके प्रत्युत्तर और विरोध का अग्रिम तौर पर कोई अंदाजा नहीं लगा सकता है। इसका कोई अनुमान नहीं कि युध्द कब तक चलेगा, इससे कितनी मौतें और कितना विनाश होगा तथा प्रत्येक प्रतिद्वंद्वी के लिए इसके कितने मानवीय, आर्थिक और राजनीतिक परिणाम होंगे।

दुनिया के सामने पहले से ही मौजूद आर्थिक संकट के मद्देनजर इस युध्द के निश्चित रूप से जबर्दस्त आर्थिक जोखिम होंगे। ऐसे हालात में तेल की कीमतों का क्या होगा कोई नहीं जानता।

28 जनवरी को जोसे मार्ती के जन्म की 150वीं वर्षगांठ के अवसर पर बोलते हुए मैंने अमरीका के राष्ट्रपति के कई भाषणों को उध्दृत किया था और उनका विश्लेषण किया था। अब मैं केवल कुछ पंक्तियां ही उध्दृत करूंगा जो स्वत: स्पष्ट है :

‘हम युध्द के हर आवश्यक हथियार का प्रयोग करेंगे।’

‘हर क्षेत्र में हर राष्ट्र को अब फैसला करना है। आप हमारे साथ हैं या आतंकवादियों के साथ।’

‘यह सभ्यता का युध्द है।’

‘हमारे समय की सबसे बड़ी उपलब्धि, हर समय की सबसे बड़ी आशाअब हमारा भरोसा करें।’

‘और हम जानते हैं कि ईश्वर तटस्थ नहीं है।’

(20 सितंबर 2001)

‘हमारी सुरक्षा के लिए आपकी सेना का रूप बदलना जरूरी हैएक ऐसी सेना जो एक क्षण की सूचना पर दुनिया के किसी भी अंधेरे कोने (…) पर आघात कर सके और अग्रिम कार्रवाई (…) के लिए तैयार हो।’

‘हमें 60 या उससे अधिक देशों में आतंकवादी ठिकानों को उजागर करना है।’

‘हम सही और गलत के संघर्ष में फंसे हैं।’

(वेस्ट प्वाइंट मिलिट्री एकेडमी भी 200वीं वर्षगांठ पर 1 जून 2002 को दिया गया भाषण)

‘अमरीका संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से कहेगा कि वह इराक द्वारा दुनिया की निरंतर

अवज्ञा के तथ्य पर विचार करने के लिए 5 फरवरी को बैठक बुलाए।’

‘हम सलाह लेंगे लेकिन इस बारे में कोई गलतफहमी भी नहीं रहनी चाहिए। हमारे लोगों की सुरक्षा और दुनिया की शांति के लिए यदि सद्दाम हुसैन खुद को पूरी तरह निरस्त्र नहीं करता तो हमारे नेतृत्व वाला गठबंधन उसे निरस्त्र करेगा।’

‘और यदि हम पर युध्द लादा गया तो हम अमरीकी सेना की पूरी ताकत और बल के साथ लड़ेंगे।’

(5 फरवरी 2003 को कांग्रेस को संबोधन)

राष्ट्रपति बुश को विश्वास है कि ईश्वर तटस्थ नहीं है लेकिन तथ्य यह है कि पोप जॉन पॉल द्वितीय तथा दुनिया के लगभग सभी धार्मिक नेता इस युध्द के खिलाफ हैं। ईश्वर के इरादों का वास्तव में कौन खुलासा कर सकता है?

दो दिन पहले हम यहां मानवता के भविष्य पर चर्चा कर रहे थे। कुछ सोच रहे थे कि भूमंडलीकरण के बाद क्या होगा, मौजूदा विश्व आर्थिक व्यवस्था लंबी चलेगी या थोड़े दिन चलेगी। बहुत बड़े जोखिम के साथ मैं इन सवालों का जवाब देने की कोशिश करूंगा। मैंने इन पर कई बार सोचा है।

मैं अपने कुछ निजी विश्वासों के आधार पर बात करूंगा। मनुष्य इतिहास नहीं रचते। व्यक्ति अपेक्षाकृत लंबी अवधियों तक बड़ी घटनाओं में तेजी ला सकते हैं या उनमें विलंब कर सकते हैं। लेकिन वे निर्णायक तत्व नहीं हैं और न ही वे अंतिम परिणाम को रोक सकते हैं। मानव या प्रकृति के कारण हुई अत्यधिक गंभीर दुर्घटनाएं, परमाणु युध्द, पर्यावरण का तेजी से विनाश तथा जलवायु में अपेक्षाकृत अचानक परिवर्तन हमारी जाति के अत्यधिक प्रतिभाशाली भविष्यद्रष्टा के अनुमानों और भविष्यवाणी को झुठला सकते हैं। इन चीजों से अभी भी बचा जा सकता है।मानव समाज की विकास प्रक्रिया से प्राप्त वस्तुपरक तत्व वास्तव में निर्णायक तत्व होते हैं।

अर्थशास्त्र प्राकृतिक विज्ञान नहीं है। यह पूरी तरह से सटीक नहीं हो सकता। यह समाज विज्ञान है। किसी विशिष्ट सामाजिक आर्थिक व्यवस्था में किसी खास समय उभरी अवधारणाएं और विचार, प्रवृत्तियां और नियम उस व्यवस्था के अंतिम चरण तक पहुंच या उसके खत्म हो जाने के बाद भी बने रहते हैं। इससे अकसर घटनाओं का सही खुलासा नहीं हो पाता। समाज विज्ञान के बारे में बैठकों या सम्मेलनों में व्यक्त विचारों और सिध्दांतों में भारी अंतर इसका प्रमाण हैं। किसी गंभीर क्रांतिकारी प्रक्रिया में की गई भारी गलतियां इसका एक और अच्छा उदाहरण हैं। मेरा मानना है कि राजनीति विज्ञान और कला दोनों का संयोग है, हालांकि वह विज्ञान के मुकाबले कला अधिक है।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दोनों ही मामलों में जिम्मेदारी मानवों पर आती है और वे इतने भिन्न और परिवर्तनीय हैं जितने कि उनकी जैविकीय बनावट में कण।

हम इतिहास से एक सबक सीख सकते हैं जिस पर मैं अकसर बल देता हूं। बड़े समाधान बड़े संकटों से ही निकल सकते हैं। इस नियम के बहुत कम अपवाद हैं।

आज हमारे सामने बहुत बड़ा आर्थिक और राजनीतिक संकट है। शायद यह सबसे पहला संपूर्ण भूमंडलीय संकट है। मौजूदा आर्थिक व्यवस्था असह्य है और टिक नहीं सकती। बड़े और मूलभूत परिवर्तनों के बगैर कोई समाधान संभव नहीं है। इस वास्तविकता को समझने के लिए यहां तथा अन्यत्र दिए गए प्रचुर आंकड़ों को दोहराने की आवश्यकता नहीं है। स्थानीय, क्षेत्रीय और गोलार्धीय संकट अब जल्दी-जल्दी आते हैं। यही इसका प्रमाण है। कोई भी अमीर या गरीब देश इस संकट से नहीं बचा है। बहुत से राजनीतिक दल पूरी से अविश्वसनीय हो चुके हैं। लोग लगातार अनियंत्रित होते जा रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय निकायों और विश्व व्यापार संगठन जैसी संस्थाओं या अत्यधिक धनी देशों के समूहों जैसे कि ग्रुप ऑफ 7 को बैठक के लिए जगह नहीं मिलती। दुनिया जिस त्रासदी में जी रही है इससे प्रभावित या उसके प्रति संवेदनशील सामाजिक आंदोलनों और संगठनों की संख्या हर जगह लगातार बढ़ रही है। आधुनिक तकनीक के कारण संदेशों को परंपरागत संचार माध्यमों की मदद के बगैर फैलाया जा सकता है।

80 करोड़ लोग अभी भी निरक्षर हैं। लेकिन अरबों लोगों को किसी न किसी माध्यम से एक निश्चित सूचना उपलब्ध है। वे बेरोजगारी, गरीबी में तेजी से वृध्दि, जमीन की कमी, खराब सेहत, असुरक्षा तथा न्यूनतम सफाई स्थितियों को तो झेल ही रहे हैं स्कूल, मकान, आत्मसम्मान और सामाजिक स्तर के अभाव से रोजाना परेशान हैं। यहां तक कि उपभोक्तावादी वाणिज्यिक विज्ञापन भी उन्हें अपनी अभावग्रस्तता और लाचारी से वाकिफ कराते हैं।

इस व्यवस्थित छलावे को जारी रखने का कोई कारण नहीं है। उन सबको मारा नहीं जा सकता। इस धरती की जनसंख्या पहले ही 6.2 अरब हो चुकी है। एक शताब्दी में उसमें चार गुना वृध्दि हुई है। तीसरी दुनिया के असंतुष्ट लोगों की जमात में विकसित देशों के पेशेवर और मध्य वर्ग से सैकड़ों शिक्षित मजदूर तथा स्त्री-पुरुष शामिल हो गए हैं जो अपने और अपने बच्चों के भविष्य के बारे में अधिकाधिक चिंतित होते जा रहे हैं क्योंकि वे प्राकृतिक साधनों के गैर जिम्मेदाराना और अंधाधुंध इस्तेमाल के फलस्वरूप हवा, पानी, पौधों को विषाक्त होते और हर सुंदर चीज को गायब होते हुए देख रहे हैं। दुनिया के विभिन्न हिस्सों में मानव अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है।

इस बात से कोई इनकार नहीं करेगा कि मानवता को अपना रास्ता बदलना होगा। यह कैसे बदलेगा? राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक जीवन के नए रूपों को कैसे अंगीकार किया जाएगा? यह सबसे मुश्किल सवाल है। इससे मैं अंतिम विचार पर पहुंचा हूं जिसे मैं आपके सामने अभिव्यक्त करना चाहता हूं।

इस मामले में व्यक्ति पहले की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेंगे।

इसलिए उनके पास सूचना होनी चाहिए और उन्हें सोचने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। सूचना के प्रसार, वाद-विवाद को बढ़ावा देने और जागरूकता पैदा करने की जिम्मेदारी उन्नत लोगों पर होनी चाहिए। पोर्टो अलेग्रे में वर्ल्ड सोशल फोरम संघर्ष के नए तरीकों का उत्साहजनक उदाहरण है। वहां चिंतन तथा विचार-विमर्श के लिए जमा एक लाख लोग उभरती हुई ताकतों के बारे में झलक प्रस्तुत करेंगे और दुनिया में वस्तुपरक ढंग से लाए जाने वाले परिवर्तनों को आगे बढ़ाएंगे।

क्यूबा में हम इसे विचारों का संघर्ष कहते हैं। हम तीन साल और दो महीने से पूरी तरह से इस संघर्ष में लगे हैं। इसके परिणामस्वरूप 100 से अधिक सामाजिक कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं जिनमें से अधिकांश शिक्षा, संस्कृति, ज्ञान के प्रसार, स्कूल व्यवस्था में क्रांति, व्यापक राजनीतिक और आर्थिक विषयों पर सूचना के प्रसार, सामाजिक कार्य, उच्च शिक्षा के लिए अधिक अवसर, हमारी सर्वाधिक जरूरी सामाजिक समस्याओं का गहराई से पता लगाने और उनके कारण तथा समाधान ढूंढ़ने के कार्य में लगे हैं। हमारा ध्येय है कि पूरी आबादी को व्यापक सामान्य ज्ञान और संस्कृति प्राप्त हो जाए जिसके अभाव में विश्वविद्यालय की डिग्री प्राप्त व्यक्ति को भी व्यावहारिक दृष्टि से निरक्षर ही कहा जाएगा।

हमारी योजनाएं बहुत महत्वाकांक्षी हैं लेकिन हम उनके परिणामों से बहुत प्रोत्साहित हुए हैं।

दुनिया में बहुत बड़े आर्थिक संकट के बावजूद हमारे देश में बेरोजगारी घटकर 3.3 प्रतिशत रह गई है। वर्ष के अंत तक इसके घटकर 3 प्रतिशत रह जाने का उम्मीद है। इससे हमें पूर्ण रोजगार वाला देश होने का दर्जा मिल जाएगा।

बेहतर दुनिया के लिए संघर्ष में संभवत: सर्वाधिक उपयोगी योगदान विनम्रतापूर्वक यह दिखाना होगा कि यदि समाज के सभी मानव और भौतिक संसाधन लोगों की सेवा में लगा दिए जाएं तो बहुत थोड़े से बहुत कुछ किया जा सकता है।

प्रकृति को नष्ट नहीं किया जा सकता तथा गले-सड़े, फिजूलखर्च उपभोक्ता समाजों को बचाया नहीं जा सकता। एक ऐसा क्षेत्र है जहां अनंत दौलत पैदा की जा सकती है वह है ज्ञान, संस्कृति और कला का क्षेत्र जिसमें शामिल हैं अध्यवसायी, नैतिक, सौंदर्यात्मक और भाईचारे पर आधारित शिक्षा, एक पूरा बौध्दिक जीवन जो सामाजिक तौर पर सुदृढ़ बौध्दिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ हो। इसके बगैर जीवन की गुणवत्ता की बात करना निरर्थक होगा।

क्या कोई हमें इन ध्येयों को प्राप्त करने से रोक सकता है?

हम अपनी इस घोषणा को सिध्द कर देना चाहते हैं कि बेहतर दुनिया संभव है!

मानवता द्वारा अपना इतिहास खुद लिखे जाने का समय आ गया है!

जगदीश्वर चतुर्वेदी की फेसबुक वॉल से साभार

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