साभार प्रिंटर्स
समाजवाद के सबसे बड़े पैरोकार थे डॉ भीमराव अंबेडकर
मुनेश त्यागी
आजकल हमारे देश में समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को लेकर एक जोरदार बहस छिड़ी हुई है जिसमें आरएसएस और बीजेपी सरकार के लोगों का कहना है “समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता” के शब्दों को संविधान से बाहर कर देना चाहिए क्योंकि ये सनातन परंपरा के खिलाफ हैं और इन्हें आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने मनमाने रूप से संविधान की प्रस्तावना में शामिल किया था। इसी अभियान में एक सोची समझी रणनीति के तहत आरएसएस और बीजेपी के ओहदेदार कह रहे हैं कि संविधान निर्माण के समय इन शब्दों को संविधान की प्रस्तावना में इसलिए नहीं जोड़ा गया था क्योंकि डॉक्टर अंबेडकर इनसे सहमत नहीं थे। यहां पर सवाल उठता है कि आखिरकार आरएसएस और बीजेपी की सरकार, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता जैसे आधुनिकतम और जरूरी विचारों के खिलाफ क्यों है, वे गुमराह करने वाले और मनमाने बयान देने पर क्यों उतर आये हैं और वे क्यों इन्हें संविधान से बाहर निकालने की बात कर रहे हैं?
मानव इतिहास में समाजवाद की बात बहुत पहले समय से की जा रही है। सबसे पहले इसे फ्रांसीसी क्रांति में उठाया गया था और उसके बाद दुनिया के बहुत सारे दार्शनिकों और लेखकों ने समाजवाद की बात की है। फ्रेडरिक एंगेल्स ने अपने लेखों में कहा था कि अभी तक जिस समाजवाद की बात हो रही है वह काल्पनिक समाजवाद है, वह वैज्ञानिक समाजवाद नहीं है। इसके बाद दुनिया के महानतम दार्शनिक और लेखक कार्ल मार्क्स ने और एंगेल्स ने समाजवाद को वैज्ञानिक प्रारूप दिया और उन्होंने अपनी सबसे पहली क्रांतिकारी किताब “कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो” में कहा कि पूंजीवाद की अगली व्यवस्था समाजवादी व्यवस्था होगी जिसे किसानों और मजदूरों की सरकार लायेगी। इसके बाद वैज्ञानिक समाजवाद को, रूस की क्रांति में महान क्रांतिकारी लेनिन के नेतृत्व में रूस में धरातल पर उतारा गया।
रूसी समाजवादी क्रांति के बाद जो किसानों मजदूरों की सरकार बनी, उसने दुनिया के इतिहास में सबसे पहले सभी लोगों को मुफ्त आधुनिकतम शिक्षा, सबको मुफ्त इलाज, सबको मकान, सबको कपड़ा, सबको रोटी, सबको भूमि, सबको रोजगार का इंतजाम किया। 1917 की रूसी क्रांति ने एक झटके में हजारों साल से चले आ रहे शोषण, जुल्म, दमन, अत्याचार और भेदभाव को समाप्त कर दिया। देखते ही देखते कुछ वर्षों में रूस जिसे बाद में यूएसएसआर कहा गया, दुनिया की सबसे बड़ी विकसित शक्तियों में शामिल हो गया।
रूसी क्रांति के बाद, समाजवादी अर्थव्यवस्था की उपलब्धियों से भारत के अधिकांश क्रांतिकारी जैसे रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक उल्ला खान, राजेंद्र नाथ लाहिड़ी, ठाकुर रोशन, शहीदे आजम भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, चंद्रशेखर आजाद आदि प्रभावित थे। आजादी के सबसे बड़े सेनानी सुभाष चंद्र बोस और भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी रूसी समाजवादी क्रांति की बहूमूल्य उपलब्धियों और बहुमूल्य योगदान से बहुत ज्यादा प्रभावित थे। रूस की समाजवादी क्रांति की उपलब्धियां भारत के अधिकांश लेखक और दार्शनिकों को प्रभावित कर रही थीं। इसी से प्रेमचंद और डॉ भीमराव अंबेडकर भी प्रभावित थे और उन्होंने देख और समझ लिया था कि समाजवादी व्यवस्था के बिना भारत में हजारों साल से चले आ रहा शोषण, जुल्म, अन्याय, गैर बराबरी, भेदभाव, भुखमरी और गरीबी को दूर नहीं किया जा सकता। शोषित, पीड़ित, गरीब और वंचित लोगों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक आजादी और न्याय मुहैय्या नहीं कराया जा सकता।
संविधान सभा के बहुत सारे लोग रूसी क्रांति के समाजवादी उपलब्धियां से प्रभावित थे। भीमराव अंबेडकर भारत की जनता को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय और आजादी उपलब्ध कराना चाहते थे और उनका मानना था कि भारत के संविधान में समाजवादी मूल्यों की प्रस्तावना के बिना जनता का कल्याण नहीं किया जा सकता, इसलिए उन्होंने संविधान में समाजवादी मूल्यों की अर्थव्यवस्था को जोड़ने की जी-तोड़ मेहनत और वकालत की थी। आइए देखते हैं कि डॉ भीमराव अंबेडकर ने समाजवादी अर्थव्यवस्था को लेकर संविधान सभा की बैठक में क्या कहा था-
जवाहरलाल नेहरू ने 13 दिसंबर 1946 को संविधान सभा के सामने उद्देश्य प्रस्ताव (जिसके आधार संविधान की दिशा सुनिश्चित की गई) पेश किया। इस पर प्रतिक्रिया देने की डॉक्टर अंबेडकर की बारी, 17 दिसंबर 1946 को आई। डॉ अंबेडकर ने बेलगाम पूछा- यदि इस प्रस्ताव के पीछे एक वास्तविकता है और एक ईमानदारी है, जिसके बारे में कम से कम मुझे संदेह नहीं है, क्योंकि यह संकल्प जवाहरलाल नेहरू से आता है, तो मुझे कुछ प्रावधान की उम्मीद करनी चाहिए, जिससे राज्य के लिए आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक न्याय को एक वास्तविकता बनाना संभव होगा। उस दृष्टिकोण से मुझे उम्मीद करनी चाहिए कि प्रस्ताव सबसे स्पष्ट शब्दों में बताए कि उद्योग का राष्ट्रीयकरण और भूमि का राष्ट्रीयकरण होगा, ताकि देश में सामाजिक और आर्थिक न्याय हो सके। मेरी समझ में नहीं आता कि किसी भी भावी सरकार जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से न्याय करने में विश्वास करती है, के लिए यह संभव हो सकता है, जब तक कि उसकी अर्थव्यवस्था समाजवादी अर्थव्यवस्था न हो।
अंबेडकर का समाजवादी अर्थव्यवस्था का समर्थन
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(1)डॉ भीमराव अंबेडकर की मांग का कमाल देखिए कि भारत के संविधान की प्रस्तावना में भारत की संप्रभुता, जनतांत्रिक और गणतांत्रिक व्यवस्था के साथ समता, समानता, आपसी भाईचारे, सामाजिक न्याय और आजादी की बुनियाद रखी गई। इसके बाद अनुच्छेद 14, 15 और 19 में जनता को बिना किसी धर्म, जाति, लिंग, रंग और नस्ल के भेदभाव के बराबरी का अधिकार, समान अवसर का अधिकार, बोलने और लिखने और यूनियन बनाने की आजादी का अधिकार दिया गया। अनुच्छेद 21 में सभी नागरिकों को जीवन और व्यक्तिगत आजादी की सुरक्षा का अधिकार दिया गया।
( 2) समाजवादी अर्थव्यवस्था के मूलभूत सिद्धांतों को अमली जामा पहनाते हुए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 38 में व्यवस्था की गई कि राज्य जनता के कल्याण के लिए सामाजिक व्यवस्था को बढ़ावा देने की सुरक्षा करेगा और राज्य आर्थिक असमानता को कम करने और गैर बराबरी को खत्म करने के लिए का प्रयास करेगा। अनुच्छेद 39 में व्यवस्था की गई कि राज्य अपनी नीतियों के द्वारा सभी नागरिकों को पर्याप्त जीवन का अधिकार देगा, सबका कल्याण करेगा, धन के संकेंद्रित होने को रोकेगा, आदमी औरतों के लिए समान काम का समान वेतन देगा, आदमी, औरतों और बच्चों की स्वास्थ्य रक्षा का काम करेगा और बच्चों को समुचित विकास का अवसर देगा। अनुच्छेद 39 ए में व्यवस्था की गई कि राज्य सामान सबको समान न्याय और जरूरतमंदों को मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान करेगा। अनुच्छेद 41 में व्यवस्था की गई कि राज्य, आर्थिक स्थिति के अनुसार काम के अधिकार, शिक्षा के अधिकार और बेरोजगारी, वृद्धावस्था, बीमारी और अपंग लोगों को सहायता उपलब्ध कराने के विशेष प्रावधान करेगा।
धर्मनिरपेक्षता
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डॉ अंबेडकर के विचारों को अमली जामा पहनाते हुए भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 में भारत के सभी नागरिकों को धर्म का अधिकार दिया गया और यह भी प्रावधान किया गया कि भारतीय राज्य का कोई धर्म नहीं होगा। अनुच्छेद 26 में प्रावधान किया गया कि सभी धर्मों को अपने धार्मिक अफेयर्स को प्रबंध करने का अधिकार होगा। इसी के साथ-साथ भारत के सर्वोच्च न्यायालय में अनेक मामलों में यह फैसला दिया है कि धर्मनिरपेक्षता भारत के संविधान का मूल सिद्धांत है, इसे बदला नहीं जा सकता।
इस प्रकार उपरोक्त तथ्यों की रोशनी में यह बिल्कुल स्पष्ट है कि डॉ भीमराव अंबेडकर का समाजवादी अर्थव्यवस्था, समाजवादी मूल्यों और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों में अडिग विश्वास था। वे चाहते थे कि इन मूल्यों को भारत के संविधान में शामिल किया जाए। संविधान सभा ने डॉक्टर अंबेडकर के इन समाजवादी मूल्य और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों को पूरा सम्मान देते हुए, बेझिझक संविधान में शामिल किया था। इसके अलावा आर एस एस और बीजेपी सरकार के ओहदेदारों द्वारा जो कुछ कहा जा रहा है, वह सब कुछ जनता को गुमराह करने वाला है। उसकी सच्चाई से कोई ताल्लुक नहीं है।
अब यह भारत की तमाम जनतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी और वामपंथी ताकतों की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है कि डॉ अंबेडकर के इन समाजवादी विचारों को जनता के बीच ले जाएं और उसे हकीकत से अवगत करायें और हिंदुत्ववादी ताकतों द्वारा जनता को गुमराह होने से बचाएं। यह आज की सबसे बड़ी संवैधानिक और समाजवादी राजनीतिक जरूरत है।
मुनेश त्यागी