क्या मैराथन से ह्दय को नुकसान पहुंचता है? क्या कहता है अध्ययन
डेविड सी. गेज
लंदन। मैराथन दौड़ मानव शरीर को उसकी क्षमता की सीमा तक पहुंचा देती है। पैर थक जाते हैं, सांस फूलने लगती है और हृदय को घंटों तक कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। इसी वजह से वर्षों से यह सवाल उठता रहा है कि क्या 26 मील (लगभग 42 किलोमीटर) दौड़ना हृदय के लिए नुकसानदेह हो सकता है।
इस सवाल का सबसे ठोस जवाब ‘जामा कार्डियोलॉजी’ पत्रिका में प्रकाशित एक नए अध्ययन से मिलता है। दस साल तक चले इस अध्ययन में 152 शौकिया मैराथन धावकों को शामिल किया गया। शोधकर्ताओं ने दौड़ से पहले और बाद में उनके हृदय की जांच की और फिर अगले दस वर्षों तक उनकी हृदय सेहत पर नजर रखी।
अध्ययन में पाया गया कि मैराथन के तुरंत बाद हृदय के दाहिने वेंट्रिकल (जो खून को फेफड़ों तक पहुंचाता है) की पंप करने की क्षमता कुछ समय के लिए कम हो जाती है, लेकिन यह कमजोरी कुछ ही दिनों में ठीक हो जाती है।
सबसे अहम बात यह रही कि दस साल की निगरानी अवधि में इन धावकों के हृदय की कार्यक्षमता को कोई स्थायी नुकसान होने के प्रमाण नहीं मिले।
यह निष्कर्ष इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि पहले के कुछ अध्ययनों में आशंका जताई गई थी कि लंबी अवधि की कसरत हृदय को नुकसान पहुंचा सकती है। यह चिंता मुख्य रूप से लंबी अवधि की कसरत के बाद लिए गए रक्त नमूनों पर आधारित थी।
मैराथन के बाद कई धावकों के खून में ट्रोपोनिन नामक पदार्थ का स्तर बढ़ जाता है। ट्रोपोनिन तब निकलता है जब हृदय की मांसपेशियों पर अधिक दबाव या तनाव पड़ता है।
डॉक्टर आमतौर पर दिल के दौरे का पता लगाने के लिए ट्रोपोनिन के स्तर का उपयोग करते हैं। इसलिए दौड़ के बाद इसका बढ़ना चिंता का कारण बन सकता है और कभी-कभी यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि कोई वास्तविक चिकित्सकीय आपात स्थिति है या नहीं।
भ्रम पैदा करते हैं ट्रोपोनिन के स्तर
हालांकि, इस संदर्भ में परिस्थितियां बहुत मायने रखती हैं। अस्पतालों में ट्रोपोनिन का बढ़ा हुआ स्तर हमेशा लक्षणों, हृदय जांच और स्कैन के साथ मिलाकर आंका जाता है। लंबी अवधि की कड़ी कसरत के बाद ट्रोपोनिन का बढ़ना आम बात है, भले ही न तो धमनियों में रुकावट हो, न दिल का दौरा पड़ा हो और न ही हृदय को कोई स्थायी नुकसान पहुंचा हो।
अध्ययनों से पता चला है कि कई तंदरुस्त मैराथन धावकों में दौड़ के बाद ट्रोपोनिन का स्तर सामान्य चिकित्सा सीमा से ऊपर पाया जाता है, जबकि उनकी हृदय जांच सामान्य होती है और दिल के दौरे के कोई लक्षण नहीं होते।
यह बढ़ोतरी आमतौर पर दिल की मांसपेशियों पर पड़े अस्थायी तनाव को दर्शाती है, न कि स्थायी क्षति को। आराम करने पर ये बदलाव अपने आप सामान्य हो जाते हैं।
मैराथन के दौरान हृदय का दाहिना हिस्सा अधिक प्रभावित होता है, क्योंकि यही हिस्सा खून को फेफड़ों तक पहुंचाता है और लंबे समय तक दौड़ने पर फेफड़ों में दबाव काफी बढ़ जाता है।
कई अध्ययनों में पाया गया है कि लंबी दौड़ के तुरंत बाद दाहिने वेंट्रिकल का आकार कुछ समय के लिए बढ़ जाता है और उसकी कार्यक्षमता घट जाती है, लेकिन कुछ दिनों में वह फिर सामान्य हो जाता है।
दस वर्षों तक किए गए अध्ययन से यह भरोसा मिलता है कि ऐसे बार-बार होने वाले अल्पकालिक तनाव अधिकांश शौकिया धावकों में दीर्घकालिक क्षति का कारण नहीं बनते। एक दशक तक मैराथन में हिस्सा लेने के बावजूद हृदय की संरचना और पंप करने की क्षमता सामान्य सीमा के भीतर बनी रही।
हालांकि, इसका यह मतलब नहीं है कि मैराथन दौड़ पूरी तरह जोखिम-मुक्त है। यह छिपी हुई हृदय बीमारियों, खासकर कोरोनरी धमनी रोग, को सामने ला सकती है।
इसका एक दुखद उदाहरण हाल ही में ब्रिटेन में सामने आया, जहां 42 वर्षीय एक धावक को सीने में दर्द की शिकायत हुई थी। शुरुआत में उसे आश्वस्त कर दिया गया, लेकिन बाद में उसकी दिल के दौरे से मौत हो गई। उस मामले में समस्या कसरत से जुड़े ट्रोपोनिन की नहीं थी, बल्कि हृदय धमनियों की बीमारी थी, जिसे सही समय पर पहचाना नहीं जा सका।
लंबी अवधि वाली कसरत पर बहस
बहुत लंबे समय तक और अत्यधिक स्तर पर की जाने वाली सहनशक्ति वाली कसरत को लेकर बहस अब भी जारी है। आमतौर पर शौकिया धावकों में लंबे समय का नुकसान नहीं दिखता, लेकिन कुछ अध्ययनों में पाया गया है कि जो खिलाड़ी कई वर्षों तक बहुत अधिक और कठोर अभ्यास करते हैं, उनके हृदय की मांसपेशियों में ‘फाइब्रोसिस’ यानी निशान बन सकते हैं।
हृदय की एमआरआई जांच में देखा गया है कि लंबे समय तक ऐसी कसरत करने वाले कुछ उम्रदराज खिलाड़ियों के दिल में छोटे-छोटे निशान मौजूद होते हैं।
हाल में किए गए ‘वेंतू’ अध्ययन में 50 वर्ष से अधिक उम्र के 106 पुरुष साइकिल चालकों और ट्रायथलीट खिलाड़ियों की जांच की गई, जिसमें पाया गया कि इनमें से लगभग आधे खिलाड़ियों के हृदय में ऐसे निशान थे, जबकि खेलकूद न करने वाले लोगों में ऐसे मामले बहुत कम पाए गए। (साभार कन्वर्सेसन)
डेविड सी. गेज, सीनियर लेक्चरर, केमिकल पैथोलॉजी, यूनिवर्सिटी ऑफ वेस्टमिंस्टर
