हिंदी साहित्य में शिखर की विचलन
ओमप्रकाश तिवारी
हिंदी साहित्य जगत में एक वरिष्ठ कवि का कृत्य सोशल मीडिया फेसबुक पर काफी चर्चा में है। करीब दस दिनों की हलचल और तीखी प्रतिक्रिया के बाद अब इस मासले पर तूफान गुजर जाने के बाद वाली शांति है।
आरोप है कि कवि महोदय ने एक पत्रिका के कार्यक्रम में एक युवा कवयित्री के साथ अभद्रता की है। श्रीमान को ऐसा करते समय न अपने कृतित्व का लिहाज रहा, न उम्र का। अपनी पुत्री समान युवती से ऐसी हरकत कर दी कि समूचा हिंदी साहित्य जगत शर्मसार हो गया। जानकारी होते ही सोशल मीडिया पर महोदय के खिलाफ आलोचना और फजीहत की शब्दभेदी जंग छेड़ दी गई। आक्रोशित, व्यथित और आहत लेखक और लेखिकाओं ने श्रीमानजी की अच्छी खोज खबर ली। इस बीच कवि महोदय खामोश रहे और आयोजक ने भी संतोषजनक जवाब नहीं दिया। एक दिन पहले आयोजक महोदय की सफाई है। इसमें उन्होंने उस लेखिका के मेल का भी जिक्र किया है। उनका कहना है कि लेखिका की गुजारिश पर आयोजक चुप रहे। वह नहीं चाहती थी कि मामला सार्वजनिक हो। उनकी शिकायत पर जांच की गई। उन्होंने जैसा कहा वैसा किया गया। उनकी कार्रवाई से लेखिका संतुष्ट हैं। इसके बाद तो कुछ बचता ही नहीं है। एक तरह से कोई अपराध हुआ ही नहीं था। यह जरूर है कि जिस पर आरोप लगा था वह अब कार्यक्रम छोड़कर जा चुका है।
बहरहाल, इससे पहले, जब सोशल मीडिया पर जंग छिड़ी थी तभी वरिष्ठ-गरिष्ठ कवि महोदय के समर्थन में एक और वरिष्ठ-गरिष्ठ कवि आ गए। फिर क्या था लोगों का आक्रोश ज्वाला बन गया। लोगों ने इन कवि महोदय को भी लपेट लिया। अब दोनों ही महोदय-श्रीमान जन बनकर खामोश हैं।
हालांकि, मामला आपराधिक था, लेकिन इसकी रिपोर्ट पुलिस में नहीं की गई। सोशल मीडिया पर ही लोग कवि महोदय को धिक्कारते रहे। यह सभी कवि के कृत्य की न केवल आलोचना करते रहे, बल्कि लेखक की नैतिकता, रचनाधर्मिता और आचरण व व्यवहार पर भी सवाल उठाते रहे।
दूसरी तरफ बड़े कवि-कहानीकार कविवर के बहाने अपनी पीड़ा का दरिया ही उलीच दिया। कहने लगे कवि महोदय के पीछे जो गैंग पड़ा है, वह उनके पीछे भी पड़ चुका है। यह गैंग कवि की जान लेकर दम लेगा। इन महोदय को कवयित्री के बारे में पता नहीं क्यों ख्याल नहीं आया। इन्हें अपना दर्द इतना बड़ा लगा कि वह घृणित व्यवहार करने वाले कवि से संवेदना जताने लगे। यह अनुचित कथन था और इसकी तीखी आलोचना होनी ही थी इसलिए हुई भी।
इस प्रकरण पर एक कवयित्री ने सोशल मीडिया पर टिप्पणी लिखकर इसे शिखर की विचलन कहा। इस बीच, युवा कवयित्री ने भी अपनी बात विस्तार से कहने के लिए और वक्त की दरकार बताई। जब लेखिका की बात सामने आएगी तब लोगों की तीखी प्रतिक्रिया हो सकती है।
वहीं, जिस नई धारा के आयोजन में यह शर्मसार करने वाली घटना घटी, उसकी सफाई आ चुकी है। उसकी कार्रवाई से शिकायतकर्ता भी संतुष्ट है। सवाल यह है कि फिर उन्होंने कविता लिखकर अपनी वेदना को क्यों सार्वजनिक किया। यदि प्रकरण सामने नहीं आया होता तो उनकी कविता को कोई इस संदर्भ में व्याख्या भी नहीं करता। प्रकरण सामने आने के बाद कविता के भाव उसी से जोड़े गए। यही नहीं आयोजक की सफाई के बाद भी लोग सवाल उठा रहे हैं? आयोजक के कर्तव्य की याद दिला रहे हैं। उनकी कार्यप्रणाली को कठघरे में खड़ी कर रहे हैं।
एक गंभीर सवाल यह उठ रहा है कि मामले को कानून के दायरे में क्यों नहीं लाया गया? न जिसके साथ घटना घटित हुई उसने पुलिस में शिकायत की, न आयोजक ने पुलिस को कोई तहरीर दी। लेखिका ने कहा कि आरोपी लिखित में माफी मांगे या कार्यक्रम छोड़कर चला जाए। आरोपी ने माफी नहीं मांगी, लेकिन दूसरे विकल्प को चुन लिया। इससे इसकी पुष्टि तो होती है कि आरोपी पर लगा आरोप गलत नहीं है। यह और बात है कि कानूनी रूप से उसे साबित करने के लिए साक्ष्य न हों, लेकिन आरोपी का आरोप लगने के बाद कार्यक्रम छोड़कर जाना साबित करता है कि उसने आरोप को नैतिक रूप से स्वीकार किया है।
यही नहीं, उसने अपने आलोचकों को धमकाने के लिए कानूनी नोटिस भी पोस्ट किया। आरोप लगने के बाद और सोशल मीडिया पर थू-थू होने के बाद भी आरोपी कविवर ने मामले में कोई सफाई नहीं दी है। इससे यह माना जा रहा है कि आरोप सही हैं।
कविवर की शर्मनाक हरकत के बाद रचनाकारों की नैतिकता पर सवाल उठने लगा है। अपनी रचनाओं में बड़ी-बड़ी बातें करने वाला लेखक उसे खुद के आचरण में क्यों नहीं उतार पाता? अपने ही रचे-गढ़े सिद्धांतों पर वह खुद क्यों अमल नहीं कर पाता? क्यों वह बार-बार फिसल जाता है। उसके अंदर यह विचलन-फिसलन कहां से आती है? क्यों वह अपने सिद्धांतों से अपने मन की विचलन-फिसलन को नहीं रोक पाता? प्रेम होना और उसे सहमति से हासिल करना अलग बात है, लेकिन विपरीत लिंग के प्रति बिना सहमति ओछी हरकत करने को उचित कैसे कहा जा सकता है?
यह भी सवाल उठ रहा है कि अपनी रचनाओं में महिला के सम्मान की बातें करने वाला खुद क्यों महिला का सम्मान नहीं कर पाता है? किसी दुष्कर्मी और लंपट की आलोचना करने वाला मौका पाते ही खुद क्यों वैसी ही हरकतें करने लगता है? नैतिकता और आदर्श की दुहाई देने वाला लेखक-कवि क्यों इसे अपने व्यवहार में नहीं उतार पाता है? जिस दिमाग से किसी रचना का सृजन करते समय वह तमाम तरह के सिद्धांत बघारता है, उसे अपने जीवन व्यवहार में क्यों नहीं क्रियान्वित कर पाता है? क्यों कोई पुरुष लेखक किसी महिला लेखक की रचना से अधिक उसकी देह को पसंद करता है। उसकी देह पर चर्चा करता है। स्त्री को चांद चाहिए होता है और पुरुष को उसकी देह लुभा-उलझा रही होती है। ऐसा क्यों होता है?
(हालांकि इस मामले में कवि महोदय अपनी रचनाओं में भी महिलाओं का सम्मान नहीं करते हैं। उनका नजरिया महिलाओं को लेकर निंदनीय ही रहा है। इसलिए उनकी कृत्य भी वैसा ही सामने आता रहा है। इस बात की पुष्टि तो कार्यक्रम के भागीदार रहे लेखक ने भी किया है। उन्होंने तो उनके चयन पर ही सवाल उठाया है। यही वजह है कि उनके कार्यक्रम में शामिल होने पर और इस हरकत के बाद आयोजक कठघरे में हैं।)
करीब 15 साल पहले एक युवा कवयित्री ने इस लेखक से कहा था कि एक संपादक ने पत्रिका में मेरी कविता प्रकाशित की। इसके बाद फोन पर तारीफ करने लगे। कहने लगे कि दफ्तर आया करो। मुझे अच्छा नहीं लगा। मैंने इसके बाद उनसे बात नहीं की, न ही कभी उनके दफ्तर गई। यही नहीं उन्होंने एक समकालीन कवि पर भी शर्मनाक आक्षेप लगाए। इसी तरह एक कवि ने एक युवा लेखिका के बारे में बेहद ही अभद्र बात कही थी। उस समय मेरा दिमाग सन्न रह गया था। यह सब सुनना दुखद था।
ऐसा आरोप लगता रहा है कि जब दो-चार पुरुष लेखक एक साथ होते हैं, तो अक्सर रचना या दर्शन पर नहीं, किसी महिला के बारे में चर्चा करते हैं। यह भी कहा जाता है कि इसी तरह की चर्चा महिलाएं भी करती हैं। यह कितना सही है यह तो शोध का विषय है, लेकिन यह सच है कि अधिकतर लेखकों-कवियों के कथनी और करनी में अंतर देखा-पाया जाता है।
अक्सर लेखक और कवि अपनी रचनाओं के विपरीत ही नैतिकता का पाठ करते हैं। शायद इसीलिए बड़ा लेखक-कवि बन जाने के बावजूद उनका छोटापन सामने आ जाता है। शायद इसी को शिखर से विचलन कहते हैं। शिखर से फिसलकर गिरने वाला अक्सर बचता नहीं है। बच भी गया तो शारीरिक रूप से किसी काम के लायक नहीं रह जाता। इस बात को शिखर पर रहने वाले को भूलना नहीं चाहिए।
हिंदी साहित्य में ऐसा प्रकरण पहली बार नहीं हुआ है। किसी कवि -लेखक पर इस तरह का आरोप लगना चौंकाता नहीं है। बीते सालों का सबसे चर्चित आरोप बाबा नागार्जुन पर लग चुका है। यह आरोप उनके निधन के बाद लगा। इस वजह से वह सफाई तो नहीं दे सकते। इस आरोप के बाद बहुतों की बाबा नागार्जुन के प्रति आस्था हिल गई। बहुत सारे लोगों ने उनकी आलोचना की, लेकिन उनका रचना संसार इतना विशाल है कि उसे खारिज नहीं किया जा सकता। यही नहीं जिस उम्र में उन पर ऐसी हरकत करने का आरोप लगा, वह भी कइयों को विश्वसनीय नहीं लगी। यही वजह है कि इस आरोप को कई लोगों ने खारिज कर दिया या तमाम तरह के सवाल उठाए। यह भी कहा गया कि यह ख्याति पाने के लिए इतने सालों बाद लगाया गया आरोप है। इसमें कितनी सच्चाई है, यह तो सामने नहीं आ पाई। जांच होती तो शायद आती, लेकिन आरोप के आगे बात नहीं बढ़ी।
हंस पत्रिका के संपादक राजेंद्र यादव के नौकर पर भी एक युवा लेखिका ने आरोप लगाया था। यह भी आरोप था कि राजेंद्र यादव ने अपने नौकर का समर्थन किया था। इस तरह राजेंद्र यादव भी घेरे में आ गए थे। और भी कई लेखकों पर महिलाओं के प्रति अनुचित व्यवहार का आरोप लग चुका है। प्रेम प्रसंग की बात तो खैर अलग ही है। लेखकों-कवियों में प्रेम के नाम पर विचलन स्थायी भाव की तरह दिखाई देती है। यही वजह है कि उनके चरित्र पर सवाल उठते रहे हैं, लेकिन सहमति से बने संबंधों में बहुतों को कोई अनैतिकता दिखाई नहीं देती है।
ताजा प्रकरण भी जांच के दायरे में नहीं आया है, इसलिए इस पर बहस ही हो रही है। इसके बावजूद इस तरह के आरोपों को हल्के में नहीं लिया जा सकता है। ऐसे आरोपों को जांच के दायरे में लाया जाना चाहिए, ताकि इसका उचित निष्कर्ष निकल सके। दोषी को कानूनी ताैर पर दंडित किया जा सके। इसके बाद उसकी रचनाओं को भी इसी परिप्रेक्ष्य में विमर्श में लाया जा सके।
हालांकि, कई बार साक्ष्य नहीं होने और न्यायिक प्रक्रिया लंबी चलने की वजह से लोग ऐसे मामलों को जांच के दायरे में लाने से बचते हैं और चुप्पी साध लेते हैं।
दरअसल, नैतिकता का सवाल व्यापक होता है। लेखक के विचार-आचारण-व्यवहार में अंतर नहीं होना चाहिए। उसे एक उच्च मानदंड स्थापित करना चाहिए, ताकि समाज उसका अनुशरण करे। ताकि एक बेहतर समाज बन सके। माना जाता है कि लेखक है, कवि है, तो संवेदनशील होगा। इंसानियत और मनुष्यता की बात करेगा। सामाजिक बुराइयों और धार्मिक पाखंडों से परे होगा। समाज के लिए पथ प्रदर्शक का काम करेगा, लेकिन जब ऐसा होता दिखाई नहीं देता है, तो लोग सवाल उठाने लगते हैं। सभी लेखक ऐसा नहीं कर पाते हैं। उनकी रचनाएं भी इतनी उच्च कोटि की नहीं होती कि वह समाज या मानव सभ्यता का कोई भला कर सकें। लिजलिजे और सतही साहित्य से मानव विकास और मनुष्यता व इंसानियत की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। यहां तक की उसमें नैतिकता की भी उम्मीद करना बेमानी ही है। ऐसे लेखकों का आचरण किस तरह का हो सकता है, इसकी कल्पना की जा सकती है।