भूटान यात्रा वृत्तांत
भूटान: पुनाखा वाया दोचुला पास
-अरुण माहेश्वरी
तीसरे दिन हम थिम्पू से भूटान की पुरानी राजधानी, भूटानी जीवन के अंतर की लय कहे जाने वाले पुनाखा की यात्रा पर गए । यह एक संगम स्थल है – फो छू (पुरुष नदी) और मो छू (स्त्री नदी) का संगम-स्थल जहां से पुना छू नदी की धारा शुरू होती है ।
फो छू की उफनती हुई कलकल धारा ऊपर से आती है और मो छू नीचे बहती हुई अपेक्षाकृत एक शांत और सौम्य नदी है । यहां के धान के खेतों से ही भूटान की उर्वर घाटियाँ का आरंभ होता है । यह क्षेत्र भूटान के पोषण का प्रतीक है ।

पुनाखा भूटान का मध्य बिंदु है जहाँ पहाड़ों की ऊँचाई और घाटियों की नमी, दोनों एक-दूसरे को पूरा करते हैं। यही वह संतुलन है, जो भूटानी जीवन में संतोष और संवेदना का सामंजस्य बैठाता है ।
बहरहाल पुनाखा के रास्ते में ऊँचाई पर दोचुला पास पड़ता है । पास अर्थात् दर्रा । दर्रा जो हर भारतीय को सबसे पहले खैबर की याद दिलाता है । वह रास्ता जिससे न जाने कितनी सभ्यताएँ आईं, कितना रक्तपात, कितना व्यापार, कितना विचारों का आदान-प्रदान हुआ और भारत के इतिहास में न जाने कितने नए पन्ने जुड़े ।
इतिहास में हर दर्रा संस्कृतियों के पारगमन का स्थल होता है । हर दर्रा एक पर्दे की तरह है जो एक दृश्य से दूसरे दृश्य के बीच झूलता है; जब चेतना के दो तल एक-दूसरे के लिए खुलते हैं। विचारों के संक्रमण का स्थल; विच्छेद और क्रम की एकता का प्रतीक ।
इसी ‘पास’ शब्द ने अनायास ही हमें मनोविश्लेषण में जॉक लकान के खास योगदान की याद दिला दी । विश्लेषण विश्लेषक और विश्लेष्य का निजी विषय नहीं होता । उन्होंने हर विश्लेषण को एक ‘pass’ का रूप दिया । विश्लेषण उपचारमूलक गंतव्य नहीं, एक अनुभव को आगे बढ़ाने का सेतु, एक चेतना से दूसरी चेतना में प्रवेश का पथ है। इसी तरह लकान ने psycho-analysis को हमारे तंत्र की भांति ग़ैर-दार्शनिक दर्शन की एक पूर्ण विकसित सर्वाधुनिक चिंतन पद्धति का रूप दिया ।
बहरहाल, ‘दोचुला पास’ कोई चित्त की जटिलता या विश्लेषण की ऊँचाइयों का विषय नहीं है । एक भूगोल से दूसरे भूगोल तक पारगमन का स्थल ज़रूर है ।
यहाँ 108 स्तूप बने हुए हैं जिन्हें द्रुक वांग्याल छोर्टन कहते हैं। ये सन् 2003 में उल्फा वालों के साथ भूटान में भारत सीमा पर हुए संघर्ष में शहीद भूटान के सैनिकों की स्मृति में निर्मित 108 स्तूप हैं।

बौद्ध तंत्र साधना में 108 एक प्रकार की संपूर्णता का प्रतीक है। मृतक की पूर्ण मुक्ति का प्रतीक । इच्छा, द्वेष और मोह के 36-36 प्रकार के तीन क्लेशों से मुक्ति का प्रतीक । जैसे कश्मीरी शैव दर्शन में विश्व के समस्त प्रपंच को परम शिव के उल्लास के कुल 36 शुद्ध , शुद्धाशुद्ध और अशुद्ध अध्वाओं में प्रसारित और संकुचित बताया गया है, वैसे ही यहाँ 36-36 प्रकार के क्लेशों का जिक्र करते हुए संसार के बंधनों की संख्या 108 गिनी गई है।
पर, जैसे हर दर्शन अपने लोक में कुछ नया, बल्कि विपरीत रूप ले लिया करता है, भूटानी जन-जीवन में भी संपूर्ण मुक्ति रे प्रतीक स्तूपों का अर्थ कुछ और ही हो गया है।
हमारे ड्राइवर ट्रिंग्स ने बताया कि मृत्यु के बाद तीन दिनों तक होने वाले क्रियाकर्म के अनुष्ठानों में ऐसे चार-चार उँगली के 108 स्तूपों की स्थापना अगले जन्म में 108 वर्षों की दीर्घायु की कामना के लिए की जाती है। जो बुद्ध पुनर्जन्म पर जरा भी यकीन नहीं करते थे, उनके अनुयायी लामा गण नए जन्म में लंबी उम्र की कामना के अनुष्ठान करवाते हैं ; मृतक के किसी पशु-पक्षी की योनि में जन्म न लेने की गारंटी भी देते हैं ! इन अनुष्ठानों में हजारों रुपये फूँक दिए जाते हैं !
बहरहाल, दोचुला पास पर हवा में झरते सूखे पत्ते, दूर तक फैला हिमालय, और 108 स्तूपों की श्वेत पंक्तियाँ, सब हमें एक ही बात कह रही थी कि मुक्ति न भविष्य की प्रतीक्षा है, न किसी अन्य जन्म की प्राप्ति; वह इसी क्षण के शांत स्पंद में निहित विसर्जन भर है ।
हम ऊपर पुनाखा के लंबे हैंगिंग ब्रिज के अनुभव का जिक्र करना भूल गए । दो पहाड़ों के बीच झूलते इस पुल पर कदम रखना ऐसा था कि जैसे जान बूझ कर पांव के नीचे की ठोस जमीन को खो देना । इस पर शुरू में हर कदम एक झटके की तरह था, पर शीघ्र ही मन का इस कंपन से ताल बैठ गया । फिर भी स्थिरता कभी नहीं आई । यह किसी विश्लेषण की प्रक्रिया में प्रवेश के क्षण जैसा था जिसमें ठहरना असंभव होता है; आगे बढ़ना अनिवार्यता । अरुण माहेश्वरी केफेसबुक वॉल से साभार
