बुकर पुरस्कार से सम्मानित कहानीकार बानो मुश्ताक़ की कहानी ‘फ़ायर रेन’ (हिंदी में ‘अंगार का मेंह’) पैतृक संपत्ति में बहनों के हिस्से के सवाल को केंद्र में रखती है. मुतवल्ली जैसे धार्मिक पात्र के ज़रिए स्त्री-साहस और सामाजिक संकीर्णता पर चोट करती यह कहानी रशीद इस्मत चुग़्ताई और रशीद जहां की परंपरा से जुड़ती है.
पेश है बानू मुश्ताक़ की एक कहानी ‘फ़ायर रेन’ का तर्जुमा जिसका मौज़ू भी रोचक है और इसमें कहानीपन और रचनात्मकता भी है. इस कहानी में पैतृक संपत्ति में बहनों के हिस्सा के प्रश्न को मर्कज़ में रखा गया है. हिस्सा न देने वाला व्यक्ति एक मुतवल्ली, यानी एक तरह से धर्म का संरक्षक है जिसको प्रधान पात्र बनाना (वह भी एक स्त्री के द्वारा) हमारी सामाजिक संकीर्णता के कारण, कम साहस की बात नहीं. याद कीजिए बदनाम-ए-ज़माना लेखिका रशीद जहां ‘अंगारे वाली’ और इस्मत चुग़्ताई ‘लिहाफ़ वाली’ को, सज्जाद ज़हीर और महमूद-उज़्ज़फ़र के उन अफ़्सानों को जिनकी अकथनीय विषयवस्तु (धर्म व्यवस्था संबंधी) के कारण 1932 में ‘अंगारे’ पर पाबंदी लगी, साथ ही याद कीजिए सलाम बिन रज़्ज़ाक़ की कहानी (ज़िंदगी अफ़साना नहीं) को जिसमें अपने ख़ानदान की परवरिश और दूसरी ज़िम्मेदारियों से पहलू बचाकर तब्लीग़ी जमात में चले जाने वाला पात्र रचने की सज़ा में उन्हें धमकियों और हमलों का सामना करना पड़ा और उनके पब्लिशर, नया वरक़ के संपादक साजिद रशीद को भी.
सलमान रुश्दी और तस्लीमा नसरीन का तो ज़िक्र ही क्या! वे तो विश्व प्रसिद्ध हुए. कहते हैं किसी कहानी पर सोशल बॉयकॉट बानू मुश्ताक़ का भी हुआ था और वो भी शापित लेखकों की लीग में शामिल हुईं, जैसा कि वो ख़ुद अपने किसी इंटरव्यू में बताती हैं. एक्टिविस्ट होना और अपनी तहरीरों से भी समाजिक बदलाव का काम लेना, समझ में न आने वाले प्रयोगों के तोता मैना बनाने से बेहतर काम है. उनके जैसे साहसी और अदीब सामाजिक समस्याओं पर लिखते रहें, ये भी एक कार-ए-ख़ैर है और सामाजिक दायित्व भी.
अंगार का मेंह
बानो मुश्ताक़
फ़ज्र की नमाज़ के लिए जैसे ही मस्जिद से अज़ान की आवाज़ बुलंद होना शुरू हुई, मुतवल्ली उसमान साहिब अपने बिस्तर पर उठ बैठे. ये देखकर कि उनकी बीवी आरिफ़ा उनके पहलू में नहीं है, वो कमरे से निकल कर हॉल कमरे में आए और देखा कि वो और उनका बेटा अंसार गहरी नींद में क़ालीन पर पड़े हैं. एक सरसरी नज़र ने उन पर ये स्पष्ट कर दिया कि तीन साल के बच्चे की सांसें हमवार नहीं हैं. उसके माथे पर रखी गीली पट्टी, बिखरे बर्तन, दूध की बोतल, कप, चम्मच, पानी का जग और गर्म पानी का फ्लास्क देखकर वो समझ गए कि क्या हुआ है. आरिफ़ा यक़ीनन सारी रात जागती रही थी और थकन से चूर अपने बिस्तर पर नहीं, बल्कि इस हॉल में अब बे-ख़बर सोई पड़ी थी. उन्हें अपने सीने में एहसास-ए-जुर्म का ख़ंजर उतरता महसूस हुआ लेकिन दूसरे ही लम्हे याद आया कि उनकी छोटी बहन जमीला और उसका पति बराबर वाले कमरे में सोए हुए हैं. और वो बेचैन हो उठे. पहले ख़याल आया कि आरिफ़ा को कम्बल उढ़ा दें लेकिन फिर जमीला के शौहर का ख़याल करके उनकी पेशानी पर बल पड़ गए और बदन में ऐंठन होने लगी. उन्होंने झिंझोड़ कर आरिफ़ा को जगाया. वो अपनी थकन के कारण गहरी नींद से फ़ौरन बेदार नहीं हुई, जिससे मुतवल्ली साहिब का पारा चढ़ने लगा.
छोटा सा एक गीत जो एक फ़क़ीर गाया करता था, उनके ज़हन में गूंजने लगा:
हांदी येनडेके हीगलेयूवी
मनाडल्ली हांदी, मनेयल्ली हांदी
मायल्ली हांदी होत्तावाने
सुअर का मांस हराम है. इसी तरह ग़ुस्सा भी हराम है . परहेज़गार मुसलमान ये मानते हैं कि अगर सुअर पर दृष्टि भी पड़ जाए तो आदमी नापाक हो जाता है. इस गीत में इस ग़ुस्से को, जो इन्सान के दिल में, शरीर में और घर में पैठ बना लेता है, सुअर के बराबर बताया गया है. मुतवल्ली ने भी गीत को अनेक बार गुनगुनाया था. लेकिन ये वो सुबह थी कि उनके अतार्किक ग़ुस्से के आगे गीत भी चम्पत हो गया. बेचैनी की अवस्था में उन्होंने टटोलती नज़रों से इधर-उधर देखा, और फिर मानो अचानक कुछ दिव्य संकेत मिला हो, उन्होंने आरिफ़ा की टांगों पर ज़ोर से ठोकर मारी. वो हठात उठ बैठी.
‘तुम अंदर नहीं सो सकतीं’, उन्होंने कर्कश आवाज़ में कहा, और जवाब का इंतिज़ार किए बग़ैर बाहर निकल गए.
मस्जिद उनके घर से फ़र्लांग भर के फ़ासले पर थी. वो तेज़ क़दमों से चल रहे थे, लंबे-लंबे डग भर कर सुबह की धुंद के पर्दे को चाक करते हुए. उनका शरीर यद्यपि मस्जिद की ओर बढ़ रहा था, लेकिन मस्तिष्क निरन्तर पीछे की तरफ़, घर की जानिब भागता रहा.
उनकी सबसे प्यारी, सबसे छोटी बहन, जिसको उन्होंने सेकेंडरी स्कूल तक प्रेम और वात्सल्य के साथ पढ़ाया था, वो बहन जिसकी शादी पर अब से पाँच साल पहले उन्होंने अठारह रेशमी साड़ियां, सोने का ज़ेवर दिए थे, और उसके पति के लिए मोटर बाइक, वही बहन अब पैतृक संपत्ति में हिस्सा मांगने आई थी. उसके सम्मान में बिरयानी और सैवइयों की ख़ास खीर ‘शावेगे पाईसा’ तैयार कराई गई थी, जिसमें अब तल्ख़ी आ गई थी. हुँह. ये किस तरह का बर्ताव हुआ? उनका शरीर दुबारा ग़ुस्से से सुलग उठा.
इस पर मुस्तज़ाद यह कि उसने जिरह भी शुरू कर दी थी. ‘अन्ना, मेरा इतना ही हिस्सा है जिस पर अल्लाह और उसके पैग़म्बर की शरीयत ने मुझे हक़ दिया है. मैं उस जायदाद में से हिस्सा नहीं मांग रही हूं जो आपने अपनी मेहनत से कमाई है.’
वो कौन सी जायदाद है जो उन्होंने अपनी मेहनत से कमाई है? क्या वो महज़ उसी जायदाद की व्यवस्था नहीं सँभाले हुए थे जो उनके वालिद ने जमा की थी.
‘हमारे वालिद की जायदाद के छठे हिस्से पर मेरा हक़ है.’
उफ़्फ़ोह! इसने पहले ही सारा हिसाब लगा रखा है. वो उसके मुंह पर थप्पड़ जड़ते हुए कहना चाहते थे, ‘यह लो अपना छठा हिस्सा! लेकिन उन्होंने उस सुअर को क़ाबू में रखने की पूरी कोशिश की जो उनके बदन में दौड़ने लगा था और अब बेचैनी की अवस्था में कूद-फाँद मचा रहा था. जमीला का छः फ़ुटा पति भी क़रीब ही रखी एक कुर्सी पर मानो उसका अंगरक्षक बना बैठा था.
‘आप मोहल्ले-भर के मसअलों के फ़ैसले करते फिरते हैं. आपको चाहिए था कि मुझे बुलाते और कहते, लो जमीला, अपना हिस्सा ले लो. चलिए, मेरी बात छोड़ दीजिए, सकीना का मुआमला ही लीजिए. न तो उनके शौहर ज़िंदा हैं और न बच्चे ही इतने बड़े हैं कि कोई काम धंदा कर सकें. वो अपनी दो-दो जवान बेटियों की शादी का इंतिज़ाम किस तरह करेंगी?’
मुतवल्ली साहिब बैठे फ़र्श को घूरते रहे. ये कितनी हैरान करने वाली बात थी कि जमीला यूं फ़रफ़र बोले जा रही थी. उसकी ख़ामोश रहने की आदत आख़िर क्या हुई? आम और नारीयल के बाग़ीचे, खेत-खलियान और वो सारी जगहें जहां रेशम के कीड़े पाले जाते थे, और शहर-भर में बिखरे बेशुमार मकान उनकी आंखों के सामने से गुज़रने लगे. उनमें से कुछ भी क्या वो अपनी बहनों को हिस्से के तौर पर दे सकते थे?
जमीला मेंढ़क की तरह से टर्राती रही, ‘अन्ना, एक अच्छे ख़ानदान में आपने मेरी शादी की है. मैं ये तो नहीं कह रही कि आपने ऐसा नहीं किया. लेकिन मेहरबानी करके ज़रा सोचिए, अब्बा के इंतिक़ाल को दस साल गुज़र चुके हैं. अगर आपने तभी मेरा हिस्सा मुझे दे दिया होता तो अब तक मैंने उससे दस गुना पैसा कमा लिया होता जो आपने मेरी शादी पर ख़र्च किया था. मैं अब वो सारा पैसा तो आपसे नहीं मांग रही हूं ना. लेकिन…’
मुतवल्ली साहिब के धीरज का बांध फट पड़ा. आरिफ़ा दरवाज़े के सहारे खड़ी ये सारी गुफ़्तगू बेचैनी से सुन रही थी. उसके ख़याल में जमीला के सारे अलफ़ाज़, उसका लहजा और जिरह करने का अंदाज़, सब कुछ बहुत दुखदाई था, लेकिन उसकी मांग तो बिल्कुल जायज़ थी. क्या ऐसा नहीं था? उस की दलीलों को कोई नहीं काट सकता था.
वह घर जिससे मुतवल्ली को चार हज़ार रुपये माहाना किराया मिलता था और साथ में एक कॉफ़ी का बाग़, क्या आरिफ़ा को उसके माता-पिता की ओर से उसके हिस्से के तौर पर नहीं मिले थे? आरिफ़ा को अपना हिस्सा बिना मांगे मिला था. उसके माता-पिता ने उसे और उसके पति को अपने घर आने की दावत दी, उन्हें उम्दा खाना खिलाया, एक नई साड़ी और ब्लाउज़ तोहफ़े में दिया, और जो जायदाद उसके नाम मुंतक़िल की थी उसकी रजिस्ट्री के काग़ज़ात उनके हवाले करके बहुत प्रेम से उन्हें विदा किया था. लेकिन यहां जमीला को अपने हक़ के लिए लड़ना पड़ रहा था.
मुतवल्ली साहिब के मुंह से एक लफ़्ज़ भी नहीं निकला, वो घुरघुराते हुए खड़े हो गए और जमीला को घूरते रहे. अपने बड़े भाई को इस तरह घूरते देखकर वो थोड़ी सी सहम गई लेकिन फिर उसने अपने शौहर की तरफ़ देखा, थोड़ा सा साहस बटोरा और इस तरह जैसे वाक्य रट कर आई हो, उसने जल्दी से अपनी बात ख़त्म की: ‘अगर आप मुझे मेरा जायज़ हक़ नहीं देंगे तो मैं अदालत से हासिल करूँगी.’
मुतवल्ली साहिब सुन्न रह गए और दम साधे तेज़ी के साथ अपने बेडरूम की जानिब बढ़े. उनके क़दमों की क्रुद्ध धमक से सहम कर आरिफ़ा तेज़ी से दरवाज़े से हट गई और उन्हें निकलने का रास्ता दिया.
कमरे में वो मूर्ति बने बैठे रहे, यहां तक कि उन्हें अपनी टोपी तक उतारने का ख़याल नहीं आया. आरिफ़ा ने आकर पंखा चला दिया.
घटना की सारी तफ़सीलात उनके ज़हन में एक एक करके गुज़रने लगीं. सर्दी का मौसम था और मस्जिद के पीछे बने ग़ुसलख़ाने में पानी गर्म हो रहा था. आदत की अटकल कर उन्होंने ग़ायब-दिमाग़ी से वुज़ू के आयाम पूरे किए, और नमाज़ के भी. उन्होंने अपने अंगों को धोकर पाक-साफ़ कर लिया था, लेकिन क्रोध का कीड़ा ज़हन में पंजे गाड़े बैठा रहा. एक तो जमीला की ढिटाई कचोके लगा रही थी, और दूसरे जायदाद में हिस्सा देने का ख़याल कचोट रहा था. उनकी असल चिंता यह थी कि वो इस ढिटाई पर जमीला को किस तरह से सज़ा दें और साथ में जायदाद पर क़ब्ज़ा भी बरक़रार रखें.
मस्जिद कुशादा थी और इसका सेहन विस्तृत. जो लोग सुबह की नमाज़ अदा करने आते थे वो उन्हें अपनी उंगलियों पर गिन सकते थे. इस वक़्त उनके मित्रों की मंडली में से कोई भी मौजूद न था. चुनांचे मजबूर होकर उन्होंने घर का रास्ता लिया.
लेकिन वो सीधे घर नहीं गए. जब तक वो धीरे-धीरे चलते हुए क़स्बे के गोल चक्कर तक पहुंचे, मदीना होटल के दरवाज़े खुल चुके थे. वो होटल में दाख़िल हुए और एक कप चाय पी. लेकिन क़रार नहीं आया. वो होटल से बाहर निकले और निहायत बेदिली से चलते हुए गोल चक्कर के बीचों-बीच जा खड़े हुए जहां दरअसल ट्रैफ़िक पुलिस वाले को होना चाहिए था. उन्होंने सीटी नहीं बजाई और न ट्रैफ़िक को रास्ता दिखाया. वो चारों दिशाओं में कुछ यूं देखते रहे जैसे फ़ैसला न कर पा रहे हों कि कौन से रास्ते पर चल पड़ें. उनका हाल दयनीय था. और तभी वह अघटनीय घटना घटित हो गई.
‘धप्प!!’ एक आवाज़ उनके कानों से टकराई. इससे पहले कि वो देख पाते कि क्या हुआ है, एक कौआ बिजली के तार से लुढ़का और पेड़ से टूटे हुए सूखे पत्ते की तरह सड़क पर आन गिरा. मुतवल्ली साहिब ने इसको चंद गज़ के फ़ासले से देखा और चलने को हुए. तभी एक और कौआ जाने कहां से काएं काएं करता नमूदार हुआ. उसकी आवाज़ गूंजी तो और भी कव्वे जमा होने लगे, जैसे जादू से नमूदार हो रहे हों.
उन्होंने महसूस किया कि उनमें से कुछ की काएं काएं में पीड़ा थी, कुछ में आवेश था और कुछ में ग़ुस्सा. कुछ के स्वर में आलस था, मानो फ़र्ज़ से मजबूर हो कर बोलना पड़ रहा हो. कुछ आवाज़ें ऐसी थीं गोया गहरी सांस भर कर शाप दे रही हों, कुछ जश्न-ए-आज़ादी की तुरही बजा रही थीं और कुछ आनंद भरी चीख़ों जैसी थीं. मुतवल्ली गोया हर तरह की चीख़ें महसूस करने लगे और तब उन्होंने वहां से निकल जाने का फ़ैसला किया. लेकिन कव्वे उनके सर पर मंडलाने लगे, जैसे उन पर हमला करने वाले हों. भ्रमित होकर उन्होंने एक क़दम आगे बढ़ाया. आंख के गोशे से निश्चल पड़े कव्वे पर निगाह डाली. ‘अरे अभेद्य ऽ काले रंग में इंद्रधनुष के इतने सारे रंग!’
जब वो घर पहुंचे तब तक इसी ग़ायब दिमाग़ी की स्थिति में थे. अपने बेडरूम में दाख़िल हुए तो मुतवल्ली साहिब को नींद का ग़लबा महसूस होने लगा. आरिफ़ा घर के काम-काज में मसरूफ़ थी, बीमार बच्चे की देखभाल के साथ-साथ दूसरे बच्चों के लिए नाश्ते और लंच की व्यवस्था, उनके बस्ते और जूते मौज़े वग़ैरा का इंतिज़ाम. साथ जमीला और उसके शौहर के लिए विशेष पकवानों का इंतिज़ाम. वो नहीं चाहती थी कि इस घर की बेटी कोसती पीटती, नाराज़ होकर मायके से जाए. उसे अपनी मां के अलफ़ाज़ याद थे— हक़दार तरसे तो अंगार का मेंह बरसे. यानी अगर हक़दार नाख़ुश हुआ तो अंगारों की बारिश होगी.
बीती रात को उसने मुतवल्ली साहिब से धीमी सरगोशियों में बातें की थीं.
‘राई, घर की बेटी को कभी तकलीफ़ न दो. क़ुरआन में साफ़ कहा गया है कि लड़की भी अपने हिस्से की हक़दार होती है. ऐसा नहीं है क्या? अपनी चारों बहनों को बुलालो और उनका जो हक़ बनता है, देकर अपना दामन साफ़ करलो. हमारे पास जो कुछ बचेगा अल्लाह उसी में हमें बरकत देगा.’
आरिफ़ा अमूमन मश्वरे नहीं देती थी. वो अंदर से डरी हुई थी, फिर भी इस मौज़ू पर उसने अपनी बात रखी. मुतवल्ली साहिब ने सैकड़ों फ़ैसले किए थे. वो उन्हें ऐसा क्या बता रही थी जो वो पहले से नहीं जानते थे? वो ऐसी औरत के अलफ़ाज़ क्यों बर्दाश्त करें जो पर्दे में रहती है और मामूली हैसियत रखती है!
‘चुप रहो, और अपने काम से काम रखो!’ उन्हों फटकार लगाई थी और बिस्तर पर दराज़ हो कर जल्द ही ख़र्राटे लेने लगे थे.
आरिफ़ा चपातियां बेलती जा रही थी और निहायत मुज़्तरिब थी. ‘ऐ परवरदिगार, इन्हें थोड़ी सी समझ अता कर!’ उसने दिल ही दिल में रोकर कहा. वो अभी-अभी अंसार की पेशानी पर गीला तौलिया रखकर आई थी. वो हालांकि मशीनी अंदाज़ में रोटी बेलती और तवे पर सेंकती रही लेकिन उसे एहसास था कि अंसार तकलीफ़ में है, और बार-बार हॉल की तरफ़ दौड़ती थी जहां उसने अंसार को लिटा रखा था.
इसी दौरान में उसकी नज़र एक औरत पर पड़ी. उसने हालांकि बुर्क़ा ओढ़ रखा था, और उसके चेहरे पर नक़ाब पड़ा था, लेकिन आरिफ़ा ने उसे फ़ौरन पहचान लिया. बुर्क़े के सुराख़ों में से एक गंदी सी साड़ी झलक रही थी जिसका रंग कभी काला रहा होगा लेकिन अब पुरानी पड़कर भूरी हो चुकी थी. एड़ियां कटी फटी थीं, त्वचा का रंग उड़ा हुआ, पैरों में टूटी हुई हवाई चप्पलें जिनको सेफ़्टीपिन से जोड़कर मरम्मत की गई थी. आरिफ़ा ने एक ही नज़र में उसकी बदहाली को भांप लिया और ख़ुद को परेशान होते महसूस किया. वो औरत अंदर नहीं आई बल्कि बरामदे में ही रुक गई—उन्हीं लोगों के साथ जो मुतवल्ली साहिब से मुलाक़ात के लिए आए हुए थे.उसको यूँ एक गोशे में खड़ी देखकर आरिफ़ा ने अपने हलक़ में एक गोला सा अटकता महसूस किया. पर्दे के पीछे से, जो हॉल कमरे को बरामदे से अलग करता था, उसने इतनी ऊंची आवाज़ में कि औरत तक पहुंच जाए, सरगोशी के अंदाज़ में कहा, ‘सकीना अक्का, तुमसे बिनती करती हूं, अंदर आ जाओ. बाहर क्यों खड़ी हो?’
आरिफ़ा पर्दे के पीछे से औरत के भाव नहीं देख सकी कि उसने सुन लिया है या नहीं. परंतु उसके पास खड़े लड़के ने तक़रीबन बेरहम लहजे में जवाब दिया था, ‘हम ठीक हैं मामी, आप अपना काम कीजिए. मामा आएंगे तो हम उनसे बात करके चले जाऐंगे.’
सकीना, उसकी सबसे बड़ी नंद, निहायत स्वाभिमानी औरत थी. जब वो विधवा हो गई तो अपने तीन बच्चों की परवरिश और घरेलू ख़र्च उठाने के लिए उसने सिलाई का काम शुरू कर दिया था. अपने मायके से वो पानी की एक बूंद भी नहीं चाहती थी. तीज-तहवार के मौके़ पर कभी-कभार आती और अपने बड़े भाई की दुआ लेती. लेकिन उस दिन वो एक अजनबी की तरह दूसरों के साथ क़तार में खड़ी थी. आरिफ़ा हैरत में थी कि क्या वो भी जमीला की तरह जायदाद में हिस्सा मांगने आई है. लेकिन उसने जल्दी से अपने ख़याल को झटक दिया और सकीना को दुबारा अंदर आने को कहा. अपने शौहर के बाहर आने से पहले सकीना को बुला कर कमरे में बिठाने की उसकी यह कोशिश व्यर्थ रही.
मुतवल्ली साहिब अपने बदन में भारीपन महसूस कर रहे थे लेकिन नींद उनको अच्छी आई थी. वो आरिफ़ा को बरामदे में खड़े लोगों को झांकते देखकर आश्चर्य में पद गए, क्योंकि वो पहले कभी यूं ताक-झांक और इशारे करते नहीं देखी गई थी. अनायास उनकी आवाज़ ऊंची हो गई, ‘आरिफ़ा!!’
घबरा कर आरिफ़ा ने पर्दा गिरा दिया और बड़बड़ाई, जैसे अपने आपसे मुख़ातिब हो,
‘सकीना अक्का बाहर वालों की तरह, मर्दों के साथ खड़ी हैं. मैं उनसे अंदर आने को कह रही थी.’
‘क्या?’ मुतवल्ली साहिब बाहर निकले तो सकीना और उसके बेटे को देखकर उनका चेहरा सुर्ख़ हो गया.
सकीना ने अपनी हथेलियां आपस में जोड़ीं और अजनबी लहजे में अपनी दरख़ास्त पेश की: ‘भाईसाब, मुझ जैसी बेसहारा बेवा की मदद कीजिए. अल्लाह आपको और आपके ख़ानदान को ख़ुशियां और ख़ुशहाली अता फ़रमाए. मेरा बेटा बी.ए. के पहले साल में पढ़ रहा है. एक इंजीनीयरिंग कॉलेज में अटेंडर की नौकरी के लिए इसका इंटरव्यू है. सुना है आप वहां की कमेटी में हैं. मेरे बेटे का नाम सय्यद अबरार है. मेहरबानी करके उसे यह नौकरी दिलवा दीजिए. यह इसकी दरख़ास्त देख लीजिए. अगर मेरे बेटे को यह नौकरी मिल गई तो वो हमारे ख़ानदान का बड़ा सहारा बन जाएगा, हालांकि मुझ जैसी बदनसीब औरत के यहां पैदा हुआ है. सब कहते हैं कि अगर आप कहेंगे तो इसे काम पर ज़रूर रख लिया जाएगा. आप ग़रीबों की ख़ुशी-ग़मी के शरीक हैं. मुझ पर भी मेहरबानी कीजिए.’
इस से पहले कि मुतवल्ली साहिब कुछ कहते, उसने नौकरी की दरख़ास्त उनके हाथ में थमा दी, उनके पैर छुए और जल्दी से बाहर निकल गई.
मुतवल्ली साहिब के दिमाग़ में कौओं ने चीख़ना शुरू कर दिया. उनका चेहरा लाल भभूका हो गया. सर्दी के बावजूद उनके माथे पर पसीने की बूंदें छलक उठीं. वो एक गद्दीदार कुर्सी पर ढह गए. पर्दे के पीछे आरिफ़ा की आंखें भी छलक आईं.
दरवाज़े के पास एक नौजवान औरत अपने बच्चे को सीने से चिपकाए खड़ी थी. साड़ी के पल्लू को अपने सिर पर दरुस्त करते हुए वह उनसे थोड़े फ़ासले पर खड़ी हो गई और बोली, ‘अन्ना, इस बच्चे के बाप के पास बैलगाड़ी थी. पंद्रह दिन पहले उसका ऑपरेशन हुआ. ऑपरेशन के लिए मैंने उसकी गाड़ी और दोनों बैल बेच दिए थे. अब पता चला उसे एक और ऑपरेशन की ज़रूरत है. डाक्टर ने यही बताया. मेरे पास अब कुछ नहीं बचा है. आप.. आप…’ उसका गला रुंध गया और आंखें धुंधला गईं. वो हिचकियों से रोने लगी.
मुतवल्ली साहिब ने उससे हस्पताल और डाक्टर का नाम, और दीगर तफ़सीलात पूछीं. फिर कहा कि वो उसके शौहर के ऑपरेशन का इंतिज़ाम करेंगे और उसे जाने को कहा. उनका शुक्रिया अदा करते हुए, औरत अपने दिल की गहराइयों से दुआएं देती हुई चली गई.
अब एक स्कूली बच्चे ने अपनी नोटबुक उनकी ओर बढ़ाई. हायर प्राइमरी स्कूल की हैड मिस्ट्रेस ने अपने ख़त में मुतवल्ली साहिब से दरख़ास्त की थी कि वो उस दिन तीसरे पहर, तीन बजे स्कूल डेवलपमेंट कमेटी की मीटिंग में शरीक हो कर शुक्रिये का मौक़ा अता फ़रमाएं. उन्होंने नोट पर दस्तख़त करके लड़के को रुख़स्त किया. अब वो समस्याएं सुनने के लिए मर्दों की तरफ़ मुड़ने ही वाले थे कि तूफ़ान की तरह दाऊद हॉल में दाख़िल हुआ.
दाऊद उनका दाहिना बाज़ू था. वो उनके लिए इतना ही ज़रूरी हो चुका था जितना बिना सोचे सांस लेना होता है. यह बात कि उनके विचार एक ही दिशा में चलते थे, उनकी दोस्ती का सबूत कही जा सकती है. मुतवल्ली साहिब के चेहरे के उतार चढ़ाव, उनकी भौंहों की ऊंच-नीच, उनकी मूंछों की थरथराहट, नाक की दशा, और होंठों के किनारों की लकीरों से वह उनके मिज़ाज का अंदाज़ा लगाने का माहिर चुका था. वह अपने शब्दों, अपने व्यवहार, और अपनी कमर के झुकाव में उनके मूड के अनुसार तबदीली कर लेता. उसमें एक चालाकी भरी बेशर्मी थी और साथ ही आत्म-सम्मान का अभाव भी. बहरहाल…
वह सुबह की नमाज़ में शामिल नहीं हुआ था. ‘ये हरामज़ादा अब आया है? हैरान हूं कि अपना वक़्त कहां ज़ाया कर रहा था…’ सोचते हुए मुतवल्ली ने दांत पीसे, लेकिन पुरसुकून रहने का ड्रामा किया और पूछा, ‘दाऊद साहिब, कहां चले गए थे? आपका तो कुछ अता-पता ही नहीं.’
दाऊद उनके सवाल और उनके लहजे, दोनों को समझ गया. धीरे से हंसते हुए जवाब दिया, ‘अस्सलामु अलैकुम, मुतवल्ली साहिब!’ और औपचारिक शिष्टता का प्रदर्शन करते हुए एक तरफ़ बैठ गया.
बहुत से लोग अब भी उनसे बात करने के लिए अपनी बारी के इंतज़ार में थे. लेकिन उन्हें दाऊद से एक ज़रूरी काम था. उन्होंने एक मर्तबा फिर बैंच पर बैठे बेचैन लोगों की तरफ़ देखा और उठने को हुए. बूढ़ा साबजान जैसे ठोकर खाता हुआ आगे बढ़ा और मोतियाबिंद के कारण धुंधली आंखों और सफ़ैद भौंहों के बीच से देखने की कोशिश करने लगा, ‘साब, साब.. मेरी सबसे छोटी बेटी की अगले हफ़्ते शादी होने वाली है. मेरे पास पैसे नहीं हैं. मेहरबानी कीजे साब. अगर उसकी शादी हो जाए तो मैं सुकून से आंखें मूंद सकूंगा. माई बाप आप मेरे बाप समान हैं.. आपको मुझ बूढ़े पर रहम खाना होगा.’ कहते हुए उसने मुतवल्ली साहिब के क़दमों में गिरने का उपक्रम किया.
‘आहाहा, तो तुम्हारे बहुत से बच्चे हैं! आख़िरी बेटी, बताया न तुमने? यानी जब तुम साठ साल के थे तो क्या वह तब पैदा हुई? आख़िरकार, तुम्हें होश आ रहा है.’ मुतवल्ली के दिमाग़ के एक गोशे में बैठा शैतान हंस पड़ा. एक बड़ी कुशादा जगह की तस्वीर उनकी कल्पना में उभरी जिसके बीचोंबीच एक ढहता हुआ मकान खड़ा था. वो जब भी इसके सामने से गुज़रते थे, उस पर एक शॉपिंग कम्पलैक्स बनाने का तसव्वुर करते थे.
‘आपको मुझसे क्या चाहिए, साबजान चिकप्पा?’ किसी भी तरह का दयाभाव न दिखाते हुए इन्होंने पूछा.
‘ज़्यादा कुछ नहीं…’ परेशानहाल साबजान ने एक पल के लिए रुककर बात जारी रखी. ‘अल्लाह की रहमत हो आप पर… मैं… मैं… मुझे उसकी शादी के लिए कोई चालीस हज़ार रुपये की ज़रूरत हैं.’
मुतवल्ली साहिब ने चौंकने का प्रदर्शन किया.
‘चालीस हज़ार रुपये… किस वास्ते… इतना पैसा कहां से लाओगे?’ वो गहरी सोच में डूबे हुए नज़र आए.
दाऊद आहिस्ता से खांसा, ‘अन्नावरी. एक मामला हुआ है … सोचा आपके इल्म में ले आऊं… अगर आपको कुछ फ़ुर्सत हो तो… नहीं, जब ख़याल आता है तो… दुनिया को क्या हो गया है. क़ानून, अख़लाक़, धरम क्या उनमें से कुछ बचा भी है?’
‘हूं. क्या हुआ है, दाऊद?’
‘क्या आप इस मसले से वाक़िफ़ नहीं हैं? क्या वाक़ई?’
ये देखकर कि किसी ओर से कोई जवाब नहीं आ रहा, दाऊद ने बात जारी रखी, ‘इस्लाम को ख़त्म किया जा रहा है, अन्नावरे… मुसलमानों की कोई प्रतिष्ठा बाक़ी नहीं रही…’ उसकी प्रस्तावना लंबी हो रही थी.
‘क्या सीधे सीधे बयान नहीं कर सकते कि मामला क्या है?’ मुतवल्ली साहिब ने चिढ़ कर पूछा.
‘अन्नावरी, आप उमर को जानते हैं न, वही जो घोड़ों की नालें बनाता है? उसकी दूसरी बेटी की शादी नीलामंगला में किसी से हुई है. है न, लेकिन लड़के ने दूसरी लड़की से शादी कर रखी थी. आपको याद है? बहरहाल, पहली लड़की का बड़ा भाई…’
‘वो कौन लानती है?’ मुतवल्ली साहिब से बढ़ते हुए ग़ुस्से के साथ पूछा. उनमें रिश्तों के जाल को सुलझाने का धैर्य नहीं था.
‘उसका नाम निसार है. पेंटर है. वही जिसने कहा था कि मस्जिद का रंग-रोग़न करेगा और दो सौ रुपये लेकर भाग गया था. याद है, पिछले रमज़ान में?’
‘ओह, हां, हां. समझ गया.’
अब मुतवल्ली साहिब को सब कुछ याद आ गया. उन्हें याद आ गया कि मस्जिद के पैसे डकार जाने के जुर्म में पेंटर को एक पेड़ से बांध कर पीटा भी गया था.
‘वो तालाब में गिर कर मर गया था. कोई डेढ़ महीने पहले उसकी लाश मिली. पुलिस वालों ने उसे बाहर निकाला.’
‘हम्म. फिर क्या हुआ?’
‘होना क्या था. सब कुछ बर्बाद हो गया. पुलिस ने निसार की लाश क़बज़े में लेकर हिंदू क़ब्रिस्तान में दफ़ना दी.’
दाऊद ने ख़बर को आहिस्ता-आहिस्ता, क्रमवार ज़ाहिर किया था, फिर भी ऐसा लगा गोया किसी ने गोली दाग़ दी हो. क्या वाक़ई ऐसा हो सकता है? क्या कभी ऐसा सुना गया? एक लम्हे को मुतवल्ली साहिब को लगा जैसे उनके दिल की धड़कन रुक गई हो. उनकी माथे पर शिकनें उभर आईं और उस पर पसीने के क़तरे उभर आए. हर शख़्स भूल गया कि वो किस मक़सद से यहां आया था, यहां तक कि साबजान भी. अगरचे बेटी की शादी का मामला उसके दिल में चुभे जा रहा था लेकिन उसने ज़िक्र नहीं किया. इस ख़बर ने सबको हिला कर रख दिया था.
यह बात कल्पना से परे थी कि किसी मुसलमान की लाश बिना कफ़न, बिना ग़ुसल, यहां तक कि जनाज़े की नमाज़ पढ़ाए बग़ैर, क़ब्रिस्तान के बजाए शमशान में बिना अंतिम संस्कारों के दफ़न कर दी जाए. मुतवल्ली साहिब के ज़हन में एक सवाल कौंदा, ‘लेकिन, दाऊद, क्या निसार का ख़तना नहीं हुआ था?’
दाऊद के पास इस तकनीकी सवाल का जवाब नहीं था.
‘छी छी, क्या आख़िरी रसूम नहीं होनी चाहियें थीं? लेकिन पुलिस यह सब क्यों सोचती? वो तो बस इतना चाहते होंगे कि जल्दी से दफ़नाएं और छुट्टी पाएं. मुआमला ख़त्म.’
लेकिन सवाल और भी थे… जिज्ञासा को हवा देने वाले.
‘उन्हें कैसे पता चला कि लाश निसार की ही है?’
‘लापता होने के कई दिन बाद उसकी बीवी शिकायत दर्ज कराने पुलिस के पास गई थी. पुलिस ने उसे वो कपड़े दिखाए जो नामालूम लाश के बदन पर मिले थे, और उसकी बीवी ने पहचान लिए. फिर उन्होंने लाश की तस्वीर दिखाई. बदन फूला हुआ था मगर निसार का था. या…’
‘या फिर पुलिस ने जान-बूझ कर ऐसा किया होगा, जैसे कुछ जानते ही न हों. चाहिए था कि वो मस्जिद में आते और हमें बताते कि हमारे किसी आदमी की लाश मिली है. हम उसे फ़ौरन यहां लाकर मुनासिब तरीक़े से दफ़ना देते.’
दाऊद ने शंकित अंदाज़ में कहना शुरू किया, ‘जहां तक मैं जानता हूं, मुसीबत की जड़ शंकर है. उसी ने पुलिस को इत्तिला दी और इस बात को यक़ीनी बनाया कि लाश हिंदू क़ब्रिस्तान में दफ़न की जाए.’
वहां मौजूद हर शख़्स गहरे सदमे में था. ‘छी! कैसा ख़ौफ़नाक ज़माना है. जब कोई मरता है तो हज़ारों लोग क़ब्रिस्तान तक मय्यत को कंधा देने को तैयार रहते हैं. लेकिन इस ग़रीब को देखो. बेचारे के लिए मुनासिब कफ़न दफ़न तक का एहतिमाम नहीं हो सका.’
साल में दो बार, रमज़ान ईद और बक़रईद की नमाज़ के इलावा निसार ने कभी नमाज़ नहीं पढ़ी, मस्जिद में कभी क़दम नहीं रखा. वो सैंकड़ों लोगों से उनके घरों के रंग-रोग़न के लिए एडवांस लेकर ग़ायब हो जाता था और उन्हें धोका देता था. वो पैसा डकार कर भी दनदनाता फिरता था. एक बार तो वो मस्जिद के रंग-रोग़न के लिए जमात से भी पैसा ले गया और हज़म कर गया. अब उसको मुनासिबढंग से दफ़न करना उन्हीं लोगों को सब से पवित्र कर्तव्य लग रहा था जिन्हें वो धोका दिया करता था. उसकी लाश को शहीद का दर्जा मिलना शुरू हो गया था. और सबसे बढ़कर तो यह लग रहा था कि निसार के शव को सारे धार्मिक संस्कारों के साथ दफ़नाने से ही मुतवल्ली के भी बहुत से मसले हल हो जाऐंगे.
वह अत्यंत पीड़ा में मुबतला होने का अंदाज़ अपनाते हुए विलाप करने लगा, ‘क्या किया जा सकता है? हर एक को अपने अपने गुनाहों का नतीजा भुगतना पड़ता है.’
वहां जमा सारे लोग, जिनमें दाऊद भी शामिल था, जैसे-जैसे इस दुर्घटना पर ग़ौर करते, उतने ही अधिक परेशान होते जाते थे.
‘तौबा, तौबा,’ साबजान ने अपने गाल पीटे, ‘मौत हर एक की तय है, लेकिन ऐसी भयानक मौत किसी को न मिले. न कलमा, न दुरूद, न सलाम. कल को हमारी मय्यतें भी कोई जहां चाहे दफ़ना देगा. जहां चाहेंगे, हमारी लाशें फेंक देंगे.’
दाऊद ने लुक़मा देने का मौक़ा नहीं गंवाया, ‘मुतवल्ली साहिब, वो तो भला हुआ कि आप हमारी रहनुमाई के लिए मौजूद हैं, इसीलिए हम अभी तक इन्सान हैं. वो कभी भी कोर्ट चले जाते हैं, क़ुरआन का कोई मुआमला लेकर. अब इस औरत, शाहबानू के मुक़द्दमे को ही ले लीजीए. उसे इतना बड़ा मसला बना दिया और बार-बार हमारी तौहीन की. और अब मुस्लिम लाशें उठाकर हिंदू क़ब्रिस्तानों में दफ़न कर रहे हैं? हमारे साथ इससे बड़ी नाइंसाफ़ी और क्या होगी!’
दाऊद अब उसे एक गंभीर समस्या के तौर पर देख रहा था. सब बेचैन थे, यहां तक कि मुतवल्ली भी. वो कभी अपनी दाढ़ी नोचते, कभी नाक में उंगली घुसाते, और कभी गहरी सोच में ग़र्क़ नज़र आते. फिर अचानक जैसे होश में आए और उन्होंने मौजूद लोगों की तरफ़ देखा. चेहरे पर शिकनें डालते हुए, जैसे निहायत उदास हों, उन्होंने अपनी आंखें ज़रा सी खोलीं और खंखारकर गला साफ़ किया.
मुआमला इतना पेचीदा था कि आरिफ़ा भी बच्चों को स्कूल की तैयारी कराने के बजाय पर्दे के पीछे खड़ी हो गई. जमीला जो ज़रा देर से जागी थी, पर्दे के पीछे अपनी भाभी से आन मिली और सरगोशी में बातें करते हुए सारा मुआमला सुना. महिलाओं के दिल धड़धड़ धड़क रहे थे.
‘या अल्लाह चाहे जो भी हो, उस ग़रीब बेचारे की रूह को सुकून मिले. उसे वो सब रसूमात नसीब हूं जिनकी एक मुसलमान लाश हक़दार होती है. और क़ब्रिस्तान में उसे तीन गज़ ज़मीन मिल जाए.’
जमीला के शौहर को ख़बर मिली तो वो भी बाहर आकर दूसरे लोगों के साथ खड़ा हो गया. हर शख़्स जोश में था, परेशान था. इस्लाम को बचाने की ख़ातिर पवित्र युद्ध का जोश बढ़ता जा रहा था. अंतत: मुतवल्ली ने बोलना शुरू किया, ‘अब हमें अपनी सारी कोशिशें इस पर ख़र्च करनी होंगी कि निसार की लाश को वहां से निकाल कर यहां दफ़न किया जाए. हमें हर तरह की रुकावट का, किसी भी मसले का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए. समझ गए?’
फिर वो दाऊद से मुख़ातिब हुए, ‘और दाऊद, तुम हमारी यूथ कमेटी को भी इसकी ख़बर कर दो. जब वो आ जाएं तो हम साथ चल कर ज़िला कमिश्नर और पुलिस सुपरिंटेंडेंट से मिलेंगे. इस काम को आज ही शुरू कर दें तो अच्छा हो.’ फिर इन्होंने जल्दी से इज़ाफ़ा किया, ‘उनसे ये भी कहना कि किसी चीज़ की फ़िक्र न करें. फ़िलहाल जमात के पास पैसे नहीं हैं, लेकिन उन्हें बताना कि जो भी ख़र्चे होंगे, मैं ख़ुद अदा करूँगा.’
वो जानते थे कि ख़र्च होने वाली रक़म इस मुहिम की वजह से मिलने वाली लोकप्रियता और समर्थन के मुक़ाबले में कुछ भी नहीं है. ये भी था कि मुतवल्ली की हैसियत के मद्दे-नज़र ऐसी बातें कहना बिल्कुल मुनासिब था. पैसा आख़िर जाएगा कहां? अपने तजुर्बे से उन्हें मालूम था कि इस तरह के कामों के लिए रक़म देने के लिए लोग सिर के बल आते हैं. यूथ कमेटी का विश्वास फिर से पाने का ये उन्हें एक बेहतरीन मौक़ा भी लगा, क्योंकि कमेटी पहले उन पर भांति-भांति के इल्ज़ाम लगा कर उनसे दूरी बना चुकी थी.
सब कुछ मुतवल्ली की अपेक्षा के अनुसार हो रहा था. इससे पहले कि वो अपने घर से क़दम बाहर निकालें, जमीला के शौहर ने जेब से ढाई सौ रुपये निकाले और मुतवल्ली के सामने मेज़ पर रख दिए. ‘भैया, अगर आप उन्हें अपने काम के लिए इस्तिमाल करेंगे, तो इस नेकी का बदला मुझे भी मिलेगा. अल्लाह आपको और आप जैसे लोगों को ज़्यादा ताक़त, सेहत और माल-ओ-दौलत से नवाज़े.’ उसने सच्चे दिल से कहा. वो ये महसूस कर रहा था कि जब एक महान ज़िम्मेदारी सामने है तो ये उचित नहीं कि उसकी बीवी जायदाद में हिस्सा मांगे.
पर्दे के पीछे खड़ी जमीला ने अपने शौहर के चेहरे के भाव देखे और सुकून का गहरा सांस लिया. उसने अपने बड़े भाई से जायदाद में हिस्सा सिर्फ़ इसलिए मांगा था कि उसके पति ने उसे मजबूर किया था, इसलिए नहीं कि वो ख़ुद ऐसा चाहती थी. जैसा कि कहावत है, ‘लाठी का वार अगर ख़ाली जाए, तो जीवन हज़ार बरस बढ़े.’ वो ख़ुश थी कि इस मुआमले को यहीं छोड़ा जा सकता है, कम से कम फ़िलहाल.
आरिफ़ा अपने पति पर बहुत गर्व महसूस कर रही थी. इस चिंता में डूबी कि शायद नाश्ता किए बिना ही उन्हें यह हिमालय जैसा बड़ा काम करने न निकलना पड़े, वो उनके लिए फूलों जैसे हल्के फुल्के पराठे बनाने चल दी. मुतवल्ली ने अपनी बहन और उसके पति के बदले हुए रवैये को देखा और ख़ुद ही मुस्कुराए, लेकिन अपनी ख़ुशी ज़ाहिर नहीं होने दी बल्कि चेहरे पर गंभीरता ओढ़ते हुए घर में चले गए, जैसे गहरी सोच में ग़र्क़ हों.
कई नौजवानों को साथ लेकर वो सबसे पहले ज़िला कमिश्नर से मिले. ऐसा करना उनके लिए गर्व की बात थी. ज़िला कमिश्नर एक नौजवान बंगाली ब्राह्मण था जो जवाहरलाल नेहरू यूनीवर्सिटी से पढ़ा था. वो ज़िले के विभिन्न समुदायों के आपसी रिश्तों के अलझेड़ों और भावनात्मक झगड़ों से वाक़िफ़ था जो कभी-कभार सर उभारती रहती हैं. उसने मुतवल्ली की दी हुई दरख़ास्त पढ़ी और सूरत-ए-हाल को समझने की कोशिश करने लगा. अगरचे वो दिल ही दिल में हंस रहा था लेकिन चेहरे पर गंभीरता और गरिमा के भाव लिए बैठा रहा. उसने मुतवल्ली की जोशीली जज़्बाती तक़रीर सुनी और मसले को सुलझाने के लिए उनसे उर्दू में बात करने का फ़ैसला किया.
‘और क्या कुछ नया हो रहा है मुतवल्ली साहिब? आप अपने इलाक़े में नया बोरवेल लगवाने या स्कूल की इमारत की मरम्मत कराने या किसी और काम के लिए मिलने कभी नहीं आए!’
मुतवल्ली ने बीच में ही बात कटी. ‘मैं कामों की फ़ेहरिस्त बनाऊंगा और अगली बार मिलने आऊंगा, स्वामी; फ़िलहाल तो, अगर आप सिर्फ़ एक हुक्मनामा जारी कर सकें, तो बड़ी मेहरबानी होगी.
‘मगर फिर भी मुतवल्ली साहिब, मिट्टी तो हर जगह एक सी है ना? मिट्टी मिट्टी में क्या फ़र्क़ करना?’ उसने लापरवाई से पूछा.
मुतवल्ली के पास कई असंबद्ध जवाब थे. बात को और अधिक तूल न देकर डिप्टी कमिश्नर ने अस्सिटेंट कमिश्नर को ज़िम्मेदारी का हुक्मनामा जारी कर दिया.
पंद्रह दिन गुज़र गए. मुतवल्ली साहिब बिल्कुल नहीं थकते थे, उस वक़्त भी नहीं जब उन्हें एक अफ़्सर से दूसरे अफ़्सर के पास, एक महकमे से दूसरे महकमे में चक्कर लगाने पड़ते. यहां तक कि वो अपने साथ जानेवाले लोगों के लिए कॉफ़ी और स्नैक्स ख़रीदने से भी दरेग़ न करते.
वो इतने अधिक मायूस थे कि उस बदमाश शंकर की ओर से कोई ख़ास विरोध होता नहीं लगता था, फिर भी पुलिस और अहलकारों ने जो देरी कर रखी थी वही कम न थी.
मुतवल्ली सारा दिन अनेक दफ़्तरों के चक्कर लगाते रहते. इसके बाद रात गए तक या तो मस्जिद के आंगन में, या मदीना होटल के बड़े हॉल में, या उनके घर के बरामदे में बैठकर विचार-विमर्श किया जाता. वो विस्तार से समझाते कि वो कितनी भाग दौड़ कर रहे हैं. योजनाएं बनाते कि किस तरह और कब, किन किन अफ़सरों के पंख कतरे जाएं. वो बताते कि किन किन गिरोहों से इस्लाम को कितना ख़तरा है, और नौजवानों को समझाते कि इन समस्याओं को किस तरह प्रभावी तरीक़े से हल किया जा सकता है.
उन्हें क़तई पता न चला कि ये सब करते करते पंद्रह दिन कितनी जल्दी गुज़र गए. सारी जमात निसार की लाश और मुतवल्ली साहिब की कोशिशों के अतिरिक्त किसी विषय पर बात नहीं कर रही थी. औरतें चादरें ओढ़ कर नमाज़ अदा करतीं, और निसार की लाश के लिए दिल की गहराइयों से दुआएं मांगतें कि उसे मुस्लिम क़ब्रिस्तान में दफ़न होना नसीब हो, और उसकी रूह को अबदी सुकून मिले.
इस नेक काम के लिए काफ़ी रक़म भी जमा हो गई थी.
अंतत: निसार की लाश क़ब्र खोद कर निकाल ली गई. मुतवल्ली और उनके साथियों ने सड़ती हुई, विकृत लाश को बिल्कुल नए, कलफ़दार लट्ठे के कफ़न में लपेट दिया जो वो अपने साथ लाए थे. लाश इतनी विकृत थी कि ग़ुसल नहीं दिया जा सकता था, चुनांचे उस पर पवित्र पानी, आब-ए-ज़मज़म छिड़का गया. लोगों को लग रहा था कि सड़ांध के मारे उल्टी हो जाएगी, लेकिन किसी ने अपने चेहरे से ज़ाहिर नहीं होने दिया. पुलिस वालों ने अपनी नाकों पर रूमाल रख लिए. आख़िरकार निसार का जनाज़ा मुतवल्ली और उनके साथियों ने अपने कंधों पर उठाया और जुलूस मुस्लिम क़ब्रिस्तान की तरफ़ रवाना हुआ. शव पर ढेरों इतर छिड़का गया और कफ़न के ऊपर चमेली की कलियों से बनी चादर डाल दी गई ताकि सड़ते हुए गोश्त की बदबू छुप सके. लेकिन चमेली की कोई कली खिली नहीं.
हर फूल की क़िस्मत में कहां नाज़-ए-अरूस
चंद फूल तो खिलते हैं मज़ारों के लिए
जनाज़े के जुलूस को काफ़ी लंबा फ़ासला तय करना था लेकिन लोग भी बड़ी संख्या में जमा थे. ताबूत किसी के कंधे पर एक दो मिनट से ज़्यादा नहीं ठहरा और हाथों-हाथ लिया जाता रहा. जुलूस शहर में से गुज़रा और क़ब्रिस्तान की तरफ़ बढ़ा. क़ब्रिस्तान अब सामने ही था, शहर के सिरे पर. कोई दस क़दम बाक़ी थे तभी एक आदमी लड़खड़ाता हुआ नमूदार हुआ जो चीख़-चीख़ ऊंची आवाज़ में, बेहूदगी से गालियां बक रहा था, मानो सूरत-ए-हाल की सारी गंभीरता और उदासी को चकनाचूर करने का इरादा रखता हो.
मुतवल्ली ने इस वक़्त जनाज़े को कंधा दे रखा था. जिस पल उन्होंने उस शख़्स को देखा तो दंग रह गए. उनका रंग किसी मुर्दे की तरह पीला पड़ गया. जुलूस में शामिल कई दूसरे लोगों का भी यही हाल हुआ. उनके क़दम वहीं थम गए. सबके गले सूख गए. उस आदमी ने ज़ोर से कुछ और गालियां बरसाईं, और लड़खड़ाता हुआ एक छोटी सी गली में दाख़िल हो गया.
सबसे पहले होश में आने वाले मुतवल्ली ही थे. उन्होंने पुलिस के अहलकारों की तरफ़ देखा, जो इस बात को यक़ीनी बनाने के लिए जुलूस के साथ चल रहे थे कि कोई अप्रिय बात न हो, और तुरंत सतर्क हो गए. जुलूस को रुकते देखकर एक पुलिस वाला शराबी को धमकाने के लिए लाठी उठाए आगे बढ़ा. मुतवल्ली ने आहिस्ता से क़दम आगे बढ़ाया. जमात ने पैरवी की. मुतवल्ली साहिब की टांगें कांपने लगीं. कोई आगे बढ़ा और सिरहाने की ओर से ताबूत को अपने कंधे पर ले लिया. मुतवल्ली साहिब ने अपना रूमाल निकाला और चेहरे से टपकता पसीना साफ़ किया. उन्होंने दाऊद को घूर कर देखा जिसने सर झुका कर नज़रें नीची कर लीं. बहुत से लोग आंखों ही आंखों में बात कर रहे थे. कोई कुछ नहीं बोला, बल्कि लंबे-लंबे डग भरते हुए क़ब्रिस्तान में दाख़िल हो गए.
पुलिस के अहलकार बाहर खड़े रहे और लाश को मुस्लिम क़ब्रिस्तान में दफ़नाया जाने लगा. मुतवल्ली के सर के नसें फटने को तैयार थीं. आख़िर किस की लाश थी जिसे वो दफ़ना रहे थे?
उन्हें क़तई शक नहीं था कि वो शराबी निसार पेंटर ही था. उन्हें दाऊद और पेंटर की बीवी पर इतना ग़ुस्सा आ रहा था कि बस चलता तो उनका क़ीमा कर देते. लेकिन राहत की बात ये थी कि जमात के बहुत से लोग अगरचे निसार को पहचान गए थे लेकिन किसी ने भी पुलिस को इत्तिला नहीं दी. सबने उनकी इज़्ज़त बचा ली थी. लेकिन ये सुकून पल भर में हवा हो गया. काएं-काएं का विलाप करते हज़ारों कव्वे उनका दिमाग़ नोचने लगे. क्या ये हिंदू की लाश थी? या मुसलमान की? लाश इतनी सड़ गई थी कि पहचानी नहीं की जा सकती थी. उसे यहां मिट्टी में मिलना चाहिए, या वहां?
लोग जल्दी-जल्दी क़ब्र पर मिट्टी डाल रहे थे. दफ़नाने की प्रक्रिया पूरी होने का इंतिज़ार किए बिना वो घर की तरफ़ भागे. वो बिल्कुल तन्हा थे, लेकिन कव्वे साथ थे, जो चीख़-चीख़ कर ठोंगें मार-मार कर उन्हें मार डालने की कोशिश कर रहे थे.
थकन से चूर वो घर में दाख़िल हुए और ड्राइंगरूम में ही बैठ गए. कई मिनट तक जब आरिफ़ा नज़र न आई तो उन्होंने बेचैनी से आवाज़ दी, ‘आरिफ़ा! एक गिलास पानी तो ला दो.’
आरिफ़ा के बजाए उन्होंने अपनी बेटी को बाहर आते देखा और पूछा, ‘आज स्कूल नहीं गईं?’
‘अम्मां घर पर नहीं हैं, ना. इसीलिए मैं घर पर रुक गई थी.’
‘घर पर नहीं है? कहां चली गई?’
लड़की ने आंखों पर से, जो रोते-रोते लाल हो चुकी थीं, अपनी झुकी हुई पलकें उठाते हुए जवाब दिया, ‘अंसार बहुत बीमार है, अप्पा. अम्मा हस्पताल में उसी के साथ हैं.’
‘हैं? क्या कह रही हो? कौन बीमार है? कब से? क्या बीमारी है?’
सवालों की बौछार पर जवाब में लड़की की आंखों से आंसुओं के मोटे-मोटे क़तरे टपकने लगे.
‘अंसार को पंद्रह बीस दिन से तेज़ बुख़ार था ना! डाक्टर कह रहा था दिमाग़ की कोई बीमारी है. बीमारी का नाम शायद मैनिंजाइटिस है. गर्दन तोड़ बुख़ार.’ वो बेक़ाबू होकर रोने लगी.
पानी का गिलास फिसल कर मुतवल्ली साहिब के हाथ से गिर पड़ा.
आवाज़ें फिर से उनके कानों में धीरे-धीरे सर उभारने लगीं. अन्ना, मेरे हिस्से की जायदाद… अन्ना, मेहरबानी करके इस ग़रीब बेवा की मदद कीजे… माई बाप, मेरी बेटी की शादी के लिए क़र्ज़ा दीजिए.. हक़दार तरसे तो अंगार का मेंह बरसे… आग की बारिश, कव्वे.. काले, सुरमई… और उनसे झांकती धनक…
(मूलतः कन्नड़ भाषा में रचित इस कहानी का अंग्रेज़ी अनुवाद दीपा भास्ती द्वारा और अंग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद प्रोफ़ेसर अर्जुमंद आरा (उर्दू विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय) द्वारा किया गया है.)
फोटो और कहानी द वायर हिंदी से साभार