कविता
भीख
बलदेव सिंह महरोक
सिर्फ द्वार-द्वार जाकर
हाथ पसार कर
मांगना ही भीख नहीं होता
मुफ्त में बांटा जाता है
जब राशन किसी को
उन्हें गरीब समझ कर
तो वह भीख ही होता है
वर्दी, कपड़े, किताबें
मुफ्त में देही है जब
कोई सरकार
बच्चों को
तो वह भीख ही होता है
जो कराता है उनको
भिखारी होने का अहसास
बनाकर लुभावनी राष्ट्रीय योजनाएं
जो होती हैं राष्ट्रीय भीख योजनाएं
आप का हक छीन कर
आप का श्रम लूट कर
आप की ही रोटी
फेंक दी जाती है आपकी ओर
जब देता है कोई भीख
तो खरीद लिया जाता है उसे
बन जाता है वह बंधुआ
लटका दिया जाता है आपके गले में
गुलामी का पट्टा
जो आपको दिखता नहीं
कुंद कर दिया जाता है आपका मस्तिष्क
जंग लग जाता है जिसे
बना दिया जाता है नाकाम
चीन ली जाती है
आपकी निर्णयन शक्ति
छीन लिया जाता है आपके हाथ से
आपका हुनर
और आपके काम करने की ताकत
बना दिया जाता है आपको
अपाहिज
और मोहताज
आपके मजबूत हाथ
जो बने हैं काम करने के लिए
न कि पसारने के लिए
छीन लिया जाता है आपका स्वाभिमान
चंद सिक्कों के बदले
बेहतर होता है घास का एक तिनका भी
जो मांगता नहीं है गिड़गिड़ा कर
छीन लेता है आपका हक
चट्टान तोड़ कर
पर रखता है अपने स्वाभिमान को
जिंदा
हम जो हैं इस धरती के पुत्र
हवा,पानी, धूप मिट्टी और
रोटी के बराबर के हकदार
हम इतने निकम्मे तो नहीं है।
(बात है पर छोटी सी संग्रह से)
