हरियाणाः जूझते जुझारू लोग-19
बाबूराम गुप्ताः हर अन्याय के खिलाफ मजबूत योद्धा
सत्यपाल सिवाच
बाबूराम गुप्ता ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय और सर्वकर्मचारी संघ के नेता के रूप में ऐसा नाम कमाया जिसे अगली पीढ़ियां भी याद रखेंगी। उनका जन्म 11 अगस्त 1940 को उत्तरप्रदेश के कानपुर में श्रीमती रामकली और श्री बन्दीदीन गुप्ता के घर में हुआ। वे दो भाई बहनों के साथ संयुक्त परिवार में पले। एक दिसंबर 1962 को विश्वविद्यालय में स्टेनोग्राफर के पद नियुक्त हुए। यहीं रहते हुए एम.ए. राजनीति शास्त्र और प्राचीन इतिहास, संस्कृति व पुरातत्व उपाधि प्राप्त की। सन 2000 में 31 अगस्त को सेवानिवृत्ति के उपरांत प्रोफेसर कालोनी, कुरुक्षेत्र में ही रहते हैं। उन्होंने बताया कि पत्नी और बच्चों ने कभी मेरे निर्णयों से असहमति नहीं दिखाई। उसी भरोसे की वजह से वे खराब हालात में भी साथ खड़े रहे। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में कर्मचारी आन्दोलन को संगठित करने और बड़े बड़े संघर्ष लड़ने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उनके जीवन और ट्रेड यूनियन संघर्ष के बारे में बात करते हैं।
जब सन् 1980 में मेरी नियुक्ति गवर्नमेंट हायर सेकेंडरी स्कूल कुरुक्षेत्र में हुई तो विश्वविद्यालय में छात्रों, कर्मचारियों और शिक्षकों से संपर्क बना। बाबूराम गुप्ता जी से पहली मुलाकात ऐसे आकस्मिक रूप से हुई थी। मैं एक रिश्तेदार से मिलने दफ्तर में गया और वहाँ यूनियन के बारे में जानकारियां लेने लगा तो उन्होंने बाबूराम गुप्ता, भीमसिंह सैनी और आजादसिंह कादयान से मुलाकात करवा दी। उसके बाद तो मेरा नॉन-टीचिंग स्ट़ॉफ के अनेक नेताओं से नियमित मिलना-जुलना बना रहा। सन् 1981 में छात्रों और कर्मचारियों दोनों के ही आन्दोलन चले। मैं उनकी गतिविधियों में शामिल हो जाता। एक तरह से अनौपचारिक रूप से उनसे लगाव हो गया था।
वहाँ रहते मैंने महसूस किया कि बाबूराम गुप्ता में अन्याय के खिलाफ लड़ने का काफी हौसला था। साथ कुंटिया की जनतांत्रिक कार्यप्रणाली अपने आप में बड़ी ताकत थी। हर महत्वपूर्ण निर्णय को लंच समय पर कर्मचारियों की आम सभा की स्वीकृति के बाद ही अंतिम माना जाता था। इसके लिए बाकायदा तैयारी की जाती थी। इस प्रणाली ने जवाबदेह नेताओं की पूरी टीम तैयार कर दी थी। इसके चलते समस्त कर्मचारी संघर्ष के लिए संकल्पबद्ध हो जाते थे। मैं समझता हूँ कि इसी ताकत के बल पर 1979 से 1986 तक थोड़े थोड़े अन्तराल के बाद निर्णायक लड़ाइयां लड़ी गईं।
बाबू राम गुप्ता विश्वविद्यालय में नॉन-टीचिंग इम्प्लाइज को संगठित करने वाले शुरुआती लोगों में शामिल थे और लम्बे समय तक कुंटिया (KUNTEA) के अध्यक्ष रहे। सर्वकर्मचारी संघ बनने पर पहली एक्शन कमेटी का सदस्य बने। बाद में वरिष्ठ उपप्रधान और उपप्रधान रहे। उन्हें कई बार निलंबन, बर्खास्तगी और जेल जैसी यातनाएं दी गईं। उनका मानना है कि अन्याय के खिलाफ लड़ने की प्रवृत्ति बचपन से ही थी। विश्वविद्यालय में कर्मचारियों के साथ होते अन्याय को देखकर तथा न्यायोचित हितों की रक्षा की भावना ने संगठन बनाने के लिए प्रेरित किया। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में वर्षों तक लगातार आन्दोलन रहे। प्रशासन को कर्मचारियों का विरोध अखरता था। जिसके चलते मुझे 1979 में 72 दिन, 1981 में 40 दिन, 1986 में 75 दिन, 1989 में 7 दिन, 1991 में 10 दिन और 1993 में 4 दिन के लिए निलम्बित किया गया। इस अरसे में जेल में बंद रहा। सन् 1987 में मुझे 311(2) ए.बी.सी. के तहत नौकरी से निकाल दिया गया था। हर बार आन्दोलन के समझौते के साथ बहाल कर दिया गया। वे बाहर से आन्दोलन के लिए मदद जुटाने में एफसीआई के नेता ओमसिंह के योगदान को विशेष रूप से याद करते हैं।
संभवतः अधिकतर कर्मचारी जानते हैं कि यूनिवर्सिटी कर्मचारियों के आन्दोलन के दौरान छात्रों और बाहर के कर्मचारियों के समर्थन के कारण जो माहौल बना उसी से सर्वकर्मचारी संघ के गठन की स्थिति पैदा हुई। इसी आन्दोलन में एस.एफ.आई. के राज्याध्यक्ष जसवीर सिंह की प्रशासन पोषित गुण्डों द्वारा हत्या से बहुत आक्रोश फैल गया था। गुप्ता जी मानते हैं कि हमारी यूनियन के लिए कर्मचारियों व छात्रों का एकजुट होना वरदान था। संघ के गठन से पहले ही हमें बाहर के कर्मचारियों से अच्छी मदद मिली। उसके चलते हम सर्वकर्मचारी संघ के संस्थापक सदस्यों में शामिल हुए। बाद के अनुभव भी अच्छे रहे। वे बहुत ईमानदारी और साफगोई से मानते हैं कि बाद के दौर में दो-तीन लोगों उनके कंधे पर बंदूक रखकर गोली चलाई और सर्वकर्मचारी संघ से अलग कर दिया। इस भूल का अहसास होने पर उन्होंने उसे ठीक भी कर लिया और आज भी उन्हें सर्वकर्मचारी संघ के संघर्षों पर गर्व है।
संघर्षों में अग्रणी होने के कारण उनके अनेक बड़े नेताओं से निजी संपर्क भी बने जिनमें चौधरी देवीलाल, ओमप्रकाश चौटाला, कामरेड हरकिशन सिंह सुरजीत, बी.टी. रणदिवे, ई. बालानंदन, सुकोमल सेन, कामरेड रघुवीर सिंह हुड्डा, पृथ्वीसिंह गोरखपुरिया, डॉक्टर हरनाम सिंह, श्रद्धानंद सोलंकी, कृष्णस्वरूप, अशोक अरोड़ा आदि से काफी निकट संपर्क रहे। कभी किसी नेता से निजी काम नहीं लिया। इसी तरह कई नौकरशाहों से भी सम्बन्ध रहा। मुख्य सचिव भांभरी, एल. सी. गुप्ता, डी. डी. कश्यप, डीआईजी रणबीर सिंह, ज्योति अरोड़ा आदि अनेक अधिकारियों के संपर्क में आए। अधिकतर ऐसा मानते थे कि हमारा आन्दोलन सही है।
कर्मचारियों के लिए सलाह
आजकल के कार्यकर्ताओं के लिए उनकी सलाह है कि स्थिति बदल चुकी है। हमले ज्यादा हैं। संगठन बनाने और आन्दोलन खड़े करने के लिए ज्यादा मेहनत की जरूरत है। साथी अन्याय को सहन न करें। हौसले और ईमानदारी से लड़ें। अन्त में सच्चाई की जीत होती है। हालात अलग हैं तो अन्तर तो होगा ही। दो बात खासकर कहना चाहता हूँ। पहले आपस में टांग खिंचाई नहीं थी जो आजकल आम बात है। दूसरे, अब उत्पीड़न नहीं है जो जुझारू संघर्षों की अनुपस्थिति का संकेत हो सकता है। सौजन्यः ओम सिंह अशफ़ाक
सत्यपाल सिवाच