राजरानी की स्मृति सभा में बलवंत सिंह, वजीर सिंह व अन्य । फोटो – लेखक
हरियाणाः जूझते जुझारू लोग -29
राजरानीः अतिथि शिक्षकों के हित में सीने पर गोली खा ली
युवा अध्यापिका के बलिदान ने शासन को हिला दिया
सत्यपाल सिवाच
7 सितम्बर 2008 – वह दिन भुलाए भी नहीं भूलता। मैं उन दिनों हरियाणा राजकीय अध्यापक संघ का अध्यक्ष था। भिवानी जिला कार्यकारिणी की बैठक के बाद बस से जीन्द लौट रहा था। मुंढाल के पास पहुंचा तो महताब सिंह का फोन आया – “रोहतक में अतिथि शिक्षकों के प्रदर्शन पर पुलिस ने गोलियां चला दीं। तीन-चार शिक्षकों के मारे जाने की खबर है।” मैंने उन्हें सलाह दी – “किराए पर गाड़ी मंगा लो। कुछ कार्यकर्ताओं को भी बुला लो और बस स्टैंड के बाहर तैयार मिलना। रोहतक चलेंगे।”
खैर, हम सात बजे रोहतक मेडिकल परिसर में पहुंचे तो दृश्य बहुत तनावपूर्ण था। चारों ओर पुलिस ही पुलिस, मानो अस्पताल नहीं, छावनी हो।त्रस्त और घायल इधर-उधर भटकते हुए अतिथि शिक्षक, कि कहीं गिरफ्तारी न हो जाए। इमरजेंसी में कराहते टीचर ; कोई मरहम पट्टी तक नहीं। डॉक्टर कह रहे दुकान से दवा और पट्टी लाओ। लाने वाला कोई नहीं।
बाहर एक ओर डी सी आर. एस. दून और एसएसपी आपस में मंत्रणा में व्यस्त। स्थिति का पूरा जायजा लेने के बाद हमने उनसे जवाबदेही पूछी। उनसे पूछा – क्या यही कानून व्यवस्था का पालन है? गोलियां चलवाना ही आता है या संभालना भी आपकी जिम्मेदारी है? अभी धरपकड़ क्यों चल रही है? घायलों से दवाएं क्यों मंगाई जा रही हैं? खैर, हमारे हस्तक्षेप के बाद ईलाज शुरू हो गया। पुलिस शांत होकर एक तरफ हो गई। वहाँ पहुंचते ही पता लग गया था कि एक बेटी राजरानी की हमारे बीच नहीं रही। उन्होंने बहुत बहादुरी से सीने पर गोली खाई है। पुलिस ललकार से डरी नहीं बल्कि वीरांगना की तरह शहादत दी।
यकीनन बेटी राजरानी ने शिक्षक आन्दोलन के लड़ाकों में शिरोमणि स्थान हासिल कर लिया था। बड़े-बड़े नेता उनके सामने छोटे पड़ गए थे। आज भी याद करता हूँ तो सीना गर्व से तन जाता है। राज्य के तमाम गेस्ट टीचर्स उनके बलिदान की बदौलत आगे बढ़े संघर्षों के चलते सेवा में बने हुए हैं। उन्होंने बहुत कुछ हासिल भी किया है। शिक्षक आन्दोलन का चमकता सितारा बनीं राजरानी 10 जनवरी 1981 को पिल्लूखेड़ा गांव निवासी शिक्षक रणधीर सिंह और शिक्षिका बिमला देवी के घर जन्मीं। तब शायद माता पिता ने सोचा भी नहीं होगा कि बेटी का संग थोड़े समय तक रहेगा, लेकिन अल्पकाल में ही बड़ा नाम अर्जित करेगी।
प्राथमिक शिक्षा गांव में प्राप्त करने के बाद राजरानी नवोदय विद्यालय खूंगाकोठी में पढ़ी जहाँ से उसने दस+दो कक्षा उत्तीर्ण की। वे बचपन से कुशाग्र बुद्धि रहीं। हिन्दू कन्या महाविद्यालय जीन्द स्नातक करने के बाद राजकीय महाविद्यालय जीन्द से अर्थशास्त्र में एम.ए. की उपाधि ली। उन्होंने 17 अगस्त 2007 को राजकीय कन्या वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय शामलोकलां (जीन्द) में अतिथि शिक्षक के रूप में प्राध्यापक अर्थशास्त्र पद पर कार्य प्रारंभ किया।
राजरानी के पिता जी भी अध्यापक आन्दोलन में सक्रिय थे। उनसे प्रेरित होकर वह भी अतिथि शिक्षकों और अध्यापक संघ के सभी कार्यक्रमों में हिस्सा लेने लगीं। राजरानी को इस बात की बहुत पीड़ा थी कि योग्यता पूरी होते हुए भी हमें अतिथि कहकर नाममात्र के भुगतान पर क्यों रखा गया है? योग्यता वही, काम पूरा तो पूरा वेतन क्यों नहीं? पक्की नौकरी क्यों नहीं? इसी पीड़ा ने उन्हें अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने के लिए प्रेरित किया था।
राजरानी चाहती थीं कि अतिथि शिक्षक हरियाणा राजकीय अध्यापक संघ और नियमित शिक्षकों को साथ लेकर लड़ें, लेकिन अतिथि शिक्षकों के तत्कालीन अगुवा शिक्षा मंत्री मांगेराम गुप्ता बातों में फंस गए और जानबूझकर संगठित ढंग से अलग होने का ऐलान करके सरकार की राह आसान कर दी। उसका खामियाजा आज तक भी भुगत रहे हैं। फिर भी जैसा नेतृत्व चाहता था और साथ ही अध्यापक संघ ने समर्थन जारी रखा तो राजरानी आन्दोलन में सक्रिय रहीं।
अतिथि शिक्षकों ने सात सितम्बर को रोहतक रैली करके तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा को ज्ञापन देने की योजना बनाई थी। लोकतांत्रिक व्यवस्था में शासन को इतना सा नागरिक अधिकार देना भी मंजूर नहीं है। जैसे ही छोटूराम स्टेडियम से निकलकर जुलूस शीला बाईपास चौक पहुंचा, भारी पुलिस बल ने रास्ता रोक दिया और आगे न बढ़ने की चेतावनी दी। राज्य नेता और महिलाएं अगली कतार में थे। पुलिस ने निरोधक कार्रवाई के बिना पहले लाठीचार्ज और कुछ ही पल भर में गोलियां चलानी शुरू कर दी। भगदड़ मच गयी, लेकिन राजरानी नहीं हटीं, बेरहम पुलिस ने अपने जघन्य अपराध की परवाह किए बिना गोली दाग दी जो राजरानी के सीने में लगी और उसी से हरियाणा की एक होनहार बेटी की जीवन यात्रा युवावस्था में पूरा हो गया।
हमारे राज्य का यह पहला वाकया था जब किसी महिला की मौत पुलिस की गोली से हुई। प्रशासन के हाथ-पांव फूल गए। डी सी व एस एस पी दोनों मौके पर थे। उन्हें अपनी गैर जिम्मेदारी पर शर्म नहीं आई। अब मामले को दबाने की इच्छा से परिवार को मना कर रात के अंधेरे में पोस्टमार्टम करवाकर दाह संस्कार करवाने की योजना बनाने लगे। इसकी भनक हमें पड़ी तो हमने शवगृह के बाहर पहरा बैठा दिया और डी सी को साफ शब्दों में चेतावनी दी कि यदि गैरकानूनी तरीके से रात को पोस्टमार्टम किया गया तो नतीजे भुगतने के लिए तैयार रहना। पूरे राज्य में आक्रोश फैल गया था।
पुलिस अधीक्षक कह रहे थे कि गोली भीड़ की ओर से चलाई गई। हम अड़ गए पोस्टमार्टम की वीडियोग्राफी होनी चाहिये। जब कोई रास्ता नहीं बना तो वीडियोग्राफी हुई। गोली पुलिस की ही मिली। हमारे पहुंचने पर जो अतिथि शिक्षक गिरफ्तारी के भय इधर-उधर थे सभी सामने आ गए। अगले दिन पोस्टमार्टम से पहले हजारों का हुजूम उमड़ आया था। दाहसंस्कार के बाद राज्य भर में दो सौ से अधिक जगह प्रदर्शन हुए। अगले ही दिन जीन्द में सौ से अधिक संगठनों के नेता समर्थन के लिए आए। दुर्भाग्य से तत्कालीन अतिथि नेतृत्व मंत्री रणदीप सूरजेवाला की बातों में आकर सरकार से रजामंदी की तहरीर लिख आया। उससे पहले सरकार दबाव में थी। मुख्यमंत्री कार्यालय और डी सी बार बार हमें संपर्क कर रहे थे। राजरानी की शहादत सभी अतिथियों को नियमित शिक्षक बना सकती थी। दूसरी बार रणनीतिक भूल हुई।
जो हो चुका वह वापस नहीं आ सकता। आज भी तमाम अतिथि शिक्षक राजरानी के बलिदान को याद करते हैं। सभी जिलों में सात सितम्बर को शहादत दिवस मनाया जाता है। राजरानी यादगार समिति की ओर से होनहार छात्राओं को पुरस्कृत किया जाता है ताकि लड़कियों की शिक्षा को प्रोत्साहन मिले। हमें अपनी वीरांगना बेटी के बलिदान से प्रेरणा लेते हुए न्याय के संघर्ष को आगे बढ़ाते जाने का पुनर्संकल्प करते हैं। (सौजन्य: ओम सिंह अशफ़ाक)

लेखक: सत्यपाल सिवाच
