कविता
तुम और तुम्हारी याद
दीपक वोहरा
जब तुम पास नहीं होती
तो तुम्हारी याद
चली आती है
जैसे तुम्हारी मुस्कान
किसी पुरानी डायरी में
गुलाब के फूल सी रखी हो
जब भी मैं खोलता हूँ डायरी
तुम्हारी याद की महक से
महकने लगता हूँ
तुम
एक मीठी प्यास हो
न जाने कितने का ख़्वाब हो
रात जब खेत सो जाते हैं
और चूल्हे ठंडे हो जाते हैं
चांद बादलों में
कर रहा होता है अठखेलियां
तारें मुस्करा रहे होते हैं
तब तुम्हारी याद
कंधे पर रखकर हाथ
चुपचाप बैठ जाती है मेरे पास
एक दिन तुम पूछोगी
क्यों इतना प्यार करता हूँ?
मुझे भी नहीं पता
क्यों मैं तुमसे
हद से ज्यादा प्यार करने लगा हूँ
तुम बस चली आती हो
अक्सर मेरे ख्यालों में
चाय के प्यालों में
रोटी में
किताबों में
मेरी कविताओं में
गीतों में
कल फिर आयीं थी तुम
चुपचाप
खड़ी थी मेरे पास
तुम कुछ कहती थी
मैं कुछ सुनता था
मैं कुछ कहता था
तुम हँस देती थी
मैं डरता हूँ कभी कभी
कि तुम बस एक ख़्वाब हो
या फिर हकीकत
या फिर कोई पुरानी कविता
जो अब तक अधुरी है
तुम अभी भी
यहीं कहीं हो
मेरे पास
जैसे हवा मिट्टी
जैसे धूप बरसात
जैसे वो सुंदर गीत
जिसे मैं अभी तक
लिख नहीं पाया।