सभी नाराज़ हो जाते हैं !
– मंजुल भारद्वाज
हम सब में पाखंड
रोम रोम में बसा ह
जो सत्य सुनकर नाराज़ हो जाता है
और झूठ से फूले नहीं समाता
यही मूल विडंबना है मनुष्य की !
पहली बानगी
धर्म आदिकाल से चला आ रहा
सत्ता का रूप है
इस सत्ता को चलाने वाले
मानने वाले खुद को
हिंदू ,मुसलमान,ईसाई कहते हैं
इनसे पूछो तो यह कहते हैं
धर्म इनकी मुक्ति का मार्ग है
धर्म इनको इंसान बनाता है
इनसे पूछ लो
जब धर्म इंसान बनाता है तो
धर्म के नाम पर कितने युद्ध हुए?
उनमें कितने लोग मारे गए?
रोज़ धर्म के नाम पर कितने फसाद होते हैं?
उनमें अनगिनत लोग मारे जाते है!
ये मारे जाने वाले कौन है ?
इनको मारने वाला कौन है?
धर्म इंसान बनाता तो
दुनिया में कभी हिंसा नहीं होती
दुनिया अहिंसा से चलती
पर धर्म सत्ता है
और
सत्ता साम,दाम दण्ड ,भेद से चलती है !
यह सुनते ही धर्म को मानने वाले
नाराज़ हो जाते हैं
कुछ मारने की धमकी देते है
चंद मारपीट करते हैं
कई फांसी चढ़ा देते हैं
पर
सच स्वीकार नहीं करते!
दूसरी बानगी है
वर्णवाद को संस्कृति मानने वालों की
वर्णवाद मूलत:
मनुष्य और प्रकृति विरोधी है
समता,न्याय विरोधी है
वर्चस्वादवाद और भेद का पैरोकार है
वर्णवाद संस्कृति नहीं विकृति है
जो इंसान और इंसानियत को
जात के कीचड़ में धकेलती है
इस कीचड़ में लिपट कर मनुष्य
दूसरे मनुष्य का रक्त पीता है
इस सच को सुनकर
वर्णवादी नाराज हो जाते हैं
संस्कृति द्रोही कहते हैं
पर
सच स्वीकार नहीं करते !
तीसरी बानगी है
रंग और नस्ल भेद की
रंग और नस्ल भेद को मानने वाले
विविधता के शत्रु हैं !
प्रकृति का मूल है विविधता !
श्रेष्ठता के न्यूनगंड से पीड़ित हैं
रंग और नस्ल भेद के उपासक
इसलिए आज भी
गौरी त्वचा बनाने वाली क्रीम
खूब बिकती है
रंग और नस्ल भेद का न्यूनगंड
मनुष्य को दास बनाता है
दासता कलंक है मनुष्यता पर
इस सच से मुंह मोड़ लेते हैं
रंग और नस्ल भेद पर खड़े साम्राज्य!
चौथी बानगी है
अमीर और गरीब का भेद
एक अकूत धन का मालिक है
दूसरा एक एक निवाले का मोहताज़
धनकुबेर अपनी लूट को भाग्य का नाम देता है
भूखा अपनी किस्मत को कोसता है
शोषक और शोषित एक दूसरे को
मनुष्य के रूप में नहीं देखते
मालिक और सेवक मानते हैं
क्यों भूख से मरते हैं लोग?
क्योंकि अमीर उन्हें मारते हैं!
क्यों भूखे बगावत नहीं करते
क्योंकि वो दो वक्त की रोटी
और
किस्मत के चक्रव्यूह को भेद नहीं पाते !
सदियों पिसते रहते हैं गरीबी की चक्की में!
पांचवीं बानगी
महिला – पुरुष का भेद
पितृसत्ता का खेल
पूरी सभ्यता प्रकृति विरोधी है
पूरी दुनिया में संतान और संपत्ति पर
बाप का नाम लिखा है
जबकि संतान मां और बाप की साझी होती है
पर हुकूमत पुरुष की
यह चक्रव्यूह कोई भेद नहीं पाया
पुत्र मोह में
करोड़ों कन्याभूर्ण गर्भ से गिराए जाते हैं
कानून प्रतिबंधित होने के बावजूद
पर इन नरसंहारकों कोई नहीं सजा देता
महिला इंसान नहीं
सिर्फ़ एक वस्तु है इस व्यवस्था में
पितृसत्तात्मक संस्कार, संस्कृति की खेवनहार है
बड़ी त्रासदी है यह मनुष्यता की
मां को पूजने वाले भेड़िए
उसी का जिस्म नोचते हैं !
इस सच को झुठलाने के लिए
वो चंद महिलाओं के पढ़ी लिखी
सत्ता के शीर्ष तक पहुंचने की दुहाई देते हैं
ज्यादा कुरेदो तो
महिला ही महिला की दुश्मन है का
अमोघ पितृसत्तात्मक अस्त्र चला देते हैं
पर इस सच को स्वीकार नहीं करते कि
महिला भी पितृसत्तात्मक होती हैं
जो महिला पितृसत्तात्मक सोच से मुक्त होती है
उसे पितृसत्ता के ठेकेदार मार देते हैं !
गज़ब है हर पुरुष
इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था का शिकार है
बाप,भाई,पति बनकर
इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था में लुटता रहता है
पर इसका विरोध नहीं करता!
हां नारी शक्ति के
महिमा मंडन के लिए
नौ दिन पाखंड करता है
उसे अवतार मानता है
पूजता है
पांव पड़ता है
पर व्यवस्था नहीं बदलता
बाकी दिन भेड़िए
पूजे हुए जिस्म को नोचते रहते हैं
मीडिया की भाषा में उसे बलात्कार या दुष्कर्म कहते हैं!
हां सच कोई नहीं सुनता
सब नाराज हो जाते हैं
सच बोलने वालों को
ज़हर पिला देते हैं
या सलीब पर चढ़ा देते हैं
पर सच वक्त के नक्कारे पर
ताल ठोकता रहता है
सच अपने आप बोलता रहता हैं!
यह कविता “सभी नाराज़ हो जाते हैं” एक निर्भीक सामाजिक घोषणापत्र है। मंजुल भारद्वाज ने इसमें धर्म, वर्णव्यवस्था, नस्लभेद, आर्थिक शोषण और पितृसत्ता जैसे पाँच बड़े स्तंभों को सीधी चुनौती दी है।
दार्शनिक दृष्टि से यह रचना मनुष्य की मूल विडंबना को उजागर करती है – कि जो व्यवस्था उसे इंसान बनाने का दावा करती है, वही उसे हिंसक, विभाजित और पराधीन बनाती है। कवि ने सत्य के प्रति मनुष्य के असहिष्णु व्यवहार को बेनकाब करते हुए यह कहा है कि सत्ता और पाखंड मिलकर मनुष्य को उसकी नैतिक चेतना से वंचित कर देते हैं।
भाषा में प्रतिरोध और आक्रोश है, परंतु यह केवल विद्रोह नहीं, बल्कि संरचनात्मक चिंतन है। यह कविता पाठक को अपनी जड़ों तक झकझोरती है और आत्ममंथन के लिए विवश करती है। आलोचनात्मक दृष्टि से यह रचना विचारोत्तेजक, स्पष्ट और समय से संवाद करने वाली है।
संक्षेप में – यह कविता मनुष्यता के सामने रखा गया नैतिक आईना है, जो न केवल प्रश्न पूछती है बल्कि जागरण का आह्वान भी करती है।
धन्यवाद।