एस.पी. सिंह की ग़ज़ल- मुल्तवी कर दूं

एस.पी. सिंह की ग़ज़ल- मुल्तवी कर दूं

 

रदीफ़: “मुल्तवी कर दूं”

क़ाफ़िया: मुलाक़ात, सौग़ात, बारात, जज़्बात, ताबात, बरसात, तन्हाई, अदावत, आघात, हयात

 

#मतला:

मुझे आख़िरी बार मिलना है तुमसे बिछड़ने के वास्ते,

मुझे दिल ने कहा मौत तक मुलाक़ात मुल्तवी कर दूं।

 

तेरी याद के साए में हर रात तड़पता रहा,

सोचा इश्क़ की ये जानलेवा सौग़ात मुल्तवी कर दूं।

 

तेरे नाम से सजती हैं अब तक मेरी हर दुआ,

मैं अपनी दुआओं की ये बारात मुल्तवी कर दूं।

 

वो ख़ुशबू जो तेरे सांस से होकर गुजरती रही,

मैं चाहूँ तो सारी हवाओं की हर जज़्बात मुल्तवी कर दूं।

 

तेरे हाथ की गर्मी में जो ठहरी थी मेरी धड़कन,

उसी धड़कन की हर रूहानी ताबात मुल्तवी कर दूं।

 

तेरे क़दमों की आहट से जो रौशन थे मेरे ख़्वाब,

मैं चाहूँ तो उन सब ख़्वाबों की हर बरसात मुल्तवी कर दूं।

 

तेरे ग़म के सहारे ही मेरी तन्हाई सजती है,

अगर कह दे तो अपनी ये तन्हाई मुल्तवी कर दूं।

 

तेरे शहर की गलियों से जो नफ़रत नहीं जाती,

मैं चाहूँ तो अपनी तमाम अदावत मुल्तवी कर दूं।

 

गुज़रे लम्हों की राख से जला है ये दिल मगर,

मैं चाहूँ तो अपनी तमाम आघात मुल्तवी कर दूं।

 

तेरे हिज्र के मौसम में ही सांसें ये ठहरी हैं,

अगर चाहूँ तो अपनी हर हयात मुल्तवी कर दूं।

 

#मक़्ता:

“बेबाक” अभी तुझसे मेरी रूह का रिश्ता बाकी है,

चाहूँ तो ज़िंदगी भर की हर मुलाक़ात मुल्तवी कर दूं।

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अहम शब्दों के मायने

 

वास्ते हेतु, कारण, मक़सद

मुलाक़ात भेंट, मिलन

मुल्तवी स्थगित करना, टालना

साए छाया, परछाई

इश्क़ प्रेम, मोहब्बत

सौग़ात तोहफ़ा, भेंट

बारात यहाँ रूपक में, दुआओं की शोभायात्रा

जज़्बात भावनाएँ, एहसास

रूहानी आत्मिक, आध्यात्मिक

ताबात तापमान, गर्माहट (यहाँ धड़कन की गूंज)

ख़्वाब सपना

बरसात वर्षा, भावनाओं की वर्षा

ग़म दुख

तन्हाई एकांत

अदावत शत्रुता, वैर

आघात चोट, पीड़ा

हिज्र जुदाई, वियोग

हयात जीवन

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तकनीकी विवेचना

मतला: पहला शेर जिसमें दोनों मिसरों में रदीफ़-क़ाफ़िया आता है।

मक़्ता: अंतिम शेर जिसमें शायर अपना तख़ल्लुस (यहाँ “बेबाक”) इस्तेमाल करता है।

रदीफ़: “मुल्तवी कर दूं” — हर शेर के दूसरे मिसरे के अंत में दोहराया गया है।

क़ाफ़िया: मुलाक़ात, सौग़ात, बारात, जज़्बात, ताबात, बरसात, तन्हाई, अदावत, आघात, हयात — ये सब रदीफ़ से पहले तुक में हैं।

बहर: यह ग़ज़ल बह्र-ए-मुतक़ारिब (लगभग) के वज़्न पर है, यानी हर मिसरे में वज़्न और लय बराबर है, जिससे तरन्नुम में पढ़ने पर ग़ज़ल का संगीतात्मक प्रभाव आता है।

अल्फ़ाज़: ज़्यादातर उर्दू-फ़ारसी लफ़्ज़, जिनसे ग़ज़ल को नज़ाकत, रूमानियत और क्लासिकल आभा मिलती है