जनवादी लेखक संघ का 11वां राष्ट्रीय सम्मेलन बांदा में हुआ
पाठ्यक्रमों के साम्प्रदायीकरण का अभियान चल रहाः जलेस
जनवादी लेखक संघ ने अपने राष्ट्रीय सम्मेलन में पाठ्यक्रमों के सांप्रदायीकरण पर नाराजगी जताते हुए एक प्रस्ताव पास कर इस अभियान का विरोध जताया है । प्रस्ताव में कहा गया है कि भाजपानीत एनडीए सरकारें पाठ्यक्रमों के साम्प्रदायीकरण का अभियान चला रही हैं। भाजपा पहली बार यह नहीं कर रही बल्कि जब भी वह सत्ता में आई तभी यह घृणित कार्य करने की कोशिश की ।
जनवादी लेखक संघ (जलेस) का ग्यारहवां राष्ट्रीय सम्मलेन 19 से 21 सितंबर तक बांदा में आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में देश भर से तीन सौ से अधिक साहित्यकार शामिल हुए और देश और दुनिया के ज्वलंत मुद्दों पर गंभीरतापूर्वक विचार विमर्श किया। सम्मेलन में पारित एक प्रस्ताव में कहा गया है कि भारतीय जनता पार्टी दवारा एनसीइआरटी और स्कूल की पुस्तकों में बदलाव पहली बार नहीं किया गया है। जब-जब भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आयी है, चाहे राज्यों में या केंद्र में उसने पाठ्यक्रमों में बदलाव करने की कोशिश की है। इन कोशिशों के पीछे जो भी कारण वे बतलाते रहे हों लेकिन उनका मकसद हिंदुत्वपरस्त सांप्रदायिक दृष्टिकोण से पाठ्यक्रमों में फेरबदल करना होता है. चाहे उसके लिए तथ्यों को छुपाना या उनको बदलना ही क्यों न पड़े।
2014 में सत्ता में आने के बाद भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने स्कूली पाठ्यक्रमों में बदलाव की कई कोशिशें की। पहली कोशिश 2017 में की गयी जब 182 पाठ्यपुस्तकों में 1334 परिवर्तन किये गये। दूसरी कोशिश तत्कालीन शिक्षामंत्री प्रकाश जावडेकर की देखरेख में 2019 में की गयी और तीसरी कोशिश 2022 में हुई। कोरोना महामारी का बहाना लेकर मोदी सरकार ने यह फैसला किया था कि स्कूली पाठ्यक्रमों का बोझ विदयार्थियों पर कम किया जाए और इसके लिए कथित रूप से ‘पाठ्यक्रम विवेकीकरण’ का कार्य सपन्न किया गया और इसी के तहत उन अंशों को हटाने का प्रस्ताव किया गया जिनमें उनके अनुसार जिन्हें या तो कई बार दोहराया गया था या जो अब अप्रासंगिक हो गये हैं। 2023-24 सत्र के लिए पाठ्यचर्याओं में संशोधनों को प्रस्तावित किया गया।
ये संशोधन इतिहास की पुस्तकों में ही नहीं नागरिक शास्त्र (राजनीति विज्ञान और समाजविज्ञान सहित), विज्ञानऔर हिंदी के पाठ्यक्रमों में भी किये गये। लेकिन 2022 में जो संशोधन प्रस्तावित किये गये थे, उनके अलावा भी कुछ संशोधन बिना पूर्व घोषणा के किये गये हैं। ये सशोधन 2023-24 सत्र की पाठ्यक्रम में लागू कर दिये गए हैं। हटाये गये पाठों में मुख्य रूप से गुजरात दंगे, मुगल दरबार, आपातकाल, शीतयुद्ध, नक्सलबाड़ी आंदोलन, कृषि और पर्यावरण संबंधी अध्याय, डार्विन का विकासवाद, वर्ण और जाति सघर्ष, दलित लेखकों का उल्लेख आदि शामिल हैं। महात्मा गांधी की हत्या संबंधी पाठों में किये गये सशोधन पिछले साल घोषित संशोधनों की सूची में शामिल नहीं हैं। उन्हें बिना पूर्व सूचना के हटाया गया है।
एनसीइआरटी के पाठ्यक्रमों में बदलाव के मौजूदा अभियान में सर्वाधिक फेरबदल इतिहास की पुस्तकों में किया गया है। इतिहास संघ परिवार के निशाने पर सदैव से रहा है। वे चाहते हैं कि भारत के इतिहास को इस तरह पेश किया जाए जिससे उनके राजनीतिक मकसद को पूरा करने में मदद मिले। वे औपनिवेशिक शासकों की तरह भारतीय इतिहास को भी हिंदू और मुसलमान में विभाजित कर देखते हैं। उनकी नज़र में यह देश केवल हिंदुओं का है और मुसलमान आक्रांता है। अपनी इस सांप्रदायिक दृष्टि के अनुसार वे इतिहास की पुस्तकों और पाठ्यक्रमों में मुस्लिम शासकों का उल्लेख आक्रांता और आततायी के रूप में ही देखना चाहते हैं जिन्होंने हिंदू जनता का उत्पीड़न किया था. उनके पूजा स्थलों को तोड़ा था और उनकी स्त्रियों को बेइज्जत किया था। स्वाभाविक है कि ऐसे इतिहास को पढ़ने से हिंदुओं के मन में मुसलमानों के प्रति गहरी नफरत पैदा होगी और इस नफरत का लाभ उठाकर वे हिंदू राष्ट्र के प्रति अपने जनसमर्थन का विस्तार कर सकेंगे।
कक्षा 12 के इतिहास विषयक पाठ्यक्रम में से जो कई अध्याय हटाये गये हैं उनमें मुख्य रूप से मुगल साम्राज्य संबंधी अध्याय हैं। संशोधित पाठ्यक्रम के अनुसार ‘किग्स एंड क्रॉनिकल्स मुगल दरबार’ (16वीं और 17वीं सदी) नामक अध्याय अब विदयार्थी नहीं पढ़ पायेंगे जो इतिहास की किताब ‘यौम्स ऑफ इंडियन हिस्ट्री पार्ट-2 से हटा दिया गया है।
भाजपा सरकार का मानना है कि मुगल आक्रमणकारी थे इसलिए इनके इतिहास को क्यों पढ़ाया जाना चाहिए। इतिहास की पुस्तकों में से मुगलों का उल्लेख हटाने के पीछे मुख्य मकसद जैसाकि कुछ विद्वानों का मत है. पाठ्यक्रमों से सबंधित सारी बहस को इतिहास पर केंद्रित करना है और इस तरह वे अपने मुस्लिम विरोधी सांप्रदायिक एजेंडे का प्रचार कर सकेंगे जिसका उन्हें राजनीतिक लाभ मिल सके। एनसीइआरटी की 10वीं और 11वी की पाठ्य पुस्तक ‘थीम्स इन वर्ल्ड हिस्ट्री’ से ‘सेंट्रल इस्लामिक लैंडस’, ‘संस्कृतियों का टकराव’ और ‘औदयोगिक क्रांति’ अध्याय भी हटा दिये गये हैं।
इतिहास कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे मनमाने ढंग से काटा-छांटा जा सके। तीन सौ साल से अधिक समय तक मुगलों का शासन रहा है और भारतीय इतिहास में यह काल बहुत महत्त्वपूर्ण भी रहा है। इस काल को पाठ्यपुस्तकों से तो हटाया जा सकता है. लेकिन इन तीन सौ सालों को हटाकर भारत का इतिहास पूरा नहीं हो सकता। इन तीन सौ सालों का महत्त्व अलग-अलग शासकों के आपसी सघर्षों और युद्धों तक ही सीमित नहीं है और इन युद्धों की सच्चाई यह भी है कि अकबर का सेनापति एक राजपूत राजा था तो महाराणा प्रताप का सेनापति एक पठान था जो उनकी तरफ से लड़ते हुए शहीद हुआ था। शिवाजी के तोपची मुसलमान थे। उस समय के शासक हिंदू हो या मुसलमान, उनकी सेना में हिंदू और मुसलमान दोनों होते थे।
मुगल काल को युद्धों के लिए ही नहीं नयी शुरुआतों के लिए भी जाना जाता है। प्रशासनिक क्षेत्र का एक बेहतर ढांचा उन्होंने विकसित किया। मनसबदारी प्रथा, भूमि बदोबस्ती, डाक व्यवस्था भी इसी काल की देन है। यही वह काल भी है जब एक शक्तिशाली भक्ति आंदोलन उदित और विकसित हुआ था और जिस दौर में नानक, कबीर, रैदास, मलिक मोहम्मद जायसी, मीरा, सूरदास और तुलसीदास जैसे महान सत और कवि पैदा हुए थे। विडबना यह भी है कि एनसीइआरटी की हिंदी की पाठ्य पुस्तक से कबीर और मीरा के काव्य को भी हटा दिया गया है। इसी तीन सौ साल में उस साझा सस्कृति का विकास हुआ है जिसका गहरा असर आज भी देखा जा सकता है। भाषा, खान-पान, वेशभूषा, स्थापत्य, साहित्य, सगीत, नृत्य चित्रकला यानी सस्कृति का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जिनकी परपराओं का निर्माण इसी बहुस्तरीय साझेपन से न हुआ हो। यहां तक कि धर्म भी इस मेलजोल से अछूता नहीं रहा है। इस दौर में जो नये संप्रदाय नये पंथ अस्तित्व में आये वे इसी मेलजोल और साझेपन के परिणाम रहे हैं। इन तीन सौ सालों को पाठ्यपुस्तकों से हटाने का मतलब है हमारे वर्तमान की उस बुनियाद को खोखला करना जिसके बिना ना हमारा वजूद सभव है और न हमारी पहचान।
इतिहास में किये जा रहे बदलावों के पीछे किसी तरह की बौद्धिक समझदारी काम नहीं कर रही हैं, बल्कि राजनीति है। यह सरकार मौजूदा पीढी को असंबद्ध अतीत पढ़ाने जा रहे हैं। वे इतिहास को हिंदू और मुसलमानों में विभाजित कर रहे हैं। वे नहीं जानते कि इतिहास को इस तरह से विभाजित करना कितना खतरनाक हो सकता है. पाठ्यपुस्तकों में से इतिहास के अलावा स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की न केवल महात्मा गांधी की हत्या से सबंधित तथ्यों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया गया है. अन्य कई प्रमुख घटनाओं प्रसंगों और महापुरुषों को भी या तो हटा दिया गया है या उनमें फेरबदल किया गया है।
10वीं की पाठ्यपुस्तक ‘लोकतांत्रिक राजनीति-2’ से ‘लोकतंत्र और विविधता ‘लोकप्रिय सघर्ष और आदोलन’ और ‘लोकतंत्र की चुनौतिया अध्याय हटा दिये गये हैं। स्वतंत्र भारत में राजनीति से संबंधित पाठ्यचर्या में से ‘जन आंदोलन का उदय’ और ‘एक दल के प्रभुत्व का दौर पाठ भी हटा दिये गये हैं। कक्षा 11 की समाजशास्त्र की पाठ्यपुस्तक ‘अंडरस्टैंडिंग सोसाइटी’ में से 2002 के गुजरात दंगों का संदर्भ भी हटा दिया गया है और इन दर्गा के साथ राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट का हवाला भी हटा दिया गया है। जिन अध्यायों को हटाया गया है उनसे आसानी से समझा जा सकता है कि इसके पीछे मकसद क्या है। मसलन, ‘एक दल के प्रभुत्व का दौर दरअसल तानाशाही प्रवृत्ति की आलोचना प्रस्तुत करता है।
आपातकाल को एक दल के प्रभुत्व के दौर के रूप में ही देखा जाता था। लेकिन भारतीय राजनीति का मौजूदा दौर भी एक दल के प्रभुत्व के दौर के रूप में पहचाना जाने लगा है जो लोकतंत्र के विरुद्ध है। इस पाठ को हटाकर एक तरह से विदयार्थियों को मौजूदा दौर के प्रति आलोचनात्मक रुख विकसित करने से रोका गया है। इसी तरह जनसंघर्षा और जन आंदोलनों से संबंधित पाठों को हटाना भी मौजूदा सत्ता की लोकतंत्र विरोधी तानाशाही प्रवृत्ति की अभिव्यक्ति है जो किसी भी तरह के लोकतांत्रिक आंदोलनों और संघर्षों को जिसका अधिकार जनता को संविधान में मिला हुआ है. अपनी सत्ता के प्रति विद्रोह और इस तरह देशद्रोह के रूप में देखती हैं।
सघ-भाजपा केवल इतिहास और राजनीति के साथ ही छेड़छाड़ नहीं कर रहे हैं, अन्य विषयों के पाठ्यक्रमों के साथ भी कर रहे हैं। 11 वीं के समाजशास्त्र की किताब ‘अंडरस्टैंडिंग सोशियोलॉजी में से कई विषय हटा दिये गये। इस पाठ्यपुस्तक के अध्याय तीन ‘पर्यावरण और समाज’ के एक सेक्शन जिसका शीर्षक है, ‘पर्यावरण की समस्याएं सामाजिक समस्याएं क्यों हैं?’ में दी गयी दो केस स्टडीज को हटा दिया गया है। एक केस स्टडी का सबंध विदर्भ से है जहां सूखे और कृषि सकट से जूझते किसानों की व्यथा-कथा बतायी गयी है। दूसरी केस स्टडी जिसमें दिल्ली जैसे महानगर में अमीर और गरीब के बीच बढ़ती आर्थिक असमानता को विषय बनाया गया है. उसे भी पाठ्यक्रम से हटा दिया गया है। यह भी महज सयोग नहीं है कि समाजशास्त्र की पुस्तक में से वर्ण और जाति संबंधी पाठ को हटा दिया गया है और इस तरह हिंदू समाज के सबसे बड़े अभिशाप के बारे में विद्यार्थियों को अंधेरे में रखने की कोशिश की गयी है।
एनसीइआरटी की पाठ्यपुस्तकों में किये गये संशोधनों में सबसे खतरनाक है विज्ञान के पाठ्यक्रर्मो में किया गया बदलाव। सीबीएसइ के दसवीं के पाठ्यक्रम से जैविक विकास का सिद्धात जो डार्विन के विकासवाद पर आधारित है, को हटा दिया गया है। यहा मोदी सरकार के एक मत्री के कथन को याद किया जा सकता है जिसका कहना था कि डार्विन का विकासवाद का सिद्धात पूरी तरह से गलत है।
हमारे किसी बाप-दादा ने बदरों से मनुष्य बनते हुए नहीं देखा था। इसी सदर्भ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस वक्तव्य को भी याद किया जा सकता है जो मुबई में डाक्टरों की एक सभा के सामने दिया था और जिसमें उन्होंने यह दावा किया था कि मनुष्य के सिर पर हाथी का सिर लगाना यह बताता है कि हमारे पूर्वज सर्जरी में कितने आगे बढ़े हुए थे। स्पष्ट है कि जो पौराणिक कल्पनाओं को सच मानते हों वे विज्ञान के सिद्धांतों में कैसे यकीन कर सकते हैं। यही वजह है कि देश के 1800 से अधिक वैज्ञानिकर्का, शिक्षाविदों और विज्ञान शिक्षकों ने एक खुला पत्र लिखकर एनसीइआरटी के दसर्ती के पाठ्यक्रम में जैविक विकास के सिद्धांत को हटाये जाने पर गहरी चिंता व्यक्त की है जिसका अध्ययन वैज्ञानिक चेतना के निर्माण और हमारे आसपास की दुनिया को समझने के लिए जरूरी है। दसवीं के पाठ्यक्रम से जो अध्याय हटाये गये हैं वे हैं चार्ल्स रॉबर्ट डार्बिन, विकासवाद और मानव विकास।
मौजूदा सत्ता दवारा पाठ्यक्रमों में बदलाव का उद्देश्य शिक्षा के पूरे क्षेत्र को अपनी विचारधारा के दायरे में लाना है और ऐसा करते हुए वे अतीत और वर्तमान की उन सभी बातों को अध्ययन-अध्यापन के क्षेत्र से बहिष्कृत करना चाहते हैं जिनके बने रहने से उनके वैचारिक वर्चस्व को अंदर से ही चुनौती मिलने लगती है। महात्मा गांधी की हत्या हो या मुगल काल, गुजरात के दगे हो या विभिन्न जन आंदोलन आपातकाल हो या लोकतंत्र की चुनौतियां, नक्सलबाडी अंदोलन हो या जातिवादी उत्पीड़न, डार्विन का विकासवाद या वैज्ञानिक चेतना पाठ्यक्रमों में इनका बने रहना उनके साप्रदायिक और पुनरुत्थानवादी एजेंडे का प्रतिलोम पैदा कर सकता है। यही डर इन बदलावों के पीछे काम कर रहा है।
जनवादी लेखक संघ का यह ग्यारहवां राष्ट्रीय सम्मलेन पाठ्यक्रमों के हिंदुत्वपरस्त साम्प्रदायीकरण की कोशिश का विरोध करता है. पाठ्यक्रमों के साम्प्रदायीकरण कि कोशिश का विरोध करना हमारे लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष ढांचे को बनाये रखने के लिए जरूरी है। यह इसलिए भी जरूरी है ताकि आगे आने वाली पीढ़िया, वैज्ञानिक सोच और लोकतांत्रिक विवेक से वंचित रहकर मध्ययुगीन कूपमंडूकता के दलदल में न फस जाये। यह भारत की बहुसास्कृतिक, बहुभाषिक और बहुराष्ट्रीयतावादी पहचान को बनाये रखने के लिए भी यह जरूरी है। तब ही सघात्मक राष्ट्र के रूप में हम अपने वजूद को बनाये रख सकेंगे।