शरीर में देवी-भूत का प्रवेश या फिर दिमाग़ का हॉर्मोनल लोचा?
धर्मेन्द्र आज़ाद
ग्रामीण भारत में आज भी ऐसे दृश्य आम हैं—गाँव का मंदिर रोशनी से जगमगा रहा है, ढोल-मजीरे बज रहे हैं, भजन-कीर्तन हो रहे हैं। औरतें झूम रही हैं, बच्चे तालियाँ बजा रहे हैं। तभी अचानक भीड़ में से एक महिला काँपने लगती है, आँखें उलट जाती हैं, हाथ-पाँव बेकाबू हो जाते हैं और वह चिल्लाती है—“मैं देवी हूँ! सबको आशीर्वाद दूँगी!”। लोग घबरा जाते हैं—कुछ डरकर पीछे हटते हैं, कुछ पैरों में गिर जाते हैं। फिर ओझा आता है, राख फेंकता है, मंत्र पढ़ता है, और जब महिला धीरे-धीरे शांत होती है, तो भीड़ राहत की साँस लेती है। सब मान लेते हैं कि सचमुच देवी उतर आई थीं।
लेकिन सवाल यह है कि क्या सचमुच कोई देवी-भूत शरीर में घुस जाता है? या यह पूरा मामला हमारे दिमाग़ और शरीर का ही प्रोडक्शन है?
असल में, ऐसी घटनाएँ केवल भारत में नहीं होतीं। फर्क बस नाम का है। भारत में इसे “देवी-भूत चढ़ना” कहते हैं, अफ्रीका में Spirit Possession (आत्मा का प्रवेश), अमरीका में Great Awakening (धार्मिक जागरण) और यूरोप में Spiritism (स्पिरिटिज़्म) कहा गया। ढोल बजे, लोग झूमें, और किसी पर अचानक “बाहरी शक्ति” उतर आई—कहानी सब जगह एक जैसी रही।
उत्तराखंड की परंपरा जागरी इसका ज़िंदा उदाहरण है। यहाँ आज भी मान्यता है कि किसी ख़ास व्यक्ति पर कुलदेवता की आत्मा प्रवेश कर जाती हैं। ढोल- मजीरें बजते हैं, भीड़ जमा होती है, और कोई व्यक्ति काँपते-चिल्लाते हुए कहता है—“मेरे भीतर देवता बोल रहे हैं।” अफ्रीकी जनजातियों में भी यही होता है—सामूहिक नृत्य, ढोल की थाप, और फिर अचानक कोई दावा करता है कि पूर्वजों की आत्मा उसके शरीर में आ गई है।
इतिहास भी ऐसे उदाहरणों से भरा है। अमरीका के Salem Witch Trials (सलेम विच ट्रायल्स) को ही लीजिए। 1692 में मैसाचुसेट्स की कुछ किशोरियाँ अचानक अजीब हरकतें करने लगीं—काँपना, चीखना, अनजानी भाषा बोलना। समाज ने इसे शैतान का असर मान लिया और कई औरतों को “डायन” बताकर मार डाला।
वैज्ञानिकों ने इस रहस्य का राज़ सैकड़ों साल पहले खोलना शुरू कर दिया था। सामान्यतः इसे Trance (ट्रांस – सम्मोहन जैसी अवस्था) कहा जाता है। के दशक में ऑस्ट्रिया के डॉक्टर फ्रांज़ एंटोन मेस्मर (Franz Anton Mesmer) अपने मरीजों को मोमबत्ती जलाकर, रहस्यमयी हाथों की हरकतें दिखाकर ऐसी अवस्था में ले जाते थे, जिसमें लोग रोने, हँसने या बेहोश होने लगते थे।
उनकी इस कला को उनके नाम से जोड़कर “Mesmerism” (मेस्मेरिज़्म) कहा जाने लगा। वे अपने मरीजों को ट्रांस (सम्मोहन जैसी अवस्था) में ले जाते थे। आज हम इसे “Hypnotism” (हिप्नोटिज़्म – सम्मोहन) कहते हैं। उन्होंने कहा कि शरीर में कोई चुंबकीय द्रव (Magnetic Fluid) है जो किसी ख़ास माहौल में हरकत में आ जाता है, यही ट्रांस की अवस्था है, इसे मानसिक बीमारियों का इलाज करने में इस्तेमाल किया जा सकता है।
करीब सौ साल बाद, पेरिस के डॉक्टर जीन-मार्टिन शार्को (Jean-Martin Charcot) ने पाया कि ढोल-नगाड़े, भीड़ और धार्मिक ऊर्जा मिलकर इंसान को सम्मोहन जैसी स्थिति में पहुँचा देती हैं। उनके छात्र फ़्रायड ने आगे कहा कि जिन लोगों के साथ यह होता है, उनके भीतर पहले से ही दबा हुआ तनाव या आघात होता है। जैसे—लंबे समय तक दबा गुस्सा, बार-बार अपमान, अपनी बात न कह पाने की आदत या फिर धार्मिक माहौल में लगातार भावनात्मक दबाव। फ़्रायड के मुताबिक यह सब “Unconscious Mind” (अवचेतन मन) का खेल है—जितना दबाओगे, उतना ज़ोर से फटेगा।
अब आधुनिक विज्ञान और गहराई से बताता है कि ट्रांस के दौरान शरीर में क्या होता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि एक खास माहौल में, कभी कभी बिना माहौल के भी, कुछ विशिष्ट कारणों से कुछ लोगों में दिमाग़ का Amygdala (एमिग्डाला – डर और भावनाओं का सेंटर) अचानक अलर्ट कर देता है—“खतरा है!”। Sympathetic Nervous System (सिंपैथेटिक नर्वस सिस्टम – तनाव की स्थिति वाली प्रणाली) चालू हो जाता है।
खून में Adrenaline (एड्रेनालिन – उत्तेजना का हॉर्मोन) और Cortisol (कॉर्टिसोल – तनाव का हॉर्मोन) बाढ़ की तरह दौड़ पड़ते हैं। दिल धक-धक करता है, साँसें तेज़ हो जाती हैं, हाथ-पाँव काँपने लगते हैं। और सबसे दिलचस्प—Prefrontal Cortex (प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स – तर्क और लॉजिक वाला हिस्सा) अस्थायी रूप से ऑफ़लाइन हो जाता है। यानी इंसान को सचमुच लगता है—“मैं नहीं बोल रहा, कोई और बोल रहा है।”
भारत में ज़्यादातर ऐसे मामले महिलाओं या दबे-कुचले पुरुषों के साथ देखे गए हैं। खेतों का काम, घर का दबाव, समाज का अपमान—ये सब मन के भीतर जमा होता रहता है। और जब ढोल-नगाड़े और जगराते का माहौल बनता है, तो सारा तनाव एक झटके में बाहर निकल पड़ता है।
महिला काँपती-चीखती है, बोझ हल्का करती है। और समाज कह देता है—“इस पर देवी चढ़ी है।” दिलचस्प यह कि जिसे रोज़ कोई नहीं सुनता, उसी की अचानक सब सुनने लगते हैं। यानी यह एक तरह का “Release Valve” (रिलीज़ वाल्व – दबाव निकालने का जरिया) भी है।
विज्ञान की भाषा में इसे कहते हैं—Psychosomatic Response (साइकोसोमैटिक रिस्पॉन्स – मानसिक तनाव का शारीरिक असर)। यानी मन, दिमाग़, हॉर्मोन और समाज—सब मिलकर एक पूरा पैकेज बना देते हैं।
आज यूरोप और अमरीका में ऐसे मामलों को मानसिक स्वास्थ्य (Mental Health) के तहत देखा जाता है, लेकिन भारत, अफ्रीका और दूसरे रूढ़िवादी समाजों में यह अब भी देवी-भूत या आत्मा का प्रवेश कहलाता है।
हाल ही में उत्तराखंड और झारखंड के कुछ स्कूलों में देखा गया कि बिना किसी संगीत या भजन-कीर्तन के भी कई बच्चे एक साथ चीखने-काँपने लगे। डॉक्टरों ने जाँचकर बताया कि यह “Mass Psychogenic Illness” (सामूहिक मनोवैज्ञानिक बीमारी) है। यानी तनाव और डर का असर जब सामूहिक रूप से फूट पड़ता है तो पूरा समूह एक ही जैसा व्यवहार करने लगता है।
तो सच्चाई यह है कि ट्रांस कोई अलौकिक घटना नहीं, बल्कि इंसान की भावनाओं, उसके दिमाग़, शरीर और समाज के दबाव का मिला-जुला असर है।