लक्कड़बग्घा
जयपाल
पैदा होने से पहले
मैंने सोचा था
जब में पैदा होऊँगा तो मां खुश होगी
लेकिन पैदा होने के बाद
मैं भी रोया, माँ भी रोई
मैं साम्प्रदायिक दंगों के बाद एक राहत शिविर में पैदा हुआ था
पिता का पता नहीं था
बहन-भाई को पेट्रोल डालकर जलाया जा चुका था
घर को आग के हवाले कर दिया गया था
राहत शिविर में सबके चेहरे पर खौफ था
राहत का नामोनिशान दूर-दूर तक नहीं था
माँ भयभीत थी, आशंकित थी
मेरे पैदा होने के बाद से ही उसे मेरी मौत सामने दिखाई दे रही थी
यह तो मेरा भाग्य था की मैं नौ महीने भी माँ के पेट में रह सका
नहीं तो मेरी माँ के पास कुछ दूसरी मांएं भी थीं
जिनके पेट को आतंकवादी शिविर समझ कर खाली कर दिया गया था
वे अब क्या मुँह लेकर बाकी जीवन जिएंगी
ये माँएं!
ये बच्चे!
क्या बातें करते होंगे आपस में
भविष्य को लेकर क्या चलता होगा इनके मन में
कभी नींद भी आती होगी या नहीं
आती भी होगी तो कैसे-कैसे सपने आते होंगे
जैसे कि मेरी माँ को सपने में अपना गाँव दिखाई देता है
और उस गाँव में एक लक्कड़बग्घा
जो अक्सर बच्चों को उठा ले जाता था
और खेतों में जाकर छिप जाता था
बच्चों के चिथड़े खेतों में ही मिलते थे
कभी वे नहीं भी मिलते थे
मेरी माँ कहती है
यहाँ भी एक लक्कड़बग्घा आया हुआ है
यह लक्कड़बग्घा चोरी-छिपे कुछ नहीं करता
यह रात के अँधेरे में नहीं दिन की रोशनी में निकलता है
जयकारे लगाता है और बच्चों को उठा ले जाता है
इसकी खासियत यह है कि यह बच्चों के साथ
उनकी माँओं को भी उठा ले जाता है
इसकी आँखें अल्ट्रासाउंड की तरह हैं
यह दूर से ही माँ के गर्भ का अंदाजा लगा लेता है
हिन्दू-शिशु और मुस्लिम शिशु को पहचान लेता है
एक मण्डली कीर्तन करती है
दूसरी बलात्कार करती है
दोनों काम साथ-साथ चलते हैं
माँ के गाँव का लक्कड़बग्घा मूर्ख था
कभी-कभी पकड़ में भी आ जाता था
लाठी गोली खा लेता था
लेकिन यह लक्कड़बग्घा किसी की पकड़ में नहीं आता
राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या सुप्रीम कोर्ट-सब इससे डरते हैं
यह सारा काम योजनाबद्ध ढंग से करता है
यह लक्कड़बग्घा औरतों और
बच्चों का माँस खाता है
दूसरे धर्मों को गाली देता है
और संत महात्मा कहलाता है
माँ के गाँव का लक्कड़बग्घा जाकर खेतों में छिप जाता था
लेकिन यह लक्कड़बग्घा गौरव-यात्रा निकालता है
और सिंहासन पर सज जाता है
धर्मस्थल इसके सुरक्षित खेत हैं
यह देश की बात करता है
देश वासियों पर हमला कर देता है
भगवान की बात करता है
और दंगों में शामिल हो जाता है
धर्मस्थलों का रक्षक बनता है
और धर्मस्थल गिरा देता है
संतों का चोला पहनता है
और आदमखोर हो जाता है
मेरी माँ कहती है
इससे तो गाँव का लक्कड़बग्घा ही अच्छा था
किसी के जात-धर्म तो नहीं देखता था
बाज़ारों में लूट तो नहीं मचाता था
बस्तियों की होली तो नहीं जलाता था
चौराहे पर बलात्कार तो नहीं करता था
भीड़ देखता था तो भाग जाता था
कम से कम डर तो था उसमें
अपराधबोध भी रहता था
मारने खाने के बाद
खेतों में छिप जाता था
गाँव में जाकर सरपंच तो नहीं बन जाता था
लोग उसे महात्मा तो नहीं कहते थे
पुलिस खोजकर उसे पकड़ती थी
सुरक्षा तो नहीं देती थी
कम से कम लोग उसे अपना दुश्मन तो समझते थे
चार आदमियों में उसे गाली दी जाती थी
मंच पर नहीं बिठाया जाता था
गाँव में घुसने पर लाठी से उसका स्वागत होता था
गले में हार नहीं डाले जाते थे !
गाँव का लक्कड़बग्घा
कम से कम रथ पर सवार होकर तो नहीं निकलता था
सबसे बड़ी बात यह
कि लोग लक्कड़बग्घे को लक्कड़बग्घा तो कहते थे !
माँ कहती है
अच्छा होता मेरे गाँव का लक्कड़बग्घा
मुझे बचपन में ही उठा ले जाता और मारकर खा जाता !

‘लकड़बग्घा’ बहुत ही सटीक सामयिक यथार्थ को चित्रित करती एक प्रभावशाली कविता है जो आज के हालात का विश्लेषण और विश्वसनीय व्याख्या करती है। ‘लकड़बग्घा’ के प्रतीक के माध्यम से दो टांगों वाले लकड़बग्घा के कारनामों से पाठकों को परिचित कराया गया है।