बिहारः नेता कम जादूगर ज्यादा, अब प्रशांत किशोर की बारी

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बिहारः नेता कम जादूगर ज्यादा, अब प्रशांत किशोर

विजय शंकर पांडेय

बिहार की राजनीति का मज़ा ही कुछ और है। यहां नेता कम, जादूगर ज़्यादा पैदा होते हैं। मंच पर आते ही जनता को लगता है—अबकी बार कोई नया जादुई मंत्र गूंजेगा, अबकी बार चमत्कार होगा। लेकिन सवाल उठता है कि प्रशांत किशोर आखिर हैं कौन? समाज सुधारक? क्रांतिकारी? या फिर चुनावी ठेकेदारी का साइलेंट वर्जन?

कहते हैं राजनीति में विचारधारा की अहमियत होती है। लेकिन पीके के लिए विचारधारा भी अचार की तरह है। तरह-तरह के डिब्बे सजाए हुए हैं—कभी दही वाला अचार, कभी मिर्च वाला, कभी नींबू वाला। जब जिस पार्टी के साथ बैठना हो, उसी का स्वाद चख लेते हैं। एक चुनाव में दक्षिणपंथी पार्टी के साथ दिखे, दूसरे चुनाव में विरोधी खेमे के साथ। कभी तमिल राजनीति में तमिल, कभी तेलुगु राजनीति में तेलुगु। और कभी तो वे शरद पवार को राष्ट्रपति बनवाने निकल पड़े थे।

साल 2014 में बीजेपी का चुनाव मैनेजमेंट करके उन्होंने अपनी दुकान खोली। इसके बाद नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, कैप्टन अमरिंदर सिंह, जगन रेड्डी और एमके स्टालिन तक—हर किसी की “सेल्स कंसल्टेंसी” में हाथ आज़माया। यूपी में कांग्रेस-सपा गठबंधन के रणनीतिकार भी बने, लेकिन वहाँ मामला ऐसा बिगड़ा कि नतीजा देखकर खुद पीके को भी समझ आ गया होगा—रणनीति के नाम पर सिर्फ़ पोस्टर बदलने से जनता का मूड नहीं बदलता।

फिलहाल लोग कह रहे हैं कि वे बीजेपी के स्लीपर सेल हैं। लेकिन असल में “स्लीपर सेल” से बड़ा मजाक बिहार की जनता ही समझ सकती है। यहां जनता पाँच साल सोती है, नेता पाँच साल चैन से खाते हैं, और फिर चुनाव आते ही सब जाग उठते हैं—नए नारे, नए सपने, नई चतुराई। फर्क बस इतना है कि पहले पीके पोस्टरों पर “दिल जीतेंगे” लिखते थे, अब भाषणों में “बिहार बदलेंगे” बोलते हैं।

दरअसल पीके का असली हुनर ये है कि वे हर जगह फिट हो जाते हैं। जैसे देसी शादी का डीजे वाला। दूल्हे के लिए रोमांटिक गाना बजा देगा, बारातियों के लिए “लॉलीपॉप लागेलु” बजा देगा और ससुराल वालों के लिए क्लासिकल भी छेड़ देगा। हर क्लाइंट खुश, और डीजे माइक पर मशहूर।

अब जनता सोच रही है—ये आदमी असल में है किसका? जनता का, सत्ता का, या फिर बस अपना ही? क्योंकि अभी तक तो वे हर पार्टी के लिए एक फ्रीलांस पंडितजी रहे हैं—चुनाव का मुहूर्त निकालो, जुलूस की दिशा बताओ और पोस्टर का रंग तय करो।

लेकिन अब अगर सचमुच उन्हें नेता के तौर पर उभरना है, तो यह सब “रणनीति प्रबंधन” वाली छवि छोड़नी होगी। पैराशूट से राजनीति में कूदे तो भीड़ ताली नहीं बजाती, बल्कि सवाल पूछती है। जमीन पर उतरकर पसीना बहाना होगा, गली-कस्बों में धूप खाना होगा, जनता के साथ ठेले पर चाय पीनी होगी।

वरना यही कहा जाएगा कि प्रशांत किशोर कोई नेता नहीं, बल्कि राजनीति का “कंसल्टेंसी ऐप” हैं। जिसे चाहे डाउनलोड कर लो, जिससे चाहे चुनावी पैकेज ले लो। फर्क बस इतना है कि इंटरनेट का डाटा खत्म होता है, लेकिन पीके का चुनावी डाटा कभी खत्म नहीं होता।

 

विजय शंकर पांडेय