बांग्ला विभाजन स्वीकार नहीं कर सका, तीन फिल्मों में यह बात ही कहनी चाही

ऋत्विक घटक का साक्षात्कार पार्ट -3

बंगाल विभाजन स्वीकार नहीं कर सका, तीन फिल्मों में यह बात ही कहनी चाही

मनुष्य का सांस्कृतिक मन नष्ट हो गया है

ऋत्विक घटक

‘नागरिक’ फिल्म की चर्चा करने से कोई लाभ नहीं है। ‘नागरिक’ फिल्म मोटे रूप से एक सामूहिक प्रयास था, किसी ने पैसा वगैरह नहीं लिया था, लैबोरेटरी ने भी नहीं, यहां तक कि जो raw film stock होता है, जो आसानी से नहीं मिलता है, वह भी मुझे बिना पैसे के मिल गया था। इसके अलावा फिल्म बनाने में जो सामान्य खर्च होता है, वह मैंने अपने इकट्ठे किए पैसे से किया था। किन्तु हम लोग मूर्ख थे कि फिल्म के अन्तिम दौर में, व्यवसायगत मामले में, एक धोखेबाज के चंगुल में पड़ गए थे, फिर सारी चीजें नष्ट हो गयीं।, हम लोगों के दिल टूट गये। उस फिल्म के रिलीज होने की कभी कोई संभावना नहीं है, यह देखकर हम लोगों ने यह मान ही लिया कि लोग उस फिल्म को कभी देख नहीं पाएंगे।

फिल्म पूरी हुई, सेंसर से गुजरी, यह एक ट्रेजडी है, एक इतिहास है, इसके परत-दर-परत कई अध्याय हैं। पर उन सब बातों को अब रहने दो, मोटी बात यह है कि अच्छी तरह जूते खाने से मेरा फिल्मी कैरियर आरम्भ हुआ। पेट पर अच्छी तरह मार पड़ी थी। बाबा के मर जाने के बाद जो थोड़ी बहुत पूंजी पड़ी हुई थी, वह सब यह फिल्म बनाने में चली गयी।

इसके अलावा इस फिल्म में हम लोगों ने राजनीतिक दृष्टि से कुछ करने और कुछ कहने का एकप्राण से चेष्टा की थी। मेरे एक मित्र ने जो देश के बहुत बड़े फिल्म निर्देशक थे- इस फिल्म को देखकर मुझसे कहा था, आपकी यह फिल्म बेहद राजनीतिक है। हम लोगों की भी यही धारणा थी। उस समय वी.टी.आर. का जमाना था, यानि वामपंथ में कम्युनिस्ट पार्टी घुस गई थी, आजकल की बहुत कुछ नक्सलवादी राजनीति जैसा मत।

वह बहुत कुछ तेलंगाना आन्दोलन का समय था। 1951 में उसकी पटकथा लिखी, पूरा वर्ष लग गया, थोड़ा-थोड़ा पैसा आता-जाता था और थोड़ा-थोड़ा काम होता जाता था। 1952 में वह फिल्म समाप्त हुई, सेंसर से भी पास हो गई। मेरे मित्र ने ठीक ही कहा था, वह फिल्म पूरी तरह राजनीतिक थी। उस फिल्म को देखकर लोग सोचते थे कि ऋत्विक घटक राजनीति के लिए फिल्म बनाते हैं। उस फिल्म में बड़े मुखर रूप में राजनीति भी थी। उसमें बचपन से भरा हुआ उत्साह और भावोच्छास भी था। फिर भी शायद उसमें कोई चीज़ थी, जिसका मुझे पता नहीं था। खैर, उस फिल्म को ‘रिकवर’ करने का अब कोई उपाय नहीं है। उस समय फिल्म के प्रिंट नाइट्रेट पर बनते थे, अगर उसे अच्छी तरह सुरक्षित रखा जाय, वे कुछ दिन ताले में बन्द रखने से चिपक जाते हैं। अब वे सारी फिल्में एकदम अस्त-व्यस्त हो गयी हैं।

उसके बाद 56 में ‘अजान्त्रिक’, रिलीज हुई। फिर एक के बाद एक कई वर्ष लगातार फिल्में बनायीं। अगर उसे अच्छा न लगे, क्या मनुष्य कोई काम करता है? ‘सुवर्ण रेखा’ तक मैंने जितनी फिल्में बनायीं, सबमें मुझे खूब आनन्द मिला। अपनी कौन सी फिल्म मुझे सबसे अच्छी लगती है और कौन सी सबसे बुरी, कृपाकर इस तरह का प्रश्न मुझसे न पूछें क्योंकि उस प्रश्न का उत्तर जो भी निर्देशक देगा, उससे भूल होने की ही सम्भावना सबसे अधिक है।

देश का विभाजन ही मेरी दृष्टि में सारी समस्याओं का केंद्र बिन्दु है क्योंकि मैंने इसे सचेत भाव से देखना चाहा है।

बंगाल के विभाजन की घटना ने हमारे आर्थिक, राजनीतिक जीवन को तहस-नहस कर दिया था। अज को जो सारी अर्थनीति चकनाचूर हो गयी है, उसका मूलभूत तथ्य था – बंग-भंग। बांग्ला विभाजन को मैं किसी भी तरह स्वीकार नहीं कर सका और तीन फिल्मों में मैंने यह बात ही कहनी चाही है। इच्छा न रहने पर भी यह हो गई फिल्म त्रयी – ‘मेघे ढाका तारा’, ‘कोमल गान्धार’ और ‘सुवर्ण रेखा’ । जब मैंने ‘मेघे ढाका तारा ’ बनाना प्रारम्भ किया, मैंने उसमें राजनीतिक सामंजस्य और मिलने की बात नहीं कही है, आज भी उस मिलन के बारे में नहीं सोचता। कारण इतिहास में जो एक बार घट गया, वह सदा के लिए घट गया है। उसे बदलना बहुत मुश्किल है। सांस्कृतिक मिलाप के पथ पर जो बाधा, जो व्यवधान आता है, जिसमें राजनीति, अर्थनीति सभी आकर विरोध में खड़े हो जाते हैं, उसी ने मुझे गम्भीर और तीव्र व्यथा पहुंचायी थी।

इसी सांस्कृतिक मिलन की बात ‘कोमल गान्धार’ में स्पष्ट रूप से कही गयी है, ‘मेघे ढाका तारा’ और ‘सुवर्ण रेखा’ में भी यही बात कही गयी है। इस समय अवश्य आर्थिक समस्याओं की अनेक झंझटें खड़ी हो गयी हैं किन्तु अगर इन पर अच्छी तरह आप विचार करें तो अनेक आर्थिक समस्याओं की उलझन के मूल में यही देश- विभाजन है।एक ही लम्हे में दो टुकड़े कर दिये इस देश के। एक बार में ‘छगन-मगन’ खेल गए नेता लोग। इस विषय में मुझे और कुछ नहीं कहना है।

‘सुवर्ण रेखा’ के बाद लम्बे समय तक फीचर फिल्में न करने का एक कारण मेरा बोहेमियन जीवन है। मैंने अपनी फिल्में देखी हैं, ‘अजान्त्रिक’ से लेकर ‘सुवर्ण रेखा’ तक पांचों फिल्में, वे जब रिलीज़ हुईं तो क भी नहीं चलीं। कई वर्ष बीतने के बाद जब लोगों को होश आया, उन्होंने उन फिल्मों को थोड़ा – बहुत देखा। एक फिल्म ‘मेघे ढाका तारा’ को थोड़े पैसों का मुंह देखने को मिला था। पूरा पैसा लग गया ‘कोमल गान्धार’ फिल्म बनाने में। ‘कोमल गान्धार’ में मेरा सर्वस्व डूब गया। इसका प्रोड्यूसर भी मैं ही था। इसके बाद यह देखने को मिला कि जो फिल्म प्रोड्यूसर फिल्मों के लिए पैसा दे सकते थे, उन्होंने मुझे विषवत त्याग दिया, क्योंकि मैं ऐसा डायरेक्टर था जो फ्लॉप फिल्में बनाता था।

इतना पैसा खर्च होने के बाद फिल्म रिलीज़ होती थी, इतना खटने के बाद पता नहीं था कि फिल्म सफ़ल होगी या नहीं, मुद्दे की बात यह थी कि पैसा मुझे नहीं मिलता था। इसलिए मुझे कोई घास नहीं डालता था। उसी समय पूना के फिल्म संस्थान में नौकरी करने का मुझे अवसर मिल गया।

इन सात वर्षों में मैंने फिल्में नहीं बनायीं, वह किसी निश्चित कार्य-कारण परम्परा के कारण नहीं, बहुत कुछ आकस्मिक घटनाक्रम के कारण था, क्योंकि पूना की मेरी नौकरी अधिक दिन रही नहीं, मुश्किल से दो बरस, चाकरी भी नहीं कर सकता था, की भी नहीं, अर्थात यह सोचता था कि फिर से जाकर भिक्षावृत्ति करूंगा, कैसा अपने आप को एक भिखारी के रूप में सोचता था, मैं अपनी इस स्थिति को स्वीकर नहीं कर पाता था। क्रमशः