फटे जूते वाले प्रेमचंद !

जन्मदिन पर विशेष

फटे जूते वाले प्रेमचंद !

मंजुल भारद्वाज

प्रेमचंद जब अपनी लेखनी से गुलाम जनता में आज़ादी का मानस जगा रहे थे तब कुबेर का खज़ाना उनके पास नहीं था सत्ता की दी हुई जागीरदारी नहीं थी. यह तथ्य बताता है की साहित्य रचने के लिए धन की नहीं प्रतिभा,प्रतिबद्धता और दृष्टि की जरूरत होती है! जब आपके चारों ओर निराशाजनक माहौल हो तब अपने अंदर उम्मीद के सूर्य को जगाना कैसे सम्भव होता है? यही जीवटता प्रेमचंद को प्रेमचंद बनाती है. उम्मीद का तूफानी आवेग दौड़ता होगा उनकी रंगों में, सामाजिक बेड़ियों को तोड़ने के लिए दिनरात बिजली कौंधती होगी उनके मस्तिष्क में. सदियों गुलामी का भयावह यथार्थ पानी फेरता होगा उनकी उम्मीद पर और वो कैसे निराशा के भवसागर से तैरते हुए बाहर आते होंगें मैं इस कल्पना से ही रोमांचित हूँ! जल्द ही प्रेमचंद के इस आयाम पर नाटक लिखूंगा.

प्रेमचंद ने कितने मिथकों को तोडा है. भूखे भजन ना होए गोपाला के मन्त्र पर चलने वाले लाखों राजभाषा अधिकारी,हिंदी के पत्रकार, हिंदी के अध्यापक, हिंदी के फ़िल्मकार, हिंदी के धारावाहिक आज कहाँ हैं हिंदी साहित्य में? हिंदी साहित्य में उनका क्या योगदान हैं? कहाँ हैं वो जियाले ‘नामवर और गुलज़ार’? इन्होने आज हिंदी में साहित्य रचा होता तो क्या विवेकहीन समाज होता? क्या भेड़ें विकारी भेड़ियों को भारत का संविधान खंडित करने के लिए बहुमत देती? यह सवाल इसलिए क्योंकि प्रेमचंद का साहित्य समाज में आज़ादी का मानस जगाने के लिए था,है और रहेगा! मनुष्य को हर तरह की बेड़ियों से मुक्त करना ही साहित्य का साध्य है. यह साध्य राजनैतिक प्रक्रिया है. इसलिए राजनीति साहित्य का केंद्र बिंदु है और प्रेमचंद अपनी इस मौलिक जवाबदारी और जवाबदेही से कभी अलग नहीं हुए. पर आज साधन सम्पन्न लोग प्रेमचंद की कहानियों पर धारावाहिक बनाते हैं और सत्ता से सम्मान पाते हैं पर समाज में विवेक नहीं जगा पाते क्योंकि उनकी कथनी और करनी में फर्क है.

अपने साहित्य से एक नए समाज का निर्माण करते हुए प्रेमचंद का साहित्य आज जाने कितने लोगों का पेट भरता है. अनगिनत परिवारों में चूल्हा जलाता है. हिंदी में नए अवसर पैदा करता है. आज प्रेमचंद के साहित्य पर शोध कर कितने प्रोफेसर दिन में दस जोड़ी जूते बदलते हैं पर एक ऐसी रचना नहीं रच सकते जो विवेकशील समाज के निर्माण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाये! सच है जब तक अपने पैर में बिवाई ना फ़टी हो तब तक दूसरे का दर्द समझ नहीं आता. प्रेमचंद का जूता इसलिए फटा था. अपने समय और समाज में जीते हुए उन्होंने अपना रचना संसार रचा..आज कल सब नौकरी करते हैं. अपने विवेक को जीते नहीं हैं .

साहित्य:संसार के हित को साधने की कृति. संसार मनुष्य के साथ सहस्तित्व में पूरा चराचर जगत. भोग शरीर की अनिवार्यता है और चेतना मनुष्य की मुक्ति की युक्ति. भोग और मुक्ति के द्वंद्व से उपजती है मानवता. विज्ञान के अनुसार हम होमोसेपियन हैं मनुष्य देह का यही उद्देश्य है की अपने जौसे पैदा करो और दुनिया से चलते बनो. पर विज्ञान की कसौटी के परे मनुष्य ने अपनी चेतना से विवेक बुद्धि को जागृत किया और अपने को शरीर के परे इन्सान के रूप में देखा.यही इंसानी चेतना कला है जो मनुष्य को शरीर के परे इंसान बनाती है. साहित्य कला है. शरीर की जरूरतों और स्वभाव के दोष को मुक्त कर एक इंसानी समाज बनाने की साधना है साहित्य.किसी भी व्यवस्था की जड़ता को तोड़ता है साहित्य. अपने विवेक के आलोक में जो स्वयं को तपाते हैं वही साहित्य सृजन करते हैं. बाक़ी पेट भरने की खरपतवार है. जिसको आज हम आधुनिक समाज कह रहे हैं दरअसल वो साहित्य की किसी भी कसौटी पर आधुनिक नहीं है क्योकि जिस समाज में मनुष्य को मात्र एक’वस्तु’ समझा जाए वो कभी आधुनिक नहीं होता. भूमंडलीकरण किसी भी तर्क को खत्म करने का षड्यंत्र है. लालच को ज़रूरत बनाने वाला कुचक्र है. प्राकृतिक संसाधनों को लीलने वाला विध्वंस है. इस विध्वंस की जड़ में है वर्चस्ववाद. एकाधिकार. और इनको चलाने के लिए एक तर्क संगत समाज की जरूरत नहीं होती …तर्क विहीन,विवेक शून्य मानवी देहों की जरूरत होती है जो शसिर्फ़ जयकारा लगा सके. इसलिए पूरी दुनिया में साहित्यकार और साहित्य विलुप्त है और सत्ता ‘ठंडा मतलब कोका कोला’ लिखने वाले को राष्ट्रवादी साहित्यकार मानती है. कला और साहित्य का मकसद कभी भी मात्र ‘रंजन करना नहीं है’… मनुष्य रूपी देहों में विचार पैदा कर उसे विवेक की लौ से इंसानियत की अलख जगाना है. प्रेमचन्द इसलिए फटे जुते के फ़ोटो में दिखते हैं क्योंकि उन्होंने दमनकारी सत्ता और विचारों को विरोध किया. अपने साहित्य सृजन की मशाल से गुलाम मानसिकता से लोहा लिया और साहित्य के जुनून को जीते हुए साहित्य का पर्याय बन गए. सलाम हमारे मार्गदर्शक को ! ये दुर्भाग्य है की वो आज हिंदी में पीएचडी पाने भर तक सीमित कर दिए गए हैं. पर विवेक जागेगा और इस कार्य में प्रेमचन्द सदियों तक राह दिखाते रहेगें!

कलम के सिपाही को मेरा नमन

लेखक-मंजुल भारद्वाज