गांव महानगर बनना चाहते हैं!
– मंजुल भारद्वाज
महानगरों ने
अपनी छत खो दी है !
छत खोने का अर्थ है
अपना आसमान खोना!
इसलिए महानगर उड़ते नहीं है
कीड़नाल की तरह रेंगते हैं!
कहने को लाखों की कार होती है
पर उसमें बैल गाड़ी सी उड़ान नहीं होती !
महानगर मर गए हैं
अपनी लाश लिए दौड़ने का स्वांग कर रहे हैं
ताकि लाश सड़े नहीं
पर लाश सड़ चुकी है
अब पंच इन्द्रियां निष्क्रिय हो गई हैं
इसलिए ना बदबू आती है
ना शुद्ध हवा – पानी की पहचान है
भोजन अब बीमारियों का घर है
त्रासदी यह है कि महानगर
विकास के टापू कहलाते हैं
सोचने की बात है कि
विकास ऐसा है
तो विनाश कैसा होगा !
दीगर बात यह है कि
सोचे कौन ?
कीड़नाल सोचता नहीं है
बस कुचला जाता है
गांव का वही हश्र हो रहा है
विकास के बुलडोजर से रौंदे जा रहे हैं!
विनाश काले विपरीत बुद्धि
गांव को महानगर बनना है !
गांव अपना आसमान
ज़मीन,शुद्ध हवा
पानी ,जंगल बेच
महानगर बनना चाहते हैं!