–डॉ स्वराजबीर
3अक्टूबर,2023 को दिल्ली में हुई पत्रकारों की गिरफ्तारियों को देखकर *फ़ैज़ अहमद फ़ैज़* की ये पंक्तियां अपने आप ही याद आती हैं – *चस़म-ए-नम* (भीगी हुई नम आंखें) *जान-ए-स़ोरिदा*(व्याकुल आत्मा) ही काफी नहीं,*तुहमत-ए इश्क-ए-पोशीदा* (गुप्त प्रेम का इल्ज़ाम) काफी नहीं/ *आज बाजार में पा-ब-जौला चलो* (आज बाजार में पैरों में जंजीरें पहनकर चलों)।इस नज़्म के साथ कईं कहानियां जुड़ी हुई हैं। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ शायर होने के साथ-साथ पत्रकार ,वामपंथी राजनीतिज्ञ और मजदूर नेता भी थे। फौजी हुकूमत ने उन्हें बार-बार जेल में भेजा।यह नज़्म उन्होंने 11 फरवरी,1959 को लाहौर जेल में लिखी और इससे हजारों लोग उत्साहित और प्रेरित हुए।इस शायर/पत्रकार की शायरी पढ़कर हम महसूस कर सकते हैं कि अपने लोगों के प्रति प्रेम रखने वाले शख्स के मन में जिम्मेदारी का अहसास किस कदर बुलंद हो सकता है। जेल जाने से बहुत पहले ही फ़ैज़ को आने वाले समय की आहट पहले ही मिल चुकी थी । उन्होंने लिखा था- *निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन,कि जहां /चली है रस्म कि कोई भी न सर उठा के चले/ जो कोई चाहने वाला तवाफ़ को (घूमने )निकले/नजर चुरा के चले/जिस्म- ओ-जां बचा के चले।* हम इसी तरह के रिवाजों के समय में जी रहे हैं- जहां चली है रस्म कि कोई न सिर उठा के चले।
सिर उठा कर चलना मनुष्यता के मान-सम्मान को कायम रखना है।देश और कौम पर कईं बार ऐसा समय भी आया जब बहुत सारे लोगों के लिए सिर उठाकर चलना बहुत आसान नहीं था। सिर उठा कर चलने वाले फांसी पर चढ़ा दिये जाते थे और जेलों में ठूंस दिये जाते थे। उनमें से कुछ सिर झुकाने का फैसला कर लेते और माफीनामे लिख देते। ऐसा समय अंधकार से भरा होता है।ऐसे समय में ही *रविन्द्र नाथ टैगोर* ने हमारे देश और जनता के लिए यह दुआ मांगी थी– *जहां मन भय से मुक्त हो और मनुष्य सिर ऊंचा करके चले/ जहां ज्ञान आजाद हो/ जहां शब्द सत्य की गहराइयों से जन्म ले/जहां मनुष्य की अथक चाहत श्रेष्ठता की तरफ़ पैर पसारे/जहां तर्क की स्वच्छ धारा/मृत परंपरा के भयंकर रेगिस्तान में रास्ता न भूल जाए/ हे पिता! (प्रभु )मेरे देश को आजादी का वह स्वर्ग बना दे।*
देश के अलग-अलग हिस्सों में घट रही घटनाओं को देखकर लोगों को बहुत बार यह एहसास होता है कि टैगोर की दुआ फलीभूत नहीं हुई।हमारा देश वैसा नहीं बन सका जैसा टैगोर चाहते थे। हुकूमतों को लोगों का सिर उठा कर चलना मंज़ूर नहीं। देशवासियों को तर्कहीनता के अंधेरे में धकेला जा रहा है और यह तर्कहीनता नफ़रत, हिंसा और सामाजिक टकरावों को जन्म दे रही है।सिर उठाकर चलने वालों के साथ वही किया जा रहा है जैसा कि 3 अक्टूबर,2023 को कुछ पत्रकारों के साथ हुआ–आज बाजार में पा-ब-जौला चलो ।
पत्रकार शायर, चिंतक ,विद्वान, वैज्ञानिक आदि सभी तर्क-संसार के मुसाफिर हैं। जहां पर वे हर तरह से तर्क-संसार के रास्ते चुनते हैं। वहां उनका प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सामना इतिहास बनाने वाली सत्ताधारी शक्तियों के साथ भी होता है। फ़हमीदा रियाज़ ने शायरों के हवाले से लिखा है– *शायर तारीख/इतिहास को भविष्य में अनजाने मोड़ खाते हुए सफ़र की तरह नहीं देखता।वह प्रत्येक पल की पीड़ा को समस्त संसार के साथ जोड़ता है। मसलन वह लोगों के समूह पर हुई पुलिस फायरिंग पर नज़्म लिख देता है। शायर तारीख/इतिहास के समानांतर एक लकीर खींचता है। परिवर्तनकामी संभावनाओं की लकीर। शायर तारीख/इतिहास नहीं है। वह अपनी साहित्यिक समझ से हाथ नहीं खींच सकता।‘* ये शब्द सिर्फ शायरों और पत्रकारों पर ही लागू नहीं होते। बल्कि हर संवेदनशील मनुष्य पर लागू होते हैं।
संवेदनशील मनुष्य समाज में होने वाले अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाते हैं और अपनी असहमति भी प्रकट करते हैं जबकि सत्ता उनको चुप करवाना चाहती हैं ।सरकार उससे सहमत ना होने वाले लोगों को चुप करवाने के लिए हर तरीका इस्तेमाल करती हैं। कई बार लोगों के पास चुप होने के अलावा अन्य कोई रास्ता ही नहीं बचता। वे चुप हो जाते हैं। वह चुप्पी सत्ताधारी नेताओं के आदेशों के साथ सहमति नहीं होती। ऐसी चुप्पी में वह कांटा बनने की ताकत होती है । जो एक न एक दिन सत्ता की गले की हड्डी बन जाती है। सभी सरकारें चाहती हैं कि असहमति रखने वाले पूरी तरह मुंह बंद रखें।
जब वे चुप रहने से इंकार कर देते हैं। शासक उन्हें दबाना और कुचलना चाहते हैं। कहीं पर सरकार अपनी एजेंसियों का इस्तेमाल करती हैं। कहीं पर उसके मददगार कारपोरेट सेक्टर न्यूज़ चैनल और अखबारों पर कब्जे कर लेते हैं और कहीं पर सरकार उनके लिए अन्य परेशानियां पैदा करती है। पर इसका एक ही मकसद होता है कि शासक चुप्पी चाहता है और केवल अपने शब्दों की गूंज ही सुनना चाहता हैं। यह गूंज सुन कर सत्ता अहंकार भरी मस्ती में आ जाती है। सत्ता सहमति रखने वालों को चुप करवा देने की जीत का जश्न मनाती हुई उसे कानून की विजय की तरह पेश करती है ।
गुरु नानक देव जी का कथन है *–तृष्णा होई बहुत किवें न धीजई* अर्थात तृष्णा बढ़ती जाती है ,कभी खत्म नहीं होती। शासकों की तृष्णा तेजी के साथ बढ़ती है। सत्ताधारी भूल जाते हैं कि वर्तमान के गर्भ में उनके साथ असहमति की आवाज पनप रही होती है यही आवाज भविष्य में विस्फोटक बन जाती है।। यह जंग चलती रहती है।जैसे क्यूबा के कवि *हरबर्तो-पैदिया* ने लिखा है– *जरनैल साहेब तेरे आदेशों और मेरे गीतों के बीच में जंग जारी है।*
लोगों के दिलों में पनपती हुई असहमति कभी शासक से डरती है तो कभी सत्ता को ललकार देती है। कभी यह जनविद्रोह का रूप ले लेती है।कभी यह कविता कहानियों , उपन्यासों और गीतों में छिपी होती है।
हर बार लड़ाई का नतीजा चुप में ही नहीं निकलता। बहुत कुछ असहमति रखने वालों की हिम्मत और नजरिए पर निर्भर करता है। अगर हम शासकों के सामने झुकते चले जाते हैं तो उनमें हम झुकाने की ताकत बढ़ जाती हैं। अमेरिका के अश्वेत लोगों के बड़े नेता फ्रेडरिक डग्लस जो खुद गुलाम थे और जिसने बगावत करके आजादी प्राप्त की थी ने 1857 में एक भाषण में कहा था-तानाशाहों की सीमाएं उन लोगों की सहनशक्ति तय करती है जिनका वे दमन करते हैं।इस भाषण में वह यह भी कहता है *‘यदि तुम्हें वे लोग मिल जाएं जो चुपचाप सब कुछ सह लेंगे तो आपको यह भी पता लग जाएगा कि उनके साथ कितना अन्याय और बेइंसाफी की जा सकती है और यह बेइंसाफी तब तक जारी रह सकती है जब तक उस अन्याय का शब्दों या कारवाई के द्वारा विरोध नहीं किया जाता।* हमारे देश में ऐसा दृश्य कृषि-कानूनों के विरोध के लिए चलाए गए आंदोलन के समय देखने को मिला । किसानों ने चुप रहने से इंकार कर दिया और 600 से अधिक किसान उस आंदोलन में शहीद हुए।
मनुष्यता के इतिहास में एक क्षेत्र शासकों के लिए हमेशा समस्याएं पैदा करता रहा ,वह है-कागज और कलम का क्षेत्र। यह नहीं कि शासकों ने इस क्षेत्र को अपनी ताकत बढ़ाने के लिए इस्तेमाल न किया हो। लेकिन असहमति रखने वालों ने भी इस क्षेत्र के द्वारा राज करने वाली ताकतों के विरुद्ध विद्रोह प्रकट किया है। शासकों ने प्रतिमाओं और शिलालेखों पर अपने विचार लिखे । सहमति न रखने वालों ने ताड़ -पत्रों पर अपना विद्रोह दर्ज किया। हुकूमतों के खिलाफ कविताएं, नाटक और ऐतिहासिक वृतांत लिखे। प्रिंटिंग प्रेस के बाद इस क्षेत्र में क्रांति आई।पुस्तकें छपने के साथ-साथ अखबार भी निकलने लगे। अखबारों ने नई दुनिया रचने में अहम भूमिका निभाई। प्रेस-मीडिया की आजादी को लोकतंत्र का पांचवां खंबा माना गया है। जब-जब सरकारें लोकतंत्र में गैर लोकतांत्रिक रास्ते पर चलती हैं।उस समय लेखकों और प्रेस-मीडिया का गला घोंट दिया जाता है। इमरजेंसी के समय यही हुआ था और आज भी हो रहा है।
अमेरिकन विद्वान *करेग-स्मिथ* और उसके साथी विद्वानों ने अपनी पुस्तक ‘विरोधियों को चुप करवाते हुए’ *(silencing the opposition )* में उन तरीकों का विस्तार पूर्वक वर्णन किया है जिन्हें सरकारें इस्तेमाल करती हैं। *करेग* के अनुसार सरकारें असहमति रखने वालों को दो रास्तों में से एक रास्ता चुनने के लिए कहती हैं। ये रास्ते हैं-(assimilation) मिल जाओ या फिर खत्म हो जाओ (elimination) । भारत ने 1975-77 में इमरजेंसी का दौर देखा । शासक चालाक होते है और वे इतिहास से सीखते हैं ।वे जानते हैं कि इमरजेंसी लगाए बिना भी इमरजेंसी जैसा माहौल कैसे बनाया जा सकता है ।
यह रुझान सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दूसरे देशों में भी है। उदाहरण के तौर पर अमेरिका में 2020 में एक पुलिस अधिकारी ने अश्वेत व्यक्ति *जार्ज फ्लाइड* की गर्दन दबाकर उसे मार डाला। उसके बाद दुनियाभर में हुए प्रदर्शनों के दौरान 400 से अधिक पत्रकार उस हमले का शिकार हुए और 120 से ज्यादा पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया।एक अनुमान के अनुसार 2022 में अलग-अलग देशों में 350 पत्रकारों को जेल में भेजा गया ।यूनेस्को के आंकड़ों के अनुसार 2006 से 2020 तक 1229 पत्रकार मारे गए । भारत में *गौरी लंकेश* के कत्ल और से *सिद्दीकी कप्पन* की नजरबंदी के समय यही बात उभर कर सामने आई ।
इस सब के बावजूद सामाजिक कार्यकर्ता,पत्रकार,चिंतक, लेखक और अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने वाले लोग अपने संघर्ष जारी रखते हैं। आज का युग सोशल मीडिया का युग है । टेलीविजन चैनलों के साथ-साथ सोशल मीडिया के पत्रकार बहुत बार उन स्थानों पर पहुंच जाते हैं जहां वे घटनाएं घट रही होती हैं। वे घटनाओं की तस्वीरें खींचते हैं और वीडियो बनाते है । 3 अक्तूबर 2023 को ऐसी ही एक घटना की वीडियो में पुलिस *प्रंजय गुहा ठाकुरता* और *उर्मिलेश* को हिरासत में लेकर थाने की तरफ ले जा रही है। उस दृश्य से फैज अहमद फैज की उपरोक्त पंक्तियां याद आती हैं *-आज बाजार में पा-ब-जौला चलो*। (आज बाजार में बेड़ियां जंजीरा पहनकर चलो।)
इस दिन की गई कई कार्रवाइयों के बारे में यह बताया गया है कि न्यूज़क्लिक, न्यूज़ पोर्टल (इंटरनेट पर खबरें खबरें देने वाली जगह ) के मालिक और मुख्य संपादक *प्रबीर पुरकायस्थ* ने चीन के पक्ष में प्रचार करने के लिए विदेशों से फंड लिए और पिछले तीन सालों के दौरान विवाद ग्रस्त स्रोतों से 39 करोड़ रुपए प्राप्त किए। सरकार को न्यूज़ पोर्टल द्वारा पैसे प्राप्त करने के तरीकों के बारे में जांच करने का पूरा अधिकार है और इस संबंध में दोषी पाए जाने वाले व्यक्तियों के खिलाफ उचित कानूनी कार्रवाई की जानी चाहिए। लेकिन पत्रकारों को परेशान करना सरासर गलत और निंदनीय है।
पत्रकारों के विरुद्ध कार्रवाई का क्या उद्देश्य है ? पुलिस ने उनको इस तरह के सवाल पूछे–क्या उन्होंने नागरिकता विरोधी कानून के विरोध में हुए आंदोलन (जिसका केंद्र शाहीनबाग था) के बारे में खबरें दी ? क्या उन्होंने किसान आंदोलन के बारे में समाचार छापे ?क्या उन्होंने 2020 में दिल्ली में हुए सांप्रदायिक दंगों के बारे में खबरें दी.? क्या उन्होंने जे एन यू में विद्यार्थियों पर पर हुए हमले के बारे में खबरें छापी ..? यहां पर यह सवाल पूछा जाना स्वभाविक है कि क्या जन आंदोलनों के बारे में खबरें लिखना कोई अपराध है ! इसका यह स्पष्ट संदेश है कि सरकार किसी भी तरह की आलोचना बर्दाश्त नहीं करेगी। क्या ऐसे प्रयत्न कामयाब होंगे..? सत्ता के प्रयत्न असमर्थ और कमजोर नहीं होते। उनका असर भी होता है। पर कई बार यह असर ऐसा नहीं होता जैसा कि सत्ताधारी चाहते हैं। इस दिन की घटनाएं पत्रकारों को चुप करवाने में कामयाब नहीं हुई बल्कि इसका असर उल्टा हुआ है । दुनिया में प्रतिदिन अन्याय पूर्ण घटनाएं होती हैं और कभी कोई घटना अचानक सत्ताधारी विरोधी विचारों की प्रतीक बन जाती है।
3 अक्तूबर,2023 के दिन घटी उपरोक्त घटना एक ऐसी ही घटना है। अब फ़ैज़ की ये पंक्तियां —आज बाजार में पा-ब-जौला चलो (आज बाजार में बेड़ियां/जंजीरें पहनकर चलो) पत्रकारों, लेखकों, चिंतकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के मनों में गूंज उठी हैं ।वे सब संघर्ष करने के लिए पहले से भी अधिक तैयार हो गए हैं।
लेखक पूर्व प्रशासक, पंजाबी ट्रिब्यून के संपादक रहे हैं।
पंजाबी से अनुवाद जयपाल ने किया है।