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सामाजिक चेतना जगाने में नाटकों की भूमिका: नोबेल विजेता-दारियो लुइगी एंजेलो फो
गुरबख्श सिंह मोंगा/ सुश्री विजय शर्मा
थियेटर न केवल मनोरंजन का साधन है बल्कि समाज में जागरूकता बढ़ाने का बहुत बड़ा माध्यम है। नाटकों के जरिए प्रवास, पारिवारिक कलह, नैतिक मूल्यों, सत्ता का भ्रष्टाचार आदि पर आधारित विमर्शों को पचास वर्षों तक आगे बढ़ाने वाले इटली वासी दारियो फो को 1997 में साहित्य नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
24 मार्च 1926 को जन्मे दारियो फो एक नाटककार, लेखक एंव इटली के वामपन्थी राजनैतिक पुरोधा थे जिन्हे पूरी दुनिया का समकालीन नाटक-लेखक-निर्देशक माना जाता है। उनके लिखे नाटकों का दुनिया की 30 भाषाओं में अनुवाद हुआ है और इनका प्रदर्शन अर्जेन्टीना, बुलगारिया, कनाडा, चिली, भारत, इरान, नीदरलैंड, पोलैंड, दक्षिण अफ्रीका, दक्षिण कोरिया, स्पेन, श्रीलंका, स्वीडन, इंग्लैंड, अमेरिका एंव यूगोस्लाविया आदि देशों में सफलता से किया गया।
इनके छोटे भाई फुलबियो एक थियेटर निर्देशक थे एंव छोटी बहन वियानका फो एक नामी लेखक थी। इनकी माता पीना रोटा फो जो एक किसान की बेटी थी, ने दो विश्व युद्धों के बीच के संस्मरणों पर एक पुस्तक लिखी (लैंड आफ फ्राग्स- LAND OF FROGS) इनके पिता फेलाईस इटली रेलवे में स्टेशन मास्टर थे और जंहा जहां उनका तबादला हो जाता था, वहीं पर परिवार भी शिफ्ट होता रहता था। फेलाइस एक समाजवादी होने के साथ साथ थियेटर कम्पनी ‘ईबसन’ में एक्टर की भूमिका अदा करते थे। दारियो फो शरणार्थियों और उनके साथियों को स्विटजरलैंड भेजने में गुप्त रूप से अपने पिता की मदद करते थे, जिन्हें लोम्बार्ड के कृषक कहा जाता था।
मिलानो में नाटक मंडली में कार्य करते हुए फो की मुलाकात थियेटर परिवार की बेटी फ्रैंका रामे से हुई। उन्होने साथ रहने का फैसला किया और 24 जून 1954 को दोनो की शादी हो गई। 31 मार्च 1955 को इनके घर बेटे जैकोपो का जन्म हुआ जो बड़ा हो कर लेखक बना।
रोम यूनिवर्सिटी में ड्रामा प्रोफेसर के पद पर कार्य करते हुए अनेक सेमिनारों का संचालन दारियो फो ने किया। 1987 में ईटली टेलीविजन पर ‘फोर्सड ट्रांसमिशन’ नामक शो प्रस्तुत किया जिसमें फो-रामे दोनों (पति-पत्नी) शामिल थे। 1989 में इन्होने ‘पोप एंव डायन’ स्क्रिप्ट लिखी जिसे इटली के सर्वाधिक देखे जाने वाले शो का इनाम दिया गया।
पचास साल तक इटली के मंच पर राज करने वाले दारियो फो ने द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण अपनी शिक्षा पूरी नहीं की। उन्होंने आर्किटेक्ट की पढ़ाई के लिए नाम लिखवाया मगर तभी द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हो गया। किसी तरह वे इटली की सोशल रिपब्लिक सेना से भी बच निकले और युद्ध के अंत तक छिपे रहे। बाद में उन्हें आर्किटेक्ट के सहायक के रूप में पार्ट टाइम काम मिल गया। इसके साथ वे थियेटर के सीन का चित्रांकन करने लगे और अपनी पेंटिग तथा ड्रांइग का प्रदर्शन भी करने लगे। चित्रांकन से उनका अनुराग ऐसा था कि उन्होंने अपने नोबेल भाषण को भी चित्रांकन से सजाकर दर्शकों, श्रोताओं में वितरित किया था और इस तरह उनका नोबेल भाषण एक संवाद की तरह था। वे सदा प्रश्न पूछते और अन्याय का प्रतिकार करते। दारियो फो ‘कम्युनिटी थियेटर आंदोलन’ से जुड़े थे, वहां वे इम्प्रोवाइज्ड मोनोलाग प्रस्तुत करते थे। सन् 1951 में उन्होंने ‘पुअर लिटिल थिंग’ नाम से एक व्यंग्यात्मक मोनोलाग की श्रृंखला मिलान में प्रस्तुत की। ‘आफिशियल’ थियेटर में यह उनका पहला अनुभव था। सन् 1953-54 में वें पैरेंटी तथा जिउस्टिनो डुरानो के साथ लेखक और अभिनेता के तौर पर काम करते रहे। इस समय उन्होंने ‘ए फिंगर इन दि आई’, ‘फिट टू बी टाइड अप’ जैसे नाटक किए, जो सेंसरशिप के विरोध में थे।
खूब पढ़ाकू दारियो फो ने ग्राम्सी, बेख्त, मायाकोव्स्की, लोर्का सबको पढ़ रखा था। कहीं भी मानवता का हनन होता, वे उसे अपने थियेटर में उतार लेते।
एक आदमी अपने आप में आंदोलन बन सकता है। फो जीते जी आंदोलन बन गए। जब सन् 1967 में फो ने वियतनाम युद्ध, ली हारवें ओसवाल्ड तथा जान एफ कैनेडी की हत्याओं को अपने नाटको में पिरोया तब नतीजा हुआ अमेरिका में इन लोगो का प्रवेश निषेध।
पति-पत्नी दोनों मिलकर इटली तथा अन्य देशों मे अपना काम मंचित करते। वे सर्कस, चैक, सांस्कृतिक क्लब, यूनिवर्सिटी के असेंबली हाल एवं फैक्टरी के हड़ताल कर रहे कामगारों के बीच अपना शो करते। उन्होंने एकल, मूक नाटकों के साथ-साथ झंडों, सब आकार-प्रकार की कठपुतलियों साथ मूक अभिनय भी किया।
दारियो फो ने इटली राष्ट्रीय रेडियो के लिए करीब दो दर्जन व्यंग्यात्मक एकांकी बनाए। नतीजन सत्ता मे बैठे लोग इसे सहन न कर सके और जल्द ही कार्यक्रम बंद कर दिया गया। फो ने इन्हें अपनी खास शैली में बाद में विकसित किया। ये नाटक बाइबिल की कहानियों का रूपांतरण हैं, साथ ही साथ रोमियो-जूलियट, ओथेलो, हेमलेट, जूलियस सीजर आदि को भी इसमें लिया गया।
इनके शो इतने ज्यादा प्रसिद्ध हुए कि प्रसारण के समय ट्रैफिक रुक जाता, बार में भीड़ जमा हो जाती। टैक्सी वाले शिकायत करते कि नाटक के चलते उन्हें कोई सवारी नहीं मिलती। उनके नाटकों का 30 भाषाओं में अनुवाद हुआ और अर्जेंटीना, बुल्गारिया, कनाडा, चिली, ईरान, नीदरलैंड, पोलैंड, रोमानिया, दक्षिण अफ्रीका, दक्षिण कोरिया, स्पेन, श्रीलंका, स्वीडन, भारत सहित दुनिया भर में प्रदर्शन होता है।
एक बार जब फो-रामे ने एक पत्रकार की हत्या की अंदरूनी बातें दिखाई तो तहलका मच गया। इसके लिए इन लोगों को खून से लिखे और छोटे ताबूतों में रखकर धमकी भरे पत्र भी मिलने लगे। प्रशंसा और धमकी दोनों जमकर मिल रही थी, नतीजा हुआ सात साल के बेटे के साथ दोनों को पुलिस से सुरक्षा लेनी पड़ी।
दुनिया में कहीं भी मानवीयता का हनन होता, वे उस पर प्रश्न उठाते, अन्याय के खिलाफ आवाज उठाते। हालाँकि वे अपने थियेटर में कामेडी का प्रयोग करते, लेकिन भ्रष्ट लोग तिलमिला उठते। ये अपने थियेटर में बहुत शक्तिशाली तरीके से भ्रष्टाचार, बेईमानी और घमंड की बात उठाते, जिस कारण इन्हें दर्शकों की गंभीर प्रतिक्रिया प्राप्त होती। दारियो फो अपने एकल शो के लिए प्रसिद्ध थे।
सन् 1975 में उन्होंने ‘फैनफानी किडनैप्ड’ लिखा, जिसकी पृष्ठभूमि में उस साल का राजनीतिक चुनाव था और उनका नाटक ‘मदर्स मरिजुआना इज द बेस्ट’ इटली के कामगर वर्ग में बढ़ती नशाखोरी की समस्या को संबोधित था।
सन् 1974 के उनके प्रहसन ‘कांट पे, वोंट पे!’ में दो हाउस वाइफ हैं, जो कुछ छिपाती नहीं हैं, दोनों के पति सुपरमार्केट की लूट में हिस्सेदार हैं। दोनों स्त्रियाँ निरंतर सुपरमार्केट से सामान चुराकर लाते हुए दिखाती हैं कि वे गर्भवती हैं, जबकि उनके कपड़ो के नीचे गर्भ नहीं, चुराया हुआ सामान होता था। यह प्रहसन वर्किंग क्लास स्त्रियों के संघर्ष पर ध्यान केंद्रित करता है।
इसी तरह क्रिस्टोफर कोलंबस के ऊपर फो ने सन् 1962 में ‘इसाबोल, थ्री टाल शिप्स, एंड ए कोन मैन’ बनाया। रोम में इसका प्रदर्शन होते ही कुछ लोगों ने इन पर आक्रमण कर दिया, पंरतु दूसरे लोगों ने इन लोगों का साथ दिया और इनकी रक्षा की। कलाकार प्रत्येक अनुभव को सृजन का बायस बना सकता है।
सन् 1997 में दारियो फो को साहित्य का नोबेल पुरूस्कार प्राप्त हुआ। 7 दिसंबर 1997 को दिया गया उनका नोबेल भाषण जीवंतता, कटाक्ष और उनकी अपनी विधा नाटक के प्रति प्रतिबद्धता का एक नायाब नमूना है। वे नाटककार हैं, इसलिए बिना दर्शकों को साथ लिये उनका काम सफल नहीं हो सकता। अपने भाषण के दौरान भी वे अपने श्रोताओं को अपने साथ लेकर चलते हैं, उन्हें भाषण में शामिल करते हैं। भाषण को वे बातचीत करते हैं और इस बातचीत में साझेदारी के लिए श्रोताओं को आमंत्रित करते हैं। उनकी कल्पना को पंख लगाकर अपने साथ-साथ उन्हें एक दूसरे लोक की सैर पर ले जाते हैं। सत्ता और शक्ति की आँखों की पट्टी खोलते हैं, उस पर जमकर प्रहार करते हैं, श्रोताओं-पाठकों की आँख में उँगली डालकर उन्हें उनके समय और समाज से रू-ब-रू कराते हैं। वे हमें हमारे दायित्व से अवगत कराते हैं। इस भाषण के दौरान वे कई लोगों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। पूरा भाषण हास्य-व्यंग्य का एक बेमिसाल नमूना है। इसमें वे अपने बचपन के उस स्थान का भी चित्रण करते हैं, जहाँ काँच फुलाने की फैक्टरी थी और माना जाता है कि इटली में सबसे अधिक संख्या में पागल लोग वहीं रहते हैं। उन्होंने अपने भाषण का शीर्षक समान फ्रेडेरिक द्वितीय के समय के एक कानून से उठाया है। भाषण का शीर्षक ‘CONTRAJOGULATORS OBLOQURNTES’ लैटिन भाषा में हैं, जिसका अंग्रेजी अनुवाद ’AGAINST JESTERS, WHO DEFAME AND INSULT’ होगा। अगर इसका हिंदी अनुवाद किया जाए तो शीर्षक ‘मसखरा जो निंदा और अपमान करता है’ जैसा होगा।
नोबेल समिति ने सन् 1997 का साहित्य का नोबेल पुरस्कार दारियो फो को देते हुए उनकी प्रशंसा में कहा, ‘‘जो मध्ययुग के विदूषकों का अनुकरण करते हुए सत्ता पर चाबुक फटकारता है और दलित की गरिमा को कायम करता है।’’ फो को नोबेल पुरूस्कार मिलने की घोषणा के तत्काल बाद क्या-क्या हुआ, इसका अपने भाषण में वे सजीव चित्र खीचंते है। उनके मित्रों, विशिष्ट रचनाकारों ने कई रेडियो और टेलीविजन साक्षात्कारों मं कहा कि सर्वोच्च पुरूस्कार निसंदेह स्वीडिश अकादमी को दिया जाना चाहिए, क्योंकि इन लोगो ने एक मसखरे को नोबेल पुरूस्कार देने का साहस दिखाया। फो अपने मित्रो से सहमत होते हैं और अकादमी के साहस को रेखांकित करते हुए कहते है कि, ‘‘इस साहस के काम ने उत्तेजना की लहर दौड़ा दी। दूर-दूर तक हलचल मच गई।’’ जो खलबली मची थी, उसका जायजा लेते हुए वे बताते हैं कि उदात्त कवि और लेखक, जो सामान्यतः बहुत अभिमानी स्तर पर रहते हैं, जो शायद ही कभी जमीन पर रहने वालो की सुध लेते हैं, वे अचानक एक तरह के तूफान में घिर गए, ये अपने उच्च आसन से लुढ़कते हुए जमीन पर मुँह के बल कीचड़ में आ गिरे। स्वीडिश अकादमी, इसके सदस्यों और उनकी सात पुश्तों पर अपमान और गालियों की बौछार होने लगी।
इस तरह उनका नोबेल भाषण भी व्यंग्य का एक नायाब नमूना है। वे बचपन के कहानी सुनाने वाले लोगों के ऋणी हैं और बताते हैं कि ये कहानी सुनाने वाले अकादमी के ऋणी हैं, क्योकि अकादमी ने उनके एक शिष्य को आज सम्मानित किया है। लोग कसम खाकर कहते हैं कि जब फो के शहर में उनके एक कहानी कहने वाले को नोबेल पुरस्कार मिलने की खबर पहुँची तो पचास साल से बंद, ठंडी पड़ी एक चिमनी अचानक जग गई और लपटें फेंकने लगी।
नोबेल समिति ने उनके भाषण को ‘निस्संदेह सबसे तेज-तर्रार नाटकीय एवं हास्यपूर्ण स्वीकृति भाषण’ की संज्ञा दी। नोबेल पुरस्कार से एक बड़ी धनराशि जुड़ी है। फो तथा रामे ने नोबेल से मिली रकम को अपंग लोगों के कल्याण के लिए दान कर दिया।
हरफनमौला मसखरा दारियो फो महान नाटककार रूजांटे बेओल्को को मोलियर के साथ अपना गुरु मानते हैं। रूजांटे को न केवल स्वीडन और फ्रांस के लोग बल्कि नार्वे और फिनलैंड के लोग भी बहुत कम जानते हैं, यहाँ तक कि इटली में भी वह अनजाना रहा है। रूजांटे और मोलियर अभिनेता और नाटककार दोनों थे। दोनों को उनके समय के अन्य साहित्यकारों से उपेक्षा मिली। कारण था, ये दोनों रोजमर्रा के जीवन को मंच पर लाते थे। आम आदमी की खुशी और गम उनकी कथा होती थी।
फो अपनी गंभीर बात को हास्य-व्यंग्य के साथ कहते हैं। नोबेल पुरस्कार समारोह में होने वाले प्रीतिभोज में कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए भी अपनी बात चतुराई से कहते हैं। नार्वे की रानी क्रिस्टीना के लिए अपना टोस्ट उठाते हुए कहते हैं कि ‘‘जैसे क्रिस्टीना ने सत्रहवीं सदी में इटली पहुँचकर पोप एलेक्जेंडर छठवें से जान-पहचान बनाई, वैसा ही थियेटर प्रेमियों को करना चाहिए।’’ उस समय का पोप उदार विचारों वाला था। इसने कई समाज सुधार किए, इटली से निष्कासित थियेटर कर्मियों को वापस बुलाया।
रोम में वे राबर्टो रोसेलिनी तथा इंग्रिड बर्गमैन के पड़ोस में रहते थे। दारियो फो तथा फ्रैंका रामे ने कुछ समय के लिए सिनेमा में भी हाथ आजमाया। फो स्क्रीनप्लेराइटर थे, साथ ही उन्होंने कई फिल्मों का निर्माण किया।
जिस पर्यावरण को लेकर हम आज चिंतित हैं, उसके लिए वे बहुत पहले ही अपनी प्रतिबद्धता दिखा चुके थे। सन् 1980 में ही उन्होंने अपने बेटे के साथ मिलकर पर्यावरण संरक्षण का काम प्रारंभ कर दिया था। प्राकृतिक घाटी, प्राचीन धरोहरों के संरक्षण में इन लोगों ने खुद को झोंक दिया। इनके द्वारा संरक्षित घाटी संस्कृति का अड्डा बन गई, यहाँ कलाकारों-संस्कृतिकर्मियों का आना-जाना शुरू हो गया। थियेटर, कार्टून, नृत्य, लेखन, मनोविज्ञान, शिक्षा की कार्यशालाएँ आयोजित होने लगीं। समाज के बहिष्कृत, अपंग, हाशिये के लोगों के लिए कार्यक्रम होने लगे।
पेरिस में इनका नाटक देखने राष्ट्रपति मितरां आए और इन्हें प्रशंसा पत्र दिया। सन् 1991 में लिखे ‘ल एरोनिआ’ की थीम आज की समस्या पर आधारित है। इसमें एक माँ के तीन बच्चे हैं, तीनो ड्रग्स के लती हैं, एक मर जाता हैं, दूसरे को एड्स हैं, वह भी मर जाता है, तीसरे को जिलाए रखने के लिए माँ देह व्यापार करने लगती है। बाद में नृत्य मूक अभिनय, गीत मिश्रण से पार्लियामेंट के भीतर-बाहर भ्रष्टाचार को दिखाता एक और नाटक लिखा। अब दारियो फो पर उम्र का प्रभाव दिखने लगा था। सन् 1994-95 में ये अपने नाटकों के साथ विश्वभ्रमण पर जाने वाले थे कि तभी फो की आँख की 80 प्रतिशत रोशनी चली गई, फ्रैंका इटली में ही काम करती रहीं। करीब एक साल बाद रोशनी लौटने लगी, दो साल में फो फिर से काम करने लगे। सेमिनार, वर्कशाप, मंचन की गाड़ी फिर से चल पड़ी। सन् 1997 में बेल्जियम के एक विश्वविद्यालय ने फो को डाक्टरेट की उपाधि दी और फिर मिला नोबेल। दारियो नोबेल पुरूस्कार मिलने के बाद भी सक्रिय रहे।
फ्रैंका रामे की 29 मई 2013 को 83 वर्ष की अवस्था में मृत्यु हुई। उसके कुछ साल बाद 13 अक्टूबर 2016 को मिलान में दारियों फो की मृत्यु हुई। उस समय उनकी उम्र 90 वर्ष थी।