बुद्ध, आंबेडकर और साम्यवाद

 

अशोक कुमार 

अंबेडकर, स्वयं को पश्चिम के पूंजीवादी अर्थशास्त्री, इतिहासज्ञ, विचारक और व्यंग्यकार कार्लाइल का शिष्य मानते थे । *उन्हीं कार्लाइल ने राजनीतिक अर्थव्यवस्था को ‘सूकर दर्शन’ यानी सूअरों का दर्शन कहा था ।* अंबेडकर भी उन्हीं का अनुसरण करते हुए अपनी बहुचर्चित पुस्तिका *’बुद्ध और कार्ल मार्क्स’* में, मार्क्स और बुद्ध का कथित रूप से, गंभीरतापूर्वक तुलनात्मक अध्ययन करने के बाद, इस आत्यंतिक निष्कर्ष पर पहुंचे कि *मार्क्सवाद के दर्शन का सारसूत्र यह है कि खाओ, पियो और मौज करो, सुबह मक्खन लगा टोस्ट खाओ, रात में सिनेमा इत्यादि देखो, मौज करो और नर्म बिस्तर पर सो जाओ ।* लेकिन ऐसा करते हुए उन्होंने कब, कहां, कौन से और किस मार्क्सवादी को देख लिया, यह तो वही जानें ।

*लेकिन मार्क्सवाद की घोर निंदा करते हुए कार्लाइल की ही तर्ज़ पर उन्होंने भी मार्क्सवाद को ‘सूअरों का दर्शन’ तक कह डाला, क्योंकि उनके अनुसार, मनुष्य केवल भौतिक सुख ही नहीं चाहता, बल्कि आध्यात्मिक तृप्ति भी चाहता है । वे आध्यात्मिक सुख को प्राथमिक और भौतिक सुख को दोयम मानते थे । उनका मत था कि साम्यवादी दर्शन का उद्देश्य सूअरों को मोटा करना लगता है, मानो मनुष्य सूअरों से बेहतर न हो । यह उनके द्वारा मार्क्सवादी दर्शन की निंदा की चरम पराकाष्ठा थी ।

मार्क्सवाद की ऐसी निंदा तो मार्क्सवाद के घोर दुश्मनों ने भी नहीं की थी ।* जीवन के अंतिम दिनों तक उनके इस निष्कर्ष में कोई सकारात्मक बदलाव आया हो, ऐसा भी नहीं, क्योंकि मार्क्स और बुद्ध के बीच उनका तुलनात्मक लेखन उन्होंने अपने जीवन के अंतिम महीनों में ही लिखा था । उन्होंने कुछ कम्युनिस्टों द्वारा की गई राजनीतिक भूलों को भी मार्क्सवाद की निंदा का आधार बनाया । लेकिन कम्युनिस्टों ने क्या भूलें की और कब की, उनका भी उन्होंने कहीं कोई ठोस संदर्भ नहीं दिया है ।

दूसरी बात, मार्क्सवाद की निंदा का एक बड़ा आधार उन्होंने कथित रूप से मार्क्सवादी दर्शन में मौजूद हिंसा को बताया । लेकिन इस संबंध में भी उन्होंने एक भी संदर्भ अपने पूरे लेखन में, ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित प्रामाणिक तौर पर कहीं भी नहीं दिया । वे यह इंगित करने में असफल रहे कि कम्युनिस्टों ने कब और कहां हिंसात्मक गतिविधियों को अंजाम दिया, *हालांकि वे हमेशा ही यह दोहराते रहे, कि भारत के सारे कम्युनिस्टों ने मिलकर भी मार्क्सवाद पर इतने ग्रंथ नहीं पढ़े होंगे जितने कि उन्होंने अकेले पढ़े हैं ।* हालांकि उनके समय में, बहुत कम मार्क्सवादी साहित्य उपलब्ध था । इसीलिए रविंद्रनाथ टैगोर, राधाकृष्णन, पेरियार, शौकत उस्मानी व अन्य बहुत सारे बुद्धिजीवियों ने जिज्ञासावश स्वयं रूस जाकर वहां की नवगठित समाजवादी व्यवस्था को देखने और समझने की कोशिश की ।

एमएन राय जैसे बुद्धिजीवी ने तो रूसी क्रांति के सर्वेसर्वा लेनिन से मुलाकात भी की थी । लेकिन अंबेडकर ने न तो कभी रूस जाने में कोई उत्सुकता दिखाई और न ही उन्होंने कभी रूस के क्रांतिकारी नेताओं से मिलने में ही कोई रस लिया । इसके विपरीत, रूस, चीन और पूर्वी यूरोप के दर्जनों देशों में संपन्न हुईं समाजवादी क्रांतियों की निंदा करते हुए, *वे कम्युनिस्टों से प्रश्न करते हैं कि क्या वे (कम्युनिस्ट) पूंजीपतियों की हत्या किए बगैर (बिना हिंसा किए) अपने अभीष्ट उद्देश्यों को पूरा नहीं कर सकते थे ?*

अब उनको कौन समझाए कि मनुष्य जाति के इतिहास में एक भी ऐसा दृष्टांत नहीं मिलता जब शोषकों ने बिना किसी प्रतिवाद के बुद्ध, कबीर, रैदास और नानक जैसे बुद्धपुरुषों और उनके धार्मिक उपदेशों और प्रवचनों से अभिप्रेरित होकर, शासनसत्ता दलित-पीड़ित वर्ग के हाथों में बिना किसी हिंसा और प्रतिवाद के या स्वेच्छा से खुशी-खुशी सौंप दी हो ।

याद कीजिए, जब जनवरी, 1818 में अंग्रेजों की तरफ़ से भीमा कोरेगांव युद्ध को अंजाम देने से पहले, संधि प्रस्ताव लेकर गए, महारों की सेना के नेता सिद्धनाक ने बाजीराव पेशवा के दरबार में उपस्थित होकर पेशवाओं से हाथ जोड़कर, प्रार्थना करते हुए निवेदन किया था कि हम आपकी ओर से युद्ध लड़कर अंग्रेजों को यहां से खदेड़ सकते हैं । लेकिन युद्ध के बाद, आपके राज में हमारा क्या स्थान होगा ? क्या हमें मानवीय अधिकार दिए जाने की व्यवस्था आप करेंगे ?

पेशवाओं ने दो टूक जवाब देते हुए कहा था कि तलवार की नोक पर पड़े धूल के एक कण के बराबर भी तुम्हारी जगह हमारे राज्य में नहीं हो सकती । उसके बाद, मज़बूरीवश ही, महारों की सेना को युद्ध का बिगुल बजाना पड़ा । इस युद्ध में, 500 महारोंं सेना ने, पेशवाओं की 28000 सेना को गाजर-मूली की तरह काट डाला और विजय पताका फहरा दी । इस भीषण हिंसा और रक्तपात से भरी जीत की प्रशंसा करते हुए अंबेडकर आजीवन गौरवान्वित होते रहे, और अपने जीवित रहने तक वे हर वर्ष महारों की जीत का उत्सव मनाने के लिए, भीमा कोरेगांव स्थित, अंग्रेजों द्वारा बनाए विजय स्तंभ पर जश्न मनाने के लिए जाते रहे ।

अब अंबेडकर से भी पूछा जा सकता है, कि क्या महारों की सेना बिना किसी की हिंसा के बुद्ध द्वारा अहिंसा पर दिए गए उपदेशों और बुद्ध के द्वारा प्रतिस्थापित हृदयपरिवर्तन के सिद्धांतों के द्वारा, पेशवाओं को प्रेम से समझा-बुझाकर, अपने अभीष्ट उद्देश्यों को पूरा नहीं कर सकते थी ? *”जो आंखें सिर्फ़ गंदगी में उत्सुक हैं, उसे हिमालय की ऊंचाई (एवरेस्ट) पर भी गंदगी दिख जाती है ।”* क्या अपने इस वक्तव्य को आप अंबेडकर पर भी लागू करेंगे ? यह सही है कि बुद्ध ने कभी हिंसा की बात नहीं की ।

उन्होंने हमेशा ही प्रेम, करुणा और मैत्री की बात कही । लेकिन हिंसा और अहिंसा के फ़र्क को सूक्ष्मतापूर्वक समझना होगा । मेरे देखे, पेशवाओं को मौलिक रूप से हिंसक खा जाना चाहिए क्योंकि शासक के रूप में उनका आत्यंतिक उद्देश्य दलित-शोषित जनता का शोषण और दमन करना ही था, और वे उस दमनचक्र को जारी रखने के लिए मारकाट यानी हिंसा का बेदर्दी से इस्तेमाल कर रहे थे । लेकिन महारों की सेना ने भी युद्ध किया, भयंकर हिंसा की, लेकिन उनकी हिंसा का उद्देश्य कोई दूसरों का शोषण और दमन करना नहीं, बल्कि पेशवाओं के द्वारा उनपर हजारों वर्षों से किए जा रहे दमनचक्र से हमेशा के लिए मुक्त होना था । महारों ने पेशवाओं के खिलाफ़ भयंकर और कथित रूप से हिंसक युद्ध लड़ा और जीता ।

500 महारों की छोटी सी संख्या और साधनहीन सेना द्वारा पेशवाओं की 28000 की बड़ी और प्रशिक्षित सेना को गाजर-मूली की तरह काट डालना, कोई मामूली हिंसा की घटना नहीं हो सकती । लेकिन अपने अस्तित्व की रक्षा करने को हिंसा कैसे कहा जा सकता है ? मेरे देखे, महारों की ओर से लड़ा गया वह युद्ध परम अहिंसक युद्ध था, और पेशवाओं की ओर से लड़ा गया यह युद्ध अति क्रूर, आतंकी और हिंसक युद्ध कहा जाएगा ।

पूंजीवादी बुद्धिजीवियों ने लेनिन की एक तस्वीर गढ़ी हुई थी की लेनिन एक अति हिंसक और क्रूर तानाशाह है । लेकिन जीवी कृष्णराव ने सन् 1921 में अंग्रेजी भाषा में लेनिन की पहली जीवनी प्रस्तुत की । उन्होंने इस तर्क की निंदा की कि लेनिन हिंसा के लिए हिंसा का इस्तेमाल करते हैं । उनके अनुसार, *”यह कहना कि लेनिन मात्र हिंसा करने के उद्देश्य से हिंसा करते हैं, भयंकर झूठ है ।

लेनिन को हिंसा से उतनी ही घृणा हैं जितनी गांधी को । लेकिन यदि निरंकुश शासक हिंसा का प्रयोग कर उसके द्वारा सफ़लता प्राप्त करता है, तो लेनिन को उसी तरीके से जवाब देने व सफ़लता प्राप्त करने में कोई हिचक नहीं होगी । वे महसूस करते हैं कि वे सर्वहारा वर्ग के कल्याण के समर्थक हैं, और विश्व के मज़दूरों की भलाई के लिए वे अपना जीवन तक न्यौछावर कर सकते हैं ।”* (लेनिन भारतीय दृष्टि में, पृष्ठ 15)

इसी तरह कन्नड़ भाषा में लेनिन की जीवनी के लेखक गोरख कहते हैं, *”उनके (लेनिन के) समान उद्देश्य हैं, विश्व से बुराइयां दूर करना, गरीबों को शोषण से छुटकारा दिलाना, तथा हर प्रकार की निरंकुशता को नष्ट करना ।”* (लेनिन भारतीय दृष्टि में, पृष्ठ 15) इसी तरह, केसरी लिखते हैं, *”लेनिन रक्तपिपासु नहीं है, वह तो मानवता का सहृदय प्रेमी है । 6 तथा 7 नवंबर के दिन ऐतिहासिक होंगे, क्योंकि इन्हीं दो दिनों में, रूस में, बिना खून का एक कतरा बहाए, क्रांति हुई ।”* (मॉरल विक्ट्री ऑफ लेनिन, केसरी, 21 अगस्त, 1920, लेनिन भारतीय दृष्टि में, पृष्ठ 80-81 में उद्धृत) इतने पर भी अंबेडकर विभिन्न देशों में हुई सामाजिक क्रांतियों में हुई न जाने कौन सी हिंसा की बात कर रहे थे ?

 

याद रहे, कोई भी युद्ध चाहे उसका उद्देश कितना भी सकारात्मक क्यों न हो, बिना हिंसा के नहीं जीता जा सकता । इसीलिए महारों ने उस युद्ध में, चाहे जितनी भी हिंसा क्यों न की हो, उन्हें अहिंसक ही कहा जाना उचित होगा । हिंसा और अहिंसा का फ़र्क और निर्धारण, संपन्न हुई क्रांतियों में अंतर्निहित उद्देश्यों और आत्यंतिक लक्ष्यों के आधार पर ही तय किया जाना चाहिए । लेकिन हम बंधी-बंधाई धारणाओं का अनुगमन करते रहे हैं ।

इसीलिए हिंसा और अहिंसा के बीच फर्क को भी हम परंपरागत विचार-सरणी, पूर्व धारणाओं और प्रचलित मान्यताओं को आधार को बनाकर ही करते रहे हैं । चूंकि हमारा अपना कोई मौलिक चिंतन नहीं होता, हम प्रायः दूसरों के द्वारा बताई गई, बांधी-बंधाई धारणाओं का अंधानुगमन करने के आदी हो चुके हैं, समस्या की असली जड़ यहीं से शुरू होती है । अंबेडकर भी, हिंसा और अहिंसा के संबंध में, इसी वैचारिक भ्रम और भटकाव के कारण उनके बीच मौजूद मूलभूत फ़र्क को इंगित कर पाने में असफ़ल रहे ।

शायद आप जानते हों कि *दुनिया में जितने भी पाप, अपराध, आतंक, हिंसा, लोभ, लालच, द्वेष, चोरी, काम, क्रोध, डकैती, ईर्ष्या, शोषण, दमन जैसी सामाजिक बुराईयां मौजूद हैं, उनका मूल आधार श्रम का शोषण और निजी संपत्ति पर आधारित समाज व्यवस्था ही रही है । ये सभी मानवीय विकृतियां, समाज के वर्गों में बंट जाने का ही परिणाम रहे हैं ।* किसी धर्म विशेष या किसी बुद्धपुरूष के बताए मार्ग पर चलने या न चलने से इन मानवीय विकृतियों का कभी कोई लेनादेना नहीं रहा है ।

तत्कालीन समय में अति प्रगतिशील और तर्कपूर्ण होने के बावजूद, बुद्ध ने भी हिंसा, पाप, आतंक, चोरी, शोषण और दमन के उपरोक्त मूल आधारों पर कभी चोट नहीं की । मूल आधारों को नष्ट किए बगैर नैतिकता, सत्य, अहिंसा, प्रेम, करुणा, बंधुता जैसी मानवीय भावों को किसी भी सूरत में व्यवहारिक रूप नहीं दिया जा सकता । यह असंभव है । इसीलिए आज भी बौद्ध हो जाने के बावजूद, दलितों का शोषण, दमन और अत्याचार कम नहीं हुए हैं । वर्णव्यवस्था और जातिवाद जैसी सामंती संस्थाएं, नए और आधुनिक रंगरूपों में, नए-नए लिबासों में और भी ज़्यादा संगठित होकर सघनतम रूप में आज भी जड़ जमाए बैठी हैं । बुद्ध और उनका धर्म आज भी इन अमानवीय संस्थाओं का बाल भी बांका नहीं कर सका है ।

निसंकोच देखा और कहा जा सकता है कि परोक्ष रूप से दलितों पर अत्याचारों के लिए, बौद्धधर्म भी उतना ही जिम्मेदार रहा है, जितना कि अन्य धर्म । यह बात अटपटी जरूर लगेगी, लेकिन तथ्यात्मक रूप से बिलकुल सही है । लेकिन हम वही देख लेते है, को हमें दूसरों (शोषकवर्ग) के द्वारा दिखाया जाता रहा है, और जो हम अपनी सुविधानुसार देखना चाहते हैं, और फिर उसी के अनुरूप तर्कों को इकट्ठा करके या यूं कहें कि कुतर्कों के साथ, बहसों में उतर जाते हैं । दूसरी बात, भारतीय दर्शन त्याग, तपस्या और संयम की बात करते हैं, यह फिजूल की बकवास के सिवाय कुछ नहीं ।

प्राचीन समय में जिन ऋषि मुनियों, साधु-संतों और दार्शनिकों ने इन सिद्धांतों को गढ़ा उनका जीवन अतिशय भोगविलास से परिपूर्ण रहा था । उनके अतिशय भोगविलास की कीमत उस समय भी मेहनतकश वर्ग ही भुगत रहा था । इस भोगविलास को स्थाई रूप देने के लिए उन्हीं कथित ऋषि-मुनियों ने वर्णव्यवस्था और जातिवाद जैसी संस्थाओं को जन्म दिया । कालांतर में, इन संस्थाओं का धार्मिक रूप से पवित्रीकरण किया गया । जिन कथित दार्शनिकों, बुद्धिजीवियों और विचारकों ने ये सिद्धांत गढ़े, वे शोषकवर्ग के प्रतिनिधि के तौर पर ही कार्य कर रहे थे । इसीलिए उनकी वे बड़ी-बड़ी बातें, उपदेश, प्रवचन इत्यादि सिर्फ़ काग़ज़ी बातें रही हैं ।

असलियत तो यह है कि ये सभी अच्छे-अच्छे उपदेश, विचार और सिद्धांत, शोषकवर्ग की और से दलित-शोषित पीड़ितवर्ग को दिए गए उपदेश और दिशा निर्देश मात्र रहे हैं । यह भी झूठ है कि चार्वाक दर्शन केवल भोग की बात करता है । नहीं चार्वाक दर्शन तत्कालीन दार्शनिक पाखंडों के खिलाफ़, एक प्रतिक्रिया और एक विद्रोही धारा रही थी । तीसरी बात, यह भी बड़ी भ्रामक धारणा है कि भोग कोई पापकृत्य है । नहीं भोग पापकृत्य बन जाता है, जब भोग सामग्री (उत्पादन) पर चंद श्रमशून्य शक्तियों यानी कि कामचोर लोगों का एक ऐसा अल्पसंख्यक गिरोह, जो जिसका भोग सामग्री को पैदा करने में कोई योगदान नहीं होता, वह कब्जा कर लेता है, और फिर उसका उपयोग, भोग सामग्री को पैदा करने वाले बहुसंख्यक समूह का शोषण और दमन करने लगता है । इसीलिए पाप और पुण्य और उससे संबंधित सभी धर्मशास्त्र और धारणाएं भी शोषकवर्ग द्वारा दलित-शोषित श्रमजीवी वर्ग के खिलाफ़ गढ़ी गई साजिशों का ही हिस्सा रही हैं ।

मार्क्सवाद की तो धारणा यह है, कि खूब उत्पादन हो, और सभी समान रूप से, यथासंभव भोग करें । लेकिन दस में से एक आदमी खूब भोगविलासपूर्ण जीवन व्यतीत करे और नौ आदमी भूख से तड़प तड़प कर मर जाएं, यह पाशविक वृत्ति नहीं तो और क्या है ? यह हिंसा और पाप का चरम स्वरूप नहीं तो और क्या है ? नहीं, मार्क्सवाद भोग के ख़िलाफ़ नहीं, बल्कि भोग के सामाजिकरण के पक्ष में है । इसीलिए मार्क्सवाद उत्पादन के साधनों और उत्पादन (भोग सामग्री) द्वारा किसी व्यक्ति या समूह के शोषण और दमन के लिए इस्तेमाल की कतई इजाजत नहीं देता । इसीलिए भोग कोई निंदा का विषय नहीं हो सकता । निंदा तो असमान भोग करने की कुत्सित और जानवरी प्रवृत्ति की जानी चाहिए ।

 

मार्क्स द्वारा की गई इतिहास की आर्थिक व्याख्या भी अंबेडकर द्वारा मार्क्सवाद की निंदा का एक मुख्य कारण रहा । अंबेडकर इतिहास ही धार्मिक व्याख्या के पक्ष में थे । इसीलिए उनका मानना था कि प्रत्येक राजनीतिक क्रांति से पहले धार्मिक क्रांति आवश्यक है । इसी कथित धर्मक्रांति के कारण ही वे चंद्रगुप्त मौर्य और अशोक के शासनकाल को भारतीय इतिहास का स्वर्णकाल घोषित करते हैं । उनके शासनकाल को वे किन्हीं कथित धर्मक्रांतियों का परिणाम मानते रहे । यह सही है मार्क्स ने इतिहास की आर्थिक व्याख्या की है । लेकिन यह भ्रांतिपूर्ण धारणा है, कि मार्क्सवाद केवल अकेले आर्थिक तत्व को ही इतिहास की व्याख्या का केंद्रीय और अंतिम तत्व मानते हैं ।

इतिहास की आर्थिक व्याख्या के संबंध में प्रचलित पूंजीवादी भ्रांतियों का निवारण करते हुए एंगेल्स लिखते हैं, *”इतिहास की मार्क्सीय भौतिकवादी अवधारणा के अनुसार, “वास्तविक जीवन का उत्पादन और पुनरुत्पादन इतिहास में अंतिम रूप से निर्धारक तत्व होता है । मार्क्स ने अथवा मैंने इससे अधिक कोई बात नहीं की । इसीलिए यदि कोई व्यक्ति यह कहकर तोड़ता-मरोड़ता है, कि आर्थिक तत्व ही एकमात्र निर्धारक तत्व होता है, तो वह एक साधारण प्रमेय को अर्थहीन, अमूर्त, आश्यहीन कथन में रूपांतरित करता है । आर्थिक स्थिति आधार होती है, लेकिन अधि-संरचना के विभिन्न तत्व भी ऐतिहासिक संघर्ष के दौर पर अपना प्रभाव छोड़ते हैं, और अनेक घटनाओं में, उनका स्वरूप निर्धारित करने में बहुत भारी सिद्ध होते हैं ।”* (एंगेल्स, जे. ब्लाक के नाम पत्र, 21, सितंबर, 1890)

 

साफ़ है कि मार्क्स द्वारा प्रतिपादित इतिहास की आर्थिक व्याख्या का यह अर्थ कतई नहीं लिया जा सकता कि मार्क्सवाद नैतिकता, करुणा, मैत्री, सद्भावना, शील, सद्कर्म, सत्य इत्यादि की बात नहीं करता । अगर कोई ऐसा समझता है, तो वह अपनी मूढ़ता का ही परिचय देता है । *याद रहे, मार्क्स द्वारा प्रतिपादित इतिहास की आर्थिक व्याख्या को आधार बनाकर ही कार्लाइल जैसे पूंजीवादी विचारक और पूंजीवादी मानसिकता से लबरेज़ उनके शिष्यों द्वारा मार्क्सवाद को ‘सूकर दर्शन’ कहकर निंदित किया जाता रहा है ।* संक्षेप में, इतिहास की आर्थिक व्याख्या का तात्पर्य यह है कि इस दुनिया में जितना भी शोषण, दमन, पाप, अपराध, हिंसा, आतंक, काम, क्रोध, लोभ, लालच, ईर्ष्या, हिंसा आतंक जैसे अमानवीय भाव मौजूद रहे हैं, उनका मूल आधार और मूल स्रोत भौतिक असमानताओं में ही निहित हैं ।

इसीलिए, समाज में भारी भौतिक असमानताओं के रहते, सत्य, अहिंसा, करुणा, मैत्री, सदभाव, शील इत्यादि जैसे ममानवीय भावों का पनपना संभव नहीं हो सकता । तमाम सामाजिक विकृतियों का मूल आधार श्रम के शोषण और निजी संपत्ति पर आधारित सामंती और पूंजीवादी व्यवस्थाएं ही रही हैं । इसीलिए वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था में अभी भी जड़ जमाए बैठे सामंती अवशेषों को, जड़मूल से नष्ट किए बगैर, सत्य, अहिंसा, मैत्री, करुणा, प्रेम, शील वगैरह का पैदा होना लगभग असंभव है । निश्चित ही, बुद्ध, कबीर, रैदास जैसे आध्यात्मिक पुरुषों ने भी शोषण और दमन के ख़िलाफ़ अपने-अपने तरीकों से काफ़ी कुछ कहा । लेकिन अपने समस्त उपदेशों, वचनों और प्रवचनों के माध्यम से उन्होंने समस्या के मूल आधारों को नष्ट किए बगैर ही सत्य, अहिंसा, प्रेम, मैत्री, करुणा इत्यादि की बात की । तमाम बुद्धपुरुषों द्वारा स्थापित धर्मों और मार्क्स द्वारा प्रतिस्थापित सिद्धांत, द्वांद्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद के बीच यही भेद है । धर्म और भौतिकवाद दोनों घोर परस्पर विरोधी वैचारिक धाराएं हैं । इसीलिए इन दोनों के बीच, कोई छोटा-मोटा या मामूली भेद नहीं है, जैसा कि कुछ बुद्धिजीवियों को दिखाई पड़ता है । दोनों के बीच मौलिक भेद उतना ही है, जितना कि ज़मीन और आसमान के बीच में होता है । इसीलिए भाववाद (धर्म) और भौतिकवाद के मध्य कोई साम्य संभव हो ही नहीं सकता । यही बात मार्क्सवाद को अन्य भाववादी दर्शनों, विचारों और सिद्धांतों से अलग करती है । इसीलिए भाववाद और मार्क्स का द्वंदवात्मक भौतिकवाद, दो घोर विरोधी धाराएं हैं ।

बुद्ध और अंबेडकर भाववादी धारा के वाहक हैं तो मार्क्स द्वंदवात्मक भौतिकवाद के पुरोधा । भाववाद शासकवर्ग की धारा का प्रतिनिधित्व करता है तो द्वंदवात्मक भौतिकवाद पीड़ितवर्ग और उसकी मुक्ति का अस्त्र है । अतः पीड़ितवर्ग को इन दोनों में से एक धारा का चुनाव करना ही पड़ेगा । और कोई विकल्प है भी नहीं ।

 

दूसरी और अंतिम बात, कबीर, नानक, रैदास की ही तरह, बुद्ध भी मुझे अत्यंत प्रिय रहे हैं, हालांकि भाववादी होने के कारण, इन आध्यात्मिक पुरुषों की कुछ वैचारिक सीमाएं भी हैं । लेकिन तमाम सीमाओं के बावजूद, वे सभी मुझे प्रिय रहे हैं । लेकिन समस्या तब शुरू होती है जब अंबेडकर मार्क्सवाद को अप्रासंगिक करार देते हुए, उसके विकल्प के तौर पर पीड़ित मनुष्य की सभी समस्याओं के निवारण के लिए, बौद्धधर्म को पेश करते करते हुए उसे बेहद प्रासंगिक बताते हैं और मार्क्सवाद को बेहद अप्रासंगिक ।

यहीं से बुद्ध और मार्क्स के बीच तार्किक, ऐतिहासिक और वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर तुलनात्मक और विश्लेषणात्मक आलोचनाओं का दौर शुरू करना जरूरी मालूम होता है । ऐसे में, बुद्ध और मार्क्स द्वारा दिए गए वक्तव्य से संबंधित एक-एक वाक्य को लेकर आलोचनाएं और समालोचनाएं तो की ही जाएंगी । इसमें आहत होने की क्या बात हो सकती है ? आपको ऐतिहासिक तथ्यों और तर्कों के साथ जवाब देने के लिए तैयार रहना चाहिए