तकलीफ़ों का इलाज कम, आंकड़ों का हल्ला ज़्यादा

बात बेबात

तकलीफ़ों का इलाज कम, आंकड़ों का हल्ला ज़्यादा

विजय शंकर पांडेय

असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा का बयान सुनकर लगा कि वे मुख्यमंत्री कम और जनगणना विभाग के भविष्यवक्ता ज़्यादा हैं। 40 प्रतिशत बांग्लादेशी मूल की आबादी, और अगर 10 प्रतिशत और बढ़ गई तो असम सीधे बांग्लादेश में विलय!

यानी न विधानसभा की ज़रूरत, न संसद की, न संविधान संशोधन—सिर्फ प्रतिशत का जादू चलेगा और नक्शा बदल जाएगा।

अब सवाल वही है—हिमंत बिस्वा सरमा हैं किस मर्ज़ की दवा? जनता की बीमारी बेरोज़गारी है, महंगाई है, बाढ़ है, स्वास्थ्य व्यवस्था है। मगर दवा दी जा रही है “डेमोग्राफिक डर” की।

असम हर साल डूबता है, पर मुख्यमंत्री को डर सूखे आँकड़ों से लगता है। पुल बह जाते हैं, स्कूलों में शिक्षक नहीं, अस्पतालों में डॉक्टर नहीं—लेकिन चिंता इस बात की है कि कहीं असम पासपोर्ट बदलने की ज़िद न कर बैठे।

मुख्यमंत्री की राजनीति भी कमाल की है—जब काम पूछो तो भविष्य का भूत दिखाओ, जब सवाल हो तो सीमा पार का साया खड़ा कर दो। जनता पूछती है, “रोज़गार कब मिलेगा?” जवाब आता है, “पहले आबादी देख लो।” कोई पूछे, “बाढ़ से कब निजात?” तो उत्तर—“जनसंख्या नियंत्रण ज़रूरी है।”

हिमंत बिस्वा सरमा दरअसल हर उस बीमारी की दवा हैं, जिसमें इलाज मुश्किल हो और डर बेचना आसान। असम की तकलीफ़ों का इलाज कम, आंकड़ों का हल्ला ज़्यादा।

लेखक – विजय शंकर पांडेय

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