राजकुमार कुम्भज की दो कविताऍं
1.
है कोशिश यही
मैं करता रहा कोशिशें
अपनी कोशिशों में होती रहीं हैं ग़लतियाॅं
कई-कई और कई-कई बार मुझसे
और मैं हारता रहा हूॅं युद्ध-मैदानों में
जय-पराजय की होती हैं नीतियाॅं और-और
कि वे जो होती नहीं हैं कभी भी,कहीं भी
किसी भी कोशिश की क़शीश में पक्षधर
हज़ारों हार बाद,हज़ारों कोशिशें क्यों नहीं,
बार-बार और हज़ारों-हज़ार बार क्यों नहीं,
गिरना,उठना,संभलना,समझना इत्यादि
समझता हूॅं ख़ूब-ख़ूब समझता हूॅं मैं
और समझता हूॅं फिर-फिर लड़ना बार-बार
हज़ारों-हज़ार बार लड़ना और लड़ते रहना
है कोशिश यही.
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2.
स्वप्निल -मायाजाल
पहले मैं एक सपना देखता हूॅं
फिर उस एक सपने में देखता हूॅं मैं
अपने सपनों के सपनों का संसार
और फिर देखता हूॅं बार-बार देखता हूॅं मैं
खिलखिलाते सपनों के विभिन्न रॅंग
मैं देखता हूॅं और देखता हूॅं फिर -फिर
किसिम-किसिम के रॅंगों के विभिन्न सपने
कि दूर कहीं दूर एक झुंड है निर्मल-निच्छल
कलरव करते भिन्न-विभिन्न पक्षियों का
जो उड़ा ले जा रहा है मुझे बहुत दूर कहीं
इस पार से उस पार,क्षिति-गगन के पार
बहुतेरा विस्तार है बहुतेरा विस्तार
बद्ज़ुबान बहेलिये का जाल-जंजाल है सब
जिसमें सिमटा है,लिपटा है शताब्दियों से
बहेलिये की लूट-खसोट का छल-कपटभरा
असत्य-प्रेरित स्वप्निल-मायाजाल.
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