हरदीप सबरवाल की चार कविताएं 

हरदीप सबरवाल की चार कविताएं

  १

समीकरण

जब पहली कविता लिखी

सीधे पिता के सीने में जा धंसी

नश्तर बन

कराह कर वो बोल उठे

जहां सरस्वती हो वहां लक्ष्मी नहीं विराजती

 

और मैं ना सरस्वती लायक रहा

ना लक्ष्मी लायक

 

पिता जीवन भर

देते रहे अनगिनत नसीहतें

दूसरे के मामले में दखल नहीं देना

सड़क पर बिना कारण नहीं रुकना

अपराधियों से बच के निकलना

अपने काम से काम रखना

से लेकर

सरकारों के खिलाफ आवाज नहीं निकलने तक

की एक लंबी लिस्ट

 

पिता की नसीहतें

पहनते पहनते

मैं गूंगा, बहरा अंधा

और फिर बौना होता चला गया

 

अब मैं भी एक पिता

अपने बच्चों को नसीहतें देने

का फर्ज़ पूरा करता

 

युग बदलते हैं

और बदल जाते हैं

नसीहतों के शब्द भी

लेकिन सार

वहीं के वहीं रह जाते हैं

 

कि पिता की नसीहतें

उसके दिल से नहीं

पेट से निकलती हैं

 

हर युग में

सत्ता समीकरण

आदमी को उलझाए रखते हैं

पेट के सरोकारों तक

 

सत्ताएं इसी के दम पर चलती हैं…

 

   २

नायक

 

सोनम वांगचुक हमारा नायक नहीं था

हमारा नायक था रणछोड़ दास चांचड़

कि हमारे नायक जमीन पर काम नहीं करते

वो सिल्वर स्क्रीन पर चमक बिखेरने आते हैं

 

बेटी के पास बहुत सारे रोलर्स है

जिसे वो बालों में लगा कर इंतजार करती है

सीधे बालों को घुंघराले हो जाने का

करते तो हम सब भी यहीं है…

 

हमारे रोलर्स दिन भर घुमाते रहते हैं

सीधे सरल तथ्यों, बातों को

घुमावदार बनाते हुए ,

एक रोलर देशभक्ति घुमाता है

एक रोलर विदेशी संबध

एक और फंडिंग को घुमाता है

एक और फिर एक और

एक और भी …

 

कवि ने बहुत पहले बताया था

देश कोई कागज पर बना नक्शा नहीं

देश सच में कागज पर बना नक्शा नहीं है

फिर भी हमने जेबों में भर दिया इसे

चंद कमीजों की

 

इन दिनों के फैशन में

जब सब के हाथ मगन है

रील्स स्क्रॉल करने में

हर कोई होड़ में नायक बनने की

 

अब जब नायक, नायक नहीं रहे

ना रही प्रजा , भी प्रजा

अपनी जेब पर हाथ रख मुस्कुराता

हर तरफ छा गया है राजा….

 

३.

नरसंहार

 

लगातार गूंजते हुए शब्द उतर रहे

समाचार वाचक के मुंह से निकल

सीधे मस्तिष्क में ,

 

उन्नीस साल का लड़का सोचता है

कि इस तरह चीखने भर से ही

सत्यापित होते हैं सत्य,

 

सामने बैठा ऊंघता हुआ बूढ़ा

उस किताब को फ़ाड़ देना चाहता है,

जो बताती रही ज्ञान एक पीढ़ी का संचय है

अगली पीढ़ियों के लिए,

 

जानकारी परोसने का मतलब

अब जानकारी देना नहीं

भावनाओ का दोहन करना भर रह गया है,

 

और इतिहास महज

सहूलियत भर है वर्तमान की

जैसे चाहो वैसा मिलने को आतुर,

 

कई बार हम जान ही नहीं पाते कि

अष्टाध्यायी की परिभाषा से इतर भी

कुछ वाक्य बन जाते हैं,

 

और सभ्यताओं के नरसंहार

सिर्फ हथियारों से ही नहीं होते…..

 

     ४.

जड़ें

पिता लिखते लिखते

पंजाबी के शब्दों में मिला देते

हिन्दी के शब्द,

मिली जुली मात्राएं उभर आती

शब्दों में चित्र बन

दिल्ली में रहती मौसी

अपने पड़ोसियों से हिन्दी में बात करते करते

पंजाबी बोल उठती

हमारे साथ पंजाबी बोलते वक़्त

मिला देती हिन्दी

 

मैं पिता के लिखे हुए शब्द

बिना कठिनाई के पढ़ लेता

जैसे मौसी के पड़ोसी समझ लेते उसकी बात

कभी कोई बांग्ला भाषी मिलता

तो पिता चहक कर बोलते बांग्ला

कभी कभार थोड़ी ओड़िया भी

 

शहर जब छूटता है

तो सारा नहीं छूटता, थोड़ा सा

साथ चला आता है,

 

मेरे दोस्त ने बताया था अचंभित हो

पड़ोस के मोहल्ले में रहने वाले

उसके सहकर्मी ने

हम लोगो के लिए रिफ्यूजी शब्द प्रयोग किया

कुछ प्रश्नों का जवाब सिर्फ मुस्कुराहट होती है

 

उस दिन जब बेटे ने पूछा

हमारा गांव कहां है

मेरे कहीं नहीं कहने पर बस इतना बोला

होता तो अच्छा होता

वह फुटबॉल उठा खेलने चला गया

डूबते सूरज को देर तक देखते हुए

सोचता हूं

इंसान की जड़ें कैसी होती है

कैसी होती है उसकी अपनी मिट्टी…

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